Tuesday, May 14, 2024
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ओशो -देह शूद्र है, मन वैश्य है आत्मा क्षत्रिय है और परमात्मा ब्राह्मण हैं इसी लिए ब्रम्ह परमात्मा का नाम है

🌳 प्रश्न:- कल आपने शूद्र और ब्राह्मण की परिभाषा की । कृपया समझाएं कि मन शूद्र है अथवा ब्राह्मण ।

ओशो:- देह शूद्र है । मन वैश्य है । आत्मा क्षत्रिय है । परमात्मा ब्राह्मण । इसलिए ब्रह्म परमात्मा का नाम है । ब्रह्म से ही ब्राह्मण बना है । देह शूद्र है । क्यों ? क्योंकि देह में कुछ और है ही नहीं ।
देह की दौड़ कितनी है ? खा लो ; पी लो ; भोग कर लो ; सो जाओ । जीओ और मर जाओ । देह की दौड़ कितनी है । शूद्र की सीमा है यही । जो देह में जीता है , वह शूद्र
है । शूद्र का अर्थ हुआ : देह के साथ तादात्म्य । मैं देह हूं , ऐसी भावदशा : शूद्र ।

मन वैश्य है । मन खाने-पीने से ही राजी नहीं होता । कुछ और चाहिए । मन यानी और चाहिए । शूद्र में एक तरह की सरलता होती है ।

देह में बड़ी सरलता है । देह कुछ ज्यादा मांगें नहीं करती । दो रोटी मिल जाएं । सोने के लिए छप्पर मिल जाए । बिस्तर मिल जाए । जल मिल जाए । कोई प्रेम करने को मिल जाए । प्रेम देने-लेने को मिल जाए । बस , शरीर की मांगें सीधी-साफ हैं ; थोड़ी हैं , सीमित हैं । देह की मांगें सीमित हैं । देह कुछ ऐसी बातें नहीं मांगती , जो असंभव है । देह को असंभव में कुछ रस नहीं है ।
देह बिलकुल प्राकृतिक है ।

इसलिए मैं कहता हूं कि सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं, क्योंकि सभी देह की तरह पैदा होते हैं । जब और-और की वासना उठती है , तो वैश्य । वैश्य का मतलब है : और धन चाहिए ।

फोर्ड अपने बुढा़पे तक – हेनरी फोर्ड- और नए धंधे खोलता चला गया । किसी ने उसकी अत्यंत वृद्धावस्था में ,मरने के कुछ दिन पहले ही पूछा उससे कि आप अभी भी
धंधे खोलते चले जा रहे हैं ! आप के पास इतना है ; इतने और नए धंधे खोलने का क्या कारण है ? वह नए उद्योग खोलने की योजनाएं बना रहा था । बिस्तर पर पड़ा हुआ भी ! मरता हुआ भी ! हेनरी फोर्ड ने क्या कहा , मालूम ? हेनरी फोर्ड ने कहा :
मैं नहीं जानता कि कैसे रुकूं । मैं रुकना नहीं जानता । मैं जब तक मर ही न जाऊं , मैं रुक नहीं सकता ।

यह वैश्य की दशा है । वह कहता है , और ।
इतना है , तो और । ऐसा मकान है , तो और बड़ा । इतना धन है , तो और थोड़ा ज्यादा धन ।

देह शूद्र है , और सरल है । शूद्र सदा ही सरल होते हैं। मन बहुत चालबाज,चालाक , होशियार , हिसाब बिठाने वाला है । मन की सब दौडे़ं हैं । मन किसी चीज से राजी
नहीं है। मन व्यवसायी है। वह फैलाए चला जाता है । वह जानता ही नहीं , कहां रुकना । वह अपनी दुकान बड़ी किए चला जाता है ! बड़ी करते-करते ही मर जाता है ।

