Sunday, December 22, 2024
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लखन ऊ के इमामबाड़े से

लखनऊ के इमामबाड़े —

अवध को भारतीय संस्कृति और राजनीति का केंद्र माना जाता है और यह प्रदेश यदि भारत का दिल है तो इसकी राजधानी , लखनऊ , उसकी धडकन | इस नगर की स्थापना का श्री राम के अनुज , लक्ष्मण को दिया जाता है | परम्परा और उत्खनन के आधार पर इसकी प्राचीनता पीछे ले जायेगी | छठी शताब्दी ईसा पूर्व में यह कोशल महाजनपद का एक भाग था | विभिन्न कालो में इस पर मित्र राजाओ , गुप्तो , मौखरियो , गुजर्र – प्रतिहारो गाहडवालो आदि ने शासन किया | भरो और पासियो ने भी कुछ समय के लिए अपना आधिपत्य जमाया | तेरहवी शताब्दी के आरम्भिक वर्षो में यहाँ पर कश्मडी कलाँ के शेखो , जुग्गौर के किदवई शेखो आदि ने अपनी बस्तिया बसाई | बाद में बिजनौर के शेखजादों, तथा रामनगर के पठानों ने भी यहाँ अपनी कुछ बस्तिया स्थापित की | दिल्ली के सुल्तानों और मुगल राजाओ ने भी शासन किया |

अवध मुग़ल साम्राज्य का एक सूबा था जहां गवर्नर ( उप – शासक ) नियुक्त किया जाता था | मुग़ल सम्राट मोहम्मद शाह ने 1722 ई. में सआदत खा बुरहान – उल – मुल्क को अवध का नवाब नियुक्त किया , जो शिया थे और जिनका पूरा परिवार मुल्त: ईरानी था | उसने अपना मुख्यालय सरयू नदी के किनारे अयोध्या के पास बनाया जिसे आगे चलकर फैजाबाद का नाम दिया गया |

उस समय तक मुगलों का पतन आरम्भ हो गया जिसका लाभ उठाकर सआदत खा और उनके उत्तराधिकारी अवध के वंशानुगत नवाब या गवर्नर बन गये और स्वतंत्र शासक की तरह राज्य करने लगे |

उसकी चौथी पीढ़ी में नवाब आसिफ –उद-दौला ने 1775 ई. में अवध की राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित कर दी | इस घटना के इतिहास का स्वर्ण युग आरम्भ हुआ | आसिफ – उद-दौला और उसके उत्तराधिकारियों ने वास्तु कला में बहुत रूचि ली | इसके कारण लखनऊ में विविध स्र्च्नाओ का निर्माण हुआ | 1856 ई में अंग्रेज ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अंतिम शासक , नवाब वाजिद अली शाह , को गद्दी से हटाकर अवध का शासन अपने हाथ में ले लिया | इस प्रकार शिया नवाबो ने लखनऊ पर कुल 81 वर्ष शासन किया परन्तु वे इस नगर को एक ऐसी संस्कृति और वास्तुकला दे गये जिसकी अलग पहचान है और जिसकी चर्चा आज तक होती आ रही है |
लखनऊ के नवाबो के समय में हिन्दू और मुसलमान सस्कृतियो के संयोग ने एक विलक्ष्ण और मोहक गंगा – जमुनी तहजीब को जन्म दिया जिसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण लखनवी मोहर्रम है | इसमें केवल इस्लामी अनुष्ठानो को ही नही संपादित किया जाता है अपितु कुछ सीमा तक इसमें भारतीय लक्ष्ण भी देखे जा सकते है जिसके परिणाम स्वरूप यह एक मुस्लिम त्यौहार न रहकर हिन्दुओ का भी पर्व बन गया | एक विद्वान् के अनुसार ‘’ आज भी लखनऊ के हिन्दू जाऊ के दाने उगाकर अपना हरा ताजिया अलग उठाते है ‘’ |

