Monday, December 23, 2024
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धनाढ्यों की उलटबांसी

धनाढ्यो की उलटबासी

कबीर की उलटबासिया जनमानस में प्रचलित रही है और लोकोत्तियो का हिस्सा रही है | लोग अपने अपने हिसाब से उसका गूढ़ अर्थ निकालते व समझते है | लेकिन विडम्बना यह है कि आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी ऐसी उलटबासिया का दौर बढ़ता जा रहा है | उस उलटबासी के रूप में नही बल्कि सच के रूप में प्रचारित किये जाने का काम किया जा रहा है | विडम्बना यह भी है कि यह उलटबासी कहने वाले लोग कागज कलम को हाथ तक न लगाने वाले कबीर की तरह अनपढ़ नही है बल्कि आधुनिक युग की उच्च शिक्षा से लैस है | इनमे उच्च शिक्षित राजनीतिग्य , समाजशास्त्रियो अर्थशास्त्रियो प्रचार माध्यमि विद्वानों की पूरी जमात शामिल है| यहाँ उच्चस्तरीय हिस्सों द्वारा कृषि क्षेत्र से सम्बन्धित एक बहुप्रचारित उलटबासी आपको सुना रहे है | पिछले दस सालो से कृषि क्षेत्र को दी जाती रही सब्सिडी को न केवल अर्थव्यवस्था पर बोझ बताया जा रहा है , बल्कि कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक या सरकारी निवेश के घटने का सबसे बड़ा कारण भी बताया जा रहा है | पिछले 10 – 15 सालो से कृषि क्षेत्र में सब्सिडी की बढ़ती रकम के साथ इस क्षेत्र में घटते सरकारी निवेश को इसके साक्ष्य के रूप में पेश किया जाता रहा है | उदाहरण रासायनिक खादों तथा कृषि क्षेत्र की बिजली – सिंचाई आदि पर दी जाती रही सब्सिडी की रकम इस समय लगभग 1 लाख करोड़ पहुच चुकी है | इसके अलावा खाध्य सुरक्षा योजना के तहत सस्ते दर पर खाद्यान्न सप्लाई करने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी की रकम भी 1 लाख करोड़ से उपर है | इन दोनों को मिलाकर कृषि क्षेत्र को 2 लाख करोड़ से अधिक सब्सिडी दिए जाने का प्रचार किया जाता रहा है , हालाकि खाद्यान्न सुरक्षा के मद में दी जाने वाली 1 लाख करोड़ से अधिक की सब्सिडी दरअसल कृषि क्षेत्र को मिलने वाली सब्सिडी कदापि नही है | उसका लाभ न तो किसानो को कृषि उअत्पादन में मिलता है और न ही कृषि उत्पादों के बिक्री बाजार में |
इसीलिए इसे कृषि सब्सिडी में शामिल करके कृषि क्षेत्र को भारी सब्सिडी वाला क्षेत्र बताने के कुप्रचार के साथ साथ यह कृषि सब्सिडी की वास्तविकता को छिपाने वाला हथकंडा भी बन गया है |
अब जहा तक कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली सार्वजनिक व सरकारी सहायता का मामला है तो उसकी मात्रा में बहुत कुछ वृद्दि तो होती रही है , लेकिन यह सहायता निजी क्षेत्र की यानी किसानो की निजी हिस्सेदारी के मुकाबले घटती रही है | उदाहरण 1990 – 91 में कृषि क्षेत्र में सरकारी व निजी क्षेत्र का कुल निवेश 14 हजार 83 करोड़ था जिसमे सरकारी निवेश का हिस्सा 4 हजार 395 करोड़ या कुल निवेश के एक तिहाई से कुछ कम था बाद के सालो में किसानो द्वारा किये जाने वाले निवेश का हिस्सा लगातार बढ़ता और सरकारी और सार्वजनिक निवेश का हिस्सा लगातार घटता रहा | 2012– 13 में 1 लाख 62 हजार करोड़ के कुल निवेश में सरकारी निवेश लगभग 24 हजार करोड़ का हिस्सा घाट कर कुल निवेश के छठे हिस्से तक पहुच गया | फिर यह सरकारी निवेश रूपये के बढ़ते अवमूल्यन और आधुनिक कृषि विकास की जरूरतों को देखते हुए ज्यादा घटता रहा | कई बार तो पिछले सालो की तुलना में इसके कुल आवटन में ही कमी कर दी गयी | उदाहरण 2007 – 8 में सरकारी निवेश की 23 हजार 257 करोड़ की कुल रकम को 2008 – 9 में घटाकर 20 हजार 572 करोड़ कर दिया गया | उसी तरह 2009 – 10 में 22 हजार 693 करोड़ के निवेश को 2010 – 2011 में घटाकर 19 हजार 854 करोड़ कर दिया गया |
कुल मिलाकर देखे तो 90 के दशक से पहले कृषि क्षेत्र में कुल निवेश में सरकारी निवेश के 30 प्रतिशत से अधिक का हिस्सा , 1990 के दशक में और फिर सन 2000 से लेकर अब तक लगातार घटता हुआ 15 प्रतिशत तक पहुच गया है | कृषि में निवेश की जिम्मेदारी किसानो पर खासकर धन पूंजीहीन किसानो पर ही डालते जाने का काम निरंतर बढाया जा रहा है |
ऐसी स्थिति में यह कहना कि सरकारों द्वारा पिछले 15 – 20 सालो से कृषि सब्सिडी बढाने की नीतियों एवं कार्यवाही के चलते ही सरकारी निवेश कम किया जाता रहा है , झूठ के अलावा कुछ नही है | यह आधुनिक युग की एक उलटबासी ही है | जिसे एक सच का जमा पहनकर प्रचारित किया जाता रहा है |यह प्रचारित उलटबासी इसीलिए भी है की 1990 के दशक से पहले खासकर 1965 – 66 से लेकर 1986 तक कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश को बढ़ावा देते हुए खाद , बीज , सिंचाई , बिजली में सब्सिडी देने का कम होता रहा है | पर 1991 में उदारीकरणवादी , वैश्वीकरणवादी व निजीकरणवादी नीतियों को लागू किये जाने के बाद से ही सर्वाधिक साधन सम्पन्न उद्योग वाणिज्य – व्यापार के बड़े मालिको के लिए अधिकाधिक छुट दिए के साथ देश के व्यापक अशक्त एवं साधनहीन किसानो को अपने बूते खेती करने के छोड़ा जाता रहा है |
फिर जहा तक कृषि में सब्सिडी बढाये जाने की बात है तो यह प्रचार भी सच नही बल्कि कोरा झूठ है | उसका सबसे बड़ा सबूत तो यह है की 1990 से पहले किसानो को खाद , बिजली , बीज , सिचाई को सरकारों द्वारा नियंत्रित मुले से कम मुले पर दिया जाता था | लेकिन 1990 के बाद से इस मूल्य नियंत्रण को घटते हुए कृषि लागत के साधनों सामानों को उसके बाजार मूल्य के हवाले कर दिया गया है | 90 के दशक से खासकर 1995 -96 से बीजो खादों के तेजी से बढ़ते मूल्य इसी प्रक्रिया के परिलक्षण है | सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार दस्तावेजी प्रेस छायाकार

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