आत्मा क्षत्रिय है । क्यों ? क्योंकि क्षत्रिय को न तो इस बात की बहुत चिंता है कि शरीर की जरूरतें पूरी हो जाएं ;। जरूरत पड़े तो वह शरीर की सब जरूरतें छोड़ने को राजी है । और क्षत्रिय को इस बात की भी चिंता नहीं है कि और-और । अगर क्षत्रिय को इस बात की चिंता हो , तो
जानना कि वह वैश्य है ; क्षत्रिय नहीं है ।
क्षत्रिय का मतलब ही यह होता है : संकल्प का आविर्भाव। प्रबल संकल्प का आविर्भाव । महा संकल्प का आविर्भाव ।और महा संकल्प या प्रबल संकल्प के लिए एक ही चुनौती है, वह है कि मैं कौन हूं, इसे जान लूं ।

शूद्र शरीर को जानना चाहता है । उतने में ही जी लेता है । वैश्य मन के साथ दौड़ता है । मन को पहचानना चाहता है । क्षत्रिय , मैं कौन हूं , इसे जानना चाहता है । जिस दिन
तुम्हारे भीतर यह सवाल उठ आए कि मैं कौन हूं , तुम क्षत्रिय होने लगे । अब तुम्हारी धन इत्यादि दौडो़ं में कोई उत्सुकता नहीं रही । एक नयी यात्रा शुरू हुई —
अंतर्यात्रा शुरू हुई ।

तुम यह जानते हो कि इस देश में जो बड़े से बड़े ज्ञानी हुए – सब क्षत्रिय थे । बुद्ध , जैनों के चौबीस तीर्थंकर , राम , कृष्ण — सब क्षत्रिय थे ! क्यों ? होना चाहिए सब ब्राह्मण , मगर थे सब क्षत्रिय । क्योंकि ब्राह्मण होने के पहले क्षत्रिय होना जरूरी है । जिसने जन्म के साथ अपने को ब्राह्मण
समझ लिया , वह चूक गया । उसे पता ही नहीं चलेगा कि बात क्या है ! और जो जन्म से ही अपने को ब्राह्मण समझ लिया और सोच लिया कि पहुंच गया , क्योंकि जन्म उसका ब्राह्मण घर में हुआ है , उसे संकल्प की यात्रा करने का अवसर ही नहीं मिला , चुनौती नहीं मिली ।

इस देश के महाज्ञानी क्षत्रिय थे । हिंदुओं के अवतार , जैनों के तीर्थंकर , बौद्धों के बुद्ध –सब क्षत्रिय थे । इसके पीछे कुछ कारण है । सिर्फ एक परशुराम को छोड़कर कोई ब्राह्मण अवतार नहीं हैं । और परशुराम बिलकुल ब्राह्मण नहीं हैं । उनसे ज्यादा क्षत्रिय आदमी कहां खोजोगे ! उन्होंने क्षत्रियों से खाली कर दिया पृथ्वी को कई दफे काट-काटकर । वे काम ही जिंदगीभर काटने का करते रहे । उनका नाम ही
परशुराम पड़ गया , क्योंकि वे फरसा लिए घूमते रहे । हत्या करने के लिए परशु लेकर घूमते रहे । वे क्षत्रिय ही थे । उनको भी ब्राह्मण कहना बिलकुल ठीक नहीं है , जरा भी ठीक नहीं है। उनसे बड़ा क्षत्रिय खोजना
मुश्किल है ! जिसने सारे क्षत्रियों को पृथ्वी से कई दफे मार डाला और हटा दिया , अब उससे बड़ा क्षत्रिय ,..और कौन होगा ?

संकल्प यानी क्षत्रिय ।

ऐसा समझो कि भोग यानी शूद्र ।
तृष्णा यानी वैश्य । संकल्प यानी क्षत्रिय ।
और जब संकल्प पूरा हो जाए , तभी समर्पण की संभावना है । तब समर्पण यानी ब्राह्मण ।

जब तुम अपना सब कर लो , तभी तुम झुकोगे । उसी झुकने में असलियत होगी । जब तक तुम्हें लगता है : मेरे किए हो जाएगा , तब तक तुम झुक नहीं सकते ।
तुम्हारा झुकना धोखे का होगा ; झूठा होगा ; मिथ्या होगा ।

अपना सारा दौड़ना दौड़ लिए, अपना करना सब कर लिए और पाया कि नहीं , अंतिम चीज हाथ नहीं आती , नहीं आती , नहीं आती , चूकती चली जाती है । तब एक असहाय अवस्था में आदमी गिर पड़ता है ।
जब तुम घुटने टेककर प्रार्थना करते हो , तब असली प्रार्थना नहीं है । जब एक दिन ऐसा आता है कि तुम अचानक पाते हो कि घुटने टिके जा रहे हैं पृथ्वी पर । अपने टिका रहे हो — ऐसा नहीं ; झुक रहे हो — ऐसा नहीं ;
झुके जा रहे हो ; । अब कोई और उपाय नहीं रहा । जिस दिन झुकना सहज फलित होता है , उस दिन समर्पण ।

समर्पण यानी ब्राह्मण । समर्पण यानी ब्रह्म ।
जो मिटा उसने ब्रह्म को जाना ।

ये चारों पर्तें तुम्हारे भीतर हैं । यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम किस पर ध्यान देते हो । ऐसा ही समझो कि जैसे तुम्हारे रेडियो में चार स्टेशन हैं । तुम कहां अपने रेडियो की कुंजी को लगा देते हो ; किस स्टेशन पर रेडियो के कांटे को ठहरा देते हो , यह तुम पर निर्भर है ।

ये चारों तुम्हारे भीतर हैं । देह तुम्हारे भीतर है । मन तुम्हारे भीतर है । आत्मा तुम्हारे भीतर । परमात्मा तुम्हारे भीतर ।

अगर तुमने अपने ध्यान को देह पर लगा दिया , तो तुम शूद्र हो गए । स्वभावत: , बच्चे सभी शूद्र होते हैं । क्योंकि बच्चों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे देह से ज्यादा गहरे में जा सकेंगे । मगर बूढ़े अगर शूद्र हों , तो अपमानजनक है । बच्चों के लिए स्वाभाविक है । अभी जिंदगी जानी नहीं , तो जो पहली पर्त है , उसी को
पहचानते हैं । लेकिन बूढ़ा अगर शूद्र की तरह मर जाए , तो निंदा-योग्य है । सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं , लेकिन किसी को शूद्र की तरह मरने की आवश्यकता नहीं है ।

अगर तुमने अपने रेडियो को वैश्य के स्टेशन पर लगा दिया , तुमने अपने ध्यान को वासना-तृष्णा में लगा दिया , लोभ में लगा दिया , तो तुम वैश्य हो जाओगे। तुमने अगर अपने ध्यान को संकल्प पर लगा दिया , तो क्षत्रिय हो जाओगे । तुमने अपने ध्यान को अगर समर्पण में डुबा दिया , तो तुम ब्राह्मण हो जाओगे ।

ध्यान कुंजी है । कुछ भी बनो , ध्यान कुंजी है । शूद्र के पास भी एक तरह का ध्यान है । उसने सारा ध्यान शरीर पर लगा दिया । अब जो स्त्री दर्पण के सामने घंटों खड़ी रहती है — बाल संवारती है ; धोती संवारती है ; पावडर लगाती है –यह शूद्र है। ये जो दो-तीन घंटे दर्पण के सामने गए , ये शूद्रता में गए । इसने सारा ध्यान शरीर पर लगा दिया है । यह राह पर चलती भी है , तो शरीर पर ही इसका ध्यान है । यह दूसरों को भी देखती है , तो शरीर पर ही इसका
ध्यान होगा । जब यह अपने शरीर को ही देखती है , तो दूसरे के शरीर को ही देखेगी । और कुछ नहीं देख पाएगी । यह अगर अपनी साड़ी को घंटों पहनने में रस लेती है , तो बाहर निकलेगी , तो इसको हर स्त्री की साड़ी दिखाई पडे़गी और कुछ दिखायी नहीं पडे़गा ।

