तप से शक्ति
रामकृष्ण के पास एक आदमी आया। रामकृष्ण से कहा कि तुमको लोग परमहंस कहते हैं, अगर असली परमहंस हो तो आओ मेरे साथ, गंगा पर चल कर दिखाओ!
रामकृष्ण ने कहा कि नहीं भाई, मैं पानी पर नहीं चल सकता। अगर परमात्मा ने मुझे पानी पर चलने के लिए बनाया होता, तो मछलियों जैसा बनाया होता। उसने जमीन पर चलने के लिए बनाया। उसके इरादे के विपरीत मैं नहीं जा सकता। मगर मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूं कि कितना समय लगा तुम्हें पानी पर चलने की यह कला सीखने में?
उसने कहा, अठारह साल तपश्चर्या की है! कठिन तपश्चर्या की है! खड्ग की धार पर चला हूं। तब कहीं यह शक्ति हाथ लगी है, यह कोई यूं ही हाथ नहीं लग जाती।
रामकृष्ण कहने लगे, अठारह साल तुमने व्यर्थ गंवाए। मुझे तो जब भी गंगा के उस तरफ जाना होता है तो दो पैसे में मांझी मुझे पार करवा देता है। तो अठारह साल में तुमने जो कमाया उसकी कीमत दो पैसे से ज्यादा नहीं है।
शक्ति की जरूरत क्या है? शक्ति की आकांक्षा मूलतः अहंकार की आकांक्षा है। क्या करोगे शक्ति का? लेकिन तप करने वाले लोग इसी आशा में कर रहे हैं तप। सिर के बल खड़े हैं, चारों तरफ आग जला रखी है, नंगे खड़े हैं, भूखे खड़े हैं–इसी आशा में कि किसी तरह शक्ति को पा लेंगे। मगर शक्ति किसलिए? शक्ति तो पोषण है अहंकार का। कोई धन पाने में लगा है, वह भी शक्ति की खोज कर रहा है। और कोई राजनीति में उतरा हुआ है, वह भी पद की खोज कर रहा है, