Wednesday, May 15, 2024
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27 नवम्बर -यशस्वी कवि हरिवंश राय बच्चन की जन्मतिथी है।

27 नवम्बर यशस्वी कवि हरिबंश राय बच्चन की जन्मतिथि है | बच्चन जी उत्तर छायावादी दौर के महत्वपूर्ण कवियों में से तो है ही , लेकिन यह भी महत्वपूर्ण है कि उनके जैसी लोकप्रियता कम ही कवियों को मिली होगी | यहाँ बच्चन जी को आत्मीयता से याद कर रहे है उनके उनके घनिष्ट रहे कवि – लेखक अजित कुमार

कवि बच्चन के अनेक रूप

हाल में आई फिल्म ‘ सत्याग्रह ‘ को देखकर लौटे बहुतेरे लोगो से सुनने को मिलता है कि यह फिल्म अन्ना हजारे के आन्दोलन पर बनी है | दर्शको को इस सिलसिले में गाँधी या दधिची याद नही आये | कवि बच्चन को भी इस देश की मौजूदा पीढ़ी यदि अमिताभ बच्चन के पिता की भाँती पहचानती है तो इस लिए की उसने बच्चन को सूना या पढ़ा है , वरन इसलिए की फिल्मो के महानायक अमिताभ बच्चन सार्वजनिक रूप से अक्सर अपने बाबूजी को याद करते रहे है | सच तो यह है की देशवासियों की औसत उम्र आजादी मिलने के बाद जिस अनुपात में बढ़ी है , उससे भी अधिक उनकी याददाश्त कम हुई है|

आज का हिन्दी — भाषी समाज कल्पना भी नही कर सकता की एक वक्त ऐसा भी था , जब हजारो लोग मंच पर प्रस्तुत बच्चन की कविता सुनते और ” वन्स मोर ” दोहराते हुए पूरी – पूरी रात गुजार दिया करते थे |

अब से तीन – चौथाई सदी पहले सन 1936 में उन्होंने ” मधुशाला ” का पहला सार्वजनिक पाठ

काशी हिन्दू विश्वविधालय में किया था और रातो – रात वे समूचे हिन्दी जगत में प्रसिद्द हो गये थे |

देखते – देखते ” मधुशाला ” के अनेक संस्करण छप चुके थे और मेरे घर में भी उसका एक गुटका संस्करण था , जो बच्चन जी ने मेरी कवियत्री माँ को किसी कवि सम्मेलन में उपहार स्वरूप दिया था | माँ के जैसा मधुर कंठ तो मुझे नही मिला था , पर उन्होंने उसकी धुन जरुर सिखाई थी और मैं बिना अर्थ समझे उसकी दो – चार रुबाइया रट भी ली थी | जिस तरह लोग मेहमानों के सामने अपने बच्चो से ” बा बा ब्लैक शिप ‘ ‘ जैक एंड जिल ” आदि सुनवाते रहते है , उसी तरह मेरे माता – पिता भी मेरे बचपन में मुझसे ” मधुशाला सुनवाया करते थे |

पर इसके कुछ बरस बाद जब मेरी उम्र 10 – 11की हुई , सन 41 – 42 में दुसरे महायुद्द के दौरान ‘ वार – फंड ” इकठ्ठा करने के इरादे से विदेशी सरकार जिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन कराने लगी थी , उन्ही में से एक में जब मैंने अपने कस्बे उन्नाव में पहली बार स्वंय कवि के मुख से अन्य रचनाओं के साथ ” मधुशाला ” को भी सूना तो ऐसा हक्काबक्का हुआ कि फिर कभी घरेलू बैठको में अपने मुंह से ” मधुशाला ” को दोहराने की हिम्मत न कर सका