जो व्यक्ति बैठा-बैठा सोचता है कि एक बड़ा मकान होता ; एक बड़ी कार होती ; बैंक में इतना धन होता – क्या करूं ?कैसे करूं ? वह अपने ध्यान को वैश्य पर लगा रहा है । धीरे-धीरे ध्यान वहीं ठहर जाएगा । और अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर तुम एक ही रेडियो में एक ही स्टेशन सदा सुनते हो , तो धीरे-धीरे तुम्हारे रेडियो का कांटा उसी स्टेशन पर ठहर जाएगा ; जड़ हो जाएगा । अगर तुम दूसरे स्टेशन को कभी सुने ही नहीं हो और अचानक सुनना भी चाहो , तो शायद पकड़ न सकोगे । क्योंकि हम जिस चीज का उपयोग करते हैं , वह जीवित रहती है । और जिसका उपयोग
नहीं करते , वह मर जाती है ।

इसलिए कभी-कभी जब सुविधा बने शूद्र से छूटने की , तो छूट जाना । वैश्य से छूटने की , तो छूट जाना । जब सुविधा मिले , तो कम से कम — ब्राह्मण दूर– कम से कम थोड़ी देर को क्षत्रिय होना ; संकल्प को जगाना । और कभी-कभी मौके जब आ जाएं , चित्त प्रसन्न हो , प्रमुदित हो , प्रफुल्लित हो , तो कभी-कभी क्षणभर को
ब्राह्मण हो जाना। सब समर्पित कर देना ।
लेट जाना पृथ्वी पर चारों हाथ-पैर फैलाकर ,जैसे मिट्टी में मिल गए , एक हो गए । झुक जाना सूरज के सामने या वृक्षों के सामने । झुकना मूल्यवान है ; कहां झुकते हो , इससे कुछ मतलब नहीं है । उसी झुकने में थोड़ी देर के लिए ब्रह्म का आविर्भाव होगा ।

ऐसे धीरे-धीरे , धीरे-धीरे अनुभूति बढ़ती चली जाए , तो हर व्यक्ति अंततः मरते-मरते ब्राह्मण हो जाता है ।

जन्म तो शूद्र की तरह हुआ है , ध्यान रखना , मरते समय ब्राह्मण कम से कम हो जाना । मगर एकदम मत सोचना कि हो सकोगे । कई लोग ऐसा सोचते हैं कि बस , आखिरी घड़ी में हो जाएंगे जिसने जिंदगीभर अभ्यास नहीं किया , वह मरते वक्त आखिरी घड़ी में रेडियो टटोलेगा ; स्टेशन नहीं लगेगा फिर ! पता ही नहीं होगा कि कहां है ! और मौत इतनी अचानक
आती है कि सुविधा नहीं देती । पहले से खबर नहीं भेजती कि कल आने वाली हूं । अचानक आ जाती है । आयी कि आयी ! कि तुम गए ! एक क्षण नहीं लगता । उस घड़ी में तुम सोचो कि राम को याद कर लेंगे , तो तुम गलती में हो । तुमने अगर जिंदगीभर कुछ और याद किया है , तो उसकी ही याद आएगी ।

इसलिए तैयारी करते रहो ; साधते रहो ।
जब सुविधा मिल जाए , ब्राह्मण होने का मजा लो । उससे बड़ा कोई मजा नहीं है ।
वही आनंद की चरम सीमा है ।
एस धम्मो सनंतनो,12

🙏🙏🙏 प्रस्तुति – सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार एवं दस्तावेजी प्रेस छायाकार

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