लखनऊ के इमामबाड़ो की चर्चा करने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि इस स्र्चना का मुसलमानों के शिया समुदाय से विशेष सम्बन्ध है | लखनऊ के नवाब शिया थे अत: वे अपने समुदाय से जुड़े पर्व विशेष रूचि के साथ मनाते थे | उदाहरण के लिए जहां इस्लामी जगत में मोहर्रम का मातम मात्र दस दिन मनाया जाता है वही लखनऊ में यह पहली मोहर्रम से आठवी ‘’रबी – उल – अव्वल ‘’ के चुप ताजिये के उठने तक पूरे सवा दो महीने मनाया जाता है |

लखनऊ के इमामबाड़े —–

लखनऊ में दिल्ली के सुल्तानों , मुगलों और बिजनौर के शेखजादों द्वारा बनवाई गयी इमारतो के विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नही है | नवाबो से पहले काल की केवल दो ही महत्वपूर्ण इमारते उपलब्ध है | इनमे से एक अकबरी गेट है जिसे अवध के नायब सूबेदार कासिम महमूद ने बनवाया था | दूसरी इमारत औरंगजेब मस्जिद है जिसे मुग़ल सम्राट औरंगजेब ने अयोध्या से वापस लौटते समय लखनऊ आने पर बनवाया था |

नवाबी काल की वास्तु कला —

नवाबी दौर में बनी इमारतों को दो चरणों में विभाजित किया गया है |प्रथम चरण में मुग़ल वास्तुकला का अधिक प्रभाव रहा जबकि द्दितीय चरण में यूरोपियन प्रभाव दिखने लगता है | इस काल की इमारते लौकिक भी है धार्मिक भी | लौकिक इमारतो में महलो के समूह सम्मिलित है , जैसे बावलियो अर्थात बृहदाकार कुओ और अनेक बारादरियो का भी निर्माण हुआ | धार्मिक इमारतो के अंतर्गत मस्जिद इत्माद – उल – दौला , मस्जिद बी मिसरी , मस्जिद टिकैतराय , हजरतगंज की शाही मस्जिद जैसी भव्य मस्जिदे और इमामबाड़े तथा इमामबाड़े समूह से आते है |

लखनऊ में इमामबाड़े –

लखनऊ अट्ठारहवी और उन्नीसवी शताब्दी में शिया नवाबो द्वारा आजादारी अर्थात मोहर्रम के मातम से सम्बन्धित अनुष्ठानो के लिए बनवाये गये अनेक इमामबाड़ो के लिए प्रसिद्द है | इमामबाड़ा एक आयताकार भवन होता है जिसमे मेह्राब्युकत पांच , सात अथवा नौ दरवाजे होते है | मुग़ल नश के शासक अपने मस्जिद समूह इस प्रकार बनवाते थे की उसकी अक्ष मक्का की ओर हो | किन्तु अवध के नवाबो ने इमामबाड़ा समूह का निर्माण इस प्रकार कराया की उनमे इमामबाड़ा मुख्य भवन था और उससे सम्बद्ध मस्जिद उसके पश्चिम की और थी | प्रिनाम्स्व्रूप इन इमारतो में एक विचित्र प्रकार का दिशा सम्बन्धी भ्रम दिखाई देता है | इमामबाड़े सदैव दक्षिण की और मुंह किये बनाये गये | लखनऊ में केवल सौदागर का इमामबाड़ा और काला इमामबाड़ा सीके अपवाद है , जिनके मुंह पूर्व इमामबाड़े का अन्दुरुनी हिस्सा तीन भागो में विभाजित होता है – केन्द्रीय कक्ष मजलिसी और शान्स्हीं | इनमे शाह्न्स्हीं इमामबाड़े का सबसे महत्वपूर्ण भाग होता है | यह मुख्य कक्ष के दक्षिण की और उठाकर बनाया गया चबूतरा है जिस पर मोहर्रम के महीने में जरिह , ताजिये और आलम स्थापित किये जाते है |

आभार हमारा लखनऊ पुस्तक माला से — क्रमश: प्रस्तुति -सुनील कुमार दत्ता स्वतंत्र पत्रकार एवं दस्तावेजी प्रेस छायाकार

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