लेकिन कुछ बरस बाद सन1948 में इलाहाबाद विश्व विधालय में अग्रेजी साहित्य के अध्यापक वाला बच्चन जी का दुसरा ही रूप देखने को मिला | कवि सम्मेलन की अनौपचारिक , आत्मीय मुद्रा से बिलकुल भिन्न , वह सूट – बूट – टाई वाला एक रोबीला , साहबी चेहरा था – घंटी बजते ही क्लासरूम में पहुच जाने वाले , हाजिरी पूरी होने के बाद छात्रो को कक्षा में प्रवेश की अनुमति न देने वाले , किसी भी तरह की अनुशासनहीनता को बर्दाशत न करने वाले सख्त अध्यापक का चेहरा , जिसे एक रोज किसी छात्र ने जब बच्चन जी नाम से संबोधित किया तो उसे न केवल यह झाड सुननी पड़ी कि यहाँ कवि बच्चन नही अंग्रेजी साहित्य के अध्यापक ‘ मिस्टर एच राय है बल्कि भविष्य में कोई और छात्र ऐसी भूल न कर बैठे इस ख्याल से उन्होंने ब्लैक बोर्ड पर चाक से अपना पूरा नाम ” एच आर बी एएन आरएआई ” लिखकर अपने छात्रो को हिदायत दी की यह स्पेलिंग वे अपनी नोट बुक में दर्ज कर ले |

नाक पर मक्खी तक न बैठने देने वाले ऐसे कड़े अध्यापक को कुछ ही महीनों बाद मैंने छात्रो के यूनियन हाल में आयोजित कवि सम्मेलन के अध्यक्ष की हैसियत से बिलकुल भिन्न एक हल्के फुल्के अंदाज में देखा | जो बालिका इस कदर हूट की जा रही थी कि कविता की पहली पक्ति पर ही ठहर गयी थी , वह उनकी सभा — चातुरी के नाते जब पूरी कविता सूना सकी तो बच्चन जी ने अलगे कवि के लिए यह भूमिका बाँधी — ” अब आपके सामने आ रहे है श्री मदनलाल नकफोफा – इन्हें आप जिस भी तरह चाहे सुनने को स्वतंत्र है | आइये श्री नकफोफा ! ‘
इस आव्हान के बाद पधारे कवि को श्रोताओं ने ऐसा उखाड़ा की लगा – कार्यक्रम वही ठप्प हो जाएगा , पर अध्यक्ष की वाक् – चातुरी ने सबको शांत कर दिया और कवि सम्मलेन सुचारू गति से चलता रहा | सबके अंत में अध्यक्ष की बारी आने पर तो श्रोता ऐसे मगन हुए कि फर्माइशो का ताता बंध गया . लेकिन समय की सीमा जान सभाकक्ष के दाहिनी ओर बैठी युवतियों के समूह में कुछ हलचल हुई और एक गीत पूरा होते ही वे सब की सब ” महिला छात्रवास ” में हाजिरी तथा डिनर ” के लिए समय से पहुच जाने के इरादे से एक साथ उठ खड़ी हुई , लेकिन इससे पहले कि वे दरवाजे तक पहुचती , बच्चन जी का अगला गीत शुरू हो चुका था – ‘ प्रिय , शेष बहुत है रात , अभी मत जाओ ‘ जिसकी लय इतनी मनोहारी थी कि जाती हुई सारी लडकिया वही थम गयी और अंतिम मनुहार भरी पुकार ‘ प्रिय .. शेष बहुत है रात अ .भी . म त जा .. सुनने के बाद ही बेशुमार तालियों की गडगडाहट के बीच विदा हुई | वह आयोजन तो , खैर कुछ ही देर चला था , पर मुझे वह पल बहुत समय तक बना रहा | बच्चन जी अध्यापक की गंभीरता – गरिमा और कवि की सहजता – उन्मुक्तता के बीच फरक को हमेशा बनाये – बचाए रखते थे |

ठीक यही बात मैंने दफ्तरी कामकाज के प्रति उनके दृष्टिकोण में भी पाई | जब मुझे विदेश मंत्रालय के हिन्दी विभाग में उनके साथ एक ही दफ्तर में काम करने का अवसर मिला , मैंने उनको सब कुछ कायदे , सलीके और समय से निबटाते हुए देखा | यह सच है कि तब के दफ्तर के पंचायती माहौल में मुझ जैसे सामान्य कर्मचारी जहा अक्सर खाली बैठे , गप्प करते , चाय पीते या अखबार पढ़ते अपना समय गवाते थे , वहा बच्चन जी अपने अध्ययन – लेखन में व्यस्त रहते थे , लेकिन फरक यह था की सरकारी काम आते ही वे अपना सब कुछ तुरंत छोड़ फ़ाइल निबटाने में लग जाया करते थे और हमारा छोटा सा दफ्तर बिलकुल ” वार रूम ” या सैनिक कक्ष बन जाता था , जिसे देख अक्सर मुझे लगता , मानो चीटी को मारने के लिए पूरी मशीनगन लगा दी गयी है |

जहा तक लेखन – कर्म का सम्बन्ध है , आमतौर पर कवियों को मनमौजी या निरंकुश बल्कि अस्त – व्यस्त और उबड़ – खाबड़ समझा जाता रहा है ,, लेकिन बच्चन जी में अपनी भावनाओं को सयंमित – व्यवस्थित
करने की अपूर्व क्षमता मैंने देखी थी | उनकी आदत थी कि वे योजनाबद्ध तरीके से एक समय पर ही अगले काम को हाथ लगाते थे |

चिठिया उनके पास बहुत आती थी और तत्काल वे उनका उत्तर भी देते थे , जिसका आसान तरीका डाक बढ़ते जाने के क्रम में उन्होंने यह निकाला था की पोस्टकार्ड लिखे और उसमे भी तारवाली संक्षिप्त भाषा का प्रयोग करे | उदाहरण के लिए , बाद के दिनों में उनके पत्र कुछ इस तरह के होने लगे थे – ” प्रिय क , ज , दि की शु , का के लिए ध. बच्चन ‘ लेकिन इस तरह के रस्मी खतो को भी उनके प्रेमी और प्रशसक सहेज कर रख लिया करते थे .– जिसका एक कारण शायद अनोखा हस्ताक्षर भी था , जिसमे बी को घुमाकर वे कुछ इस तरह लिखते थी कि हिंदी का बच्चन अंग्रेजी के गुड जैसा दिखता था और भले ही बहुतेरे लोग उनके हस्तलेख को ठीक नही पढ़ा पाते थे , पर वे उनकी चिठिया अपने पास सहेज कर रखना जरुर पसंद करते थे |

बच्चन के पत्रों के प्रति उस जमाने के लोगो के मोह का आलम यह था किमेरा अनुमान है , हिन्दी में बच्चन के पत्रों के जितने संकलन निकले है , उतने शायद ही किसी अन्य लेखक के छपे होगे | जरुर ही इसीलिए भी कि जितने पत्र बच्चन ने अपने जीवन — काल में लिखे , उतने शायद ही किसी अन्य हिन्दी लेखक ने लिखे होगे |

मेरे पास अनुत्तरित पत्रों का भारी अम्बार देख बच्चन जी मुझे समझाते भी थे कि यह बुरी बात है | हर पत्र किसी – न – किसी आशा से तुम्हारे पास आता है , वह आशा तुम न पूरी कर पाओ , लेकिन उसकी पावती तो भेजनी ही चाहिए | ऐसा न करना अशिश्ता है , अंग्रेज इस तरह की अशिश्ता कभी नही करता |

मैं देखता भी था उनके व्यापक जन – सम्पर्क तथा उनकी अभूतपूर्व लोकप्रियता के पीछे उनका विस्तृत पत्र – व्यवहार ही नही , लोक संग्रह के प्रति उनकी घहरी निष्ठा भी थी , जिससे प्रेरित हो उन्होंने बिलकुल आसान रोजमर्रा की भाषा में अपनी कविता तो लिखी ही , अपने छोटे से घरेलू नाम को भी ऐसा अविस्मरणीय दर्जा दिया कि आज ” गांधी ” ” नेहरु ” जैसे प्रतिष्ठित कुल्नामो के समानान्तर ” बच्चन ‘ एक विश्वप्रसिद्द और सम्मानित कुलनाम ही नही अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिवाला ” ब्रांड ” बन चुका है |
————————————— प्रकाश्य ” गुरु बच्चन से दूर ” में से कुछ अंश

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