Tuesday, December 10, 2024
होमअपराधकहानी -कोई खोज ना खबरिया

कहानी -कोई खोज ना खबरिया

कहानी- कोई खोज न खबरिया
लेखक- अनिल कुमार ‘अलीन’

‘कोई खोज न खबरिया’ मात्र एक कहानी ही नहीं बल्कि एक ऐसी हकीकत है जो जिंदा इंसानों के मन-मस्तिष्क में दहकते हुए लावा की तरह उठती है और शमशीर की तरह सीने को चीरती चली जाती है। कभी-कभी आँखों में अँगारे बन शरीर में बिजली की तरह दौड़ती है। एक ऐसी कहानी जो केवल आज की हकीकत के सामने दम तोड़ती है। मृतप्राय समाज गुनहगार है, इस कहानी के पात्रों का; दुनिया के किसी न किसी कोने में भूख और प्यास से दम तोड़ता शोषित, वंचित और उपेक्षित वर्ग इस कहानी के पात्रों को समय-समय पर अनायास ही जिन्दा करता रहता है। ऐसे में इन घटनाओं को कोई मुझ जैसा प्रेम गीत सृजित करने वाला शख्स आंसूओं में तैरती पुतलियों के सहारे कहानियों में तब्दील करता चला जाता है।
देश-दुनिया में असुलझी पहेली बनकर फैली हुई एक महामारी के कारण गावों, शहरों, गलियों और चौराहों पर जहां-तहाँ लॉकडाउन लगा पड़ा था। एक ऐसी महामारी जो लोगों को अनचाहें मौत की तरफ़ धकेल रही थी। एक तरफ अमीर वर्ग इस लाईलाज बीमारी से डरा हुआ था तो दूसरी तरफ मजदूर और मेहनतकशों की आजीविका पर लॉकडाउन ने ताला लगा रखा था। भोजन, पोषण और स्वास्थ्य के अभाव में जहां-तहाँ काल लोगों के सर पर ताण्डव कर रहा था। जिससे बचने के लिए भूखे मेहनतकश अपना पेट दोनों हाथ से दबाये हुए कहीं झोपड़ियों तो कहीं बंद कारखानों में दुबके पड़े हुए थे। घर वापसी के दौरान कहीं लोग सडकों पर गाड़ियों के निचे तो कहीं रेल पटरियों पर ट्रैन के निचे कुचले जा रहे थे। ऐसा ही एक आदिवासी परिवार शहर से दूर एक जंगल में झोपड़ी बनाकर रहता था। जिसकी आजीविका पेड़ की सुखी टहनियों को बेच कर चलती थी। परिवार में बुड्ढे दम्पत्ति ( फिरतु माझी और बासमती माझी) अपनी 9 वर्ष की पोती चिरैया के साथ रहते थे। जिनके बेटे और बहू को कुछ साल पूर्व मोब्लिंचिंग में लोगों की भीड़ ने लाठी-डंडों से पीट-पीट कर मार दिया। यह उन दिनों की बात है जब बेटे और बहू शहर लकड़ी बेचने जाया करते थे। एक दिन पूरा दिन बीत गया, देर रात तक कोई खरीददार नहीं मिला। अतः शहर के एक छोटे से पार्क के कोने में लकड़ी के गट्ठल को रखकर बिना खाये हैंडपम्प का पानी पीकर सो गये। आधी रात को पास कॉलोनी के लोग लाठी-डण्डा लेकर चोर की तलाश में पार्क में पहुँचे और बिना सोचे समझे, उक्त नौजवान दम्पत्ति को लाठी-डण्डों से पीट-पीट कर अधमरा कर दिया। फिर उसी लकड़ी के गट्ठल पर लिटाकर जिंदा जला दिया। इससे पहले की पुलिस आती सब जलकर राख हो चुका था। पुलिस के हाथों कुछ नहीं लगा। ऊधर जंगल में बुड्ढे दम्पत्ति अपनी पोती के साथ जैसे-तैसे दिन काटने लगे। वे इस इंतज़ार में जीने लगे कि उनके बुढ़ापे का सहारा एक दिन जरूर वापस आयेंगें। बेटे-बहू तो नहीं आये किन्तु उनके पास महामारी का कहर जरूर पहुँच गया। जो अपने साथ उनके लिए भूख और अटूट मुसीबतें लेकर आया। तीन दिन हो गए थे। फिरतु और बासमती के गले के नीचे अन्न का दाना गए हुए। झोपड़ी में जो कुछ भी था वे उसे जान से प्यारी अपनी नन्हीं से पोती चिरैया को खिला दिए। भूख के कारण दोनों बुड्ढे दम्पत्ति की हालत बिगड़ती जा रही थी। झोपड़ी में तो खाने को एक दाना भी नहीं, फिर भला दवा कहाँ से आये? ऊपर से वहां से शहर की दुरी बहुत ज्यादा थी। 9 बर्ष की बच्ची को अपने दादी-दादा का यह हाल नहीं देखा गया। एक दिन वह जंगल से कुछ सुखी टहनियों का एक छोटा सा गट्ठल बनाकर उसे बेचने के लिए तपती दोपहरी में निकल पड़ी। 5 घँटे के सफर के बाद गिरते-लड़खड़ाते किसी तरह वह शहर पहुँची। किन्तु शहर के चौराहे पर पुलिस वालों ने महामारी के चलते उसे घर वापस जाने को कहा। इससे पहले की वह कुछ बोल पाती थकान से मूर्च्छित होकर वही गिर गयी। पुलिस वालों ने उसे पानी पिलाया और कुछ पानी की छींटें उसके चेहरे पर मारी तो उसे होश आया। होश आने पर अपनी समस्या के बारे में पुलिस वालों को अवगत कराकर फिर बेहोश हो गयी। लुँह से उस बच्ची का बुरा हाल हो गया था। वहां तैनात पुलिस वाले बहुत ही नेक इंसान थे। उन्होंने चिरैया को डॉक्टर को दिखाए। शाम ढल चुकी थी और रात दस्तक देने वाली थी। चिरैया को होश आया तो वह पहले से बेहतर महसूस कर रही थी। पुलिस वालों ने चिरैया के दादा-दादी के लिए दवा खरीदने के साथ ही चिरैया को कुछ पैसे और राशन भी दिए। उन्होंने ने कहा, “बेटा पास के मंदिर में आराम कर लो, सुबह उठकर घर चले जाना”। चिरैया मंदिर के बरामदे के कोने में जाकर सो गयी। आधी रात को उस मासूम चिरैया को अकेला पा कर मंदिर के पुजारी और उसके दो मुस्टंडों ने बर्बरतापूर्वक बलात्कार कर पत्थरों से उसके चेहरें को कुर्रतापूर्वक कूचे। वे उसके लहुँलुहान शरीर को एक बड़े पत्थर से बाँधकर मंदिर के तालाब के तलहटी में दबा दिए। सुबह-सुबह वही पुलिस वाले गश्त पर निकले तो मंदिर पहुँचे और बाबा से चिरैया की खबर पूछी। उस बहरूपिये बाबा ने उनसे कहा कि बेटा वह तो सुबह जल्दी उठकर अपने घर चली गयी। पुलिस वाले यह सोचकर खुश हुए कि चिरैया अपने घर पहुँच गयी होगी। इस घटना को बीते तीन महीने हो चुके थे। पुलिस वालों ने सोचा, एक बार चिरैया से मिल आते हैं। अतः वे चिरैया द्वारा बताए पते पर जंगल की तरफ निकल पड़े। जंगल में जाकर उन्होंने देखा कि एक टूटी-फूटी झोपड़ी के अंदर एक बुड्ढे दम्पत्ति के कंकाल पड़े हुए थे। किंतु चिरैया का कुछ पता नहीं था, कोई खबर नहीं थी। आज भी चिरैया की खोज जारी है। यदि आपके आस-पास ऐसी कोई चिरैया हो तो हमे जरूर बताइएगा….मैं आज भी इंतजार में हूँ। चिरैया फिर खुले आसमान में एक दिन निडरता के साथ उड़ेगी…इसी उम्मीद के साथ…😢😢😢🙏🙏🙏अनिल कुमार ‘अलीन’

RELATED ARTICLES
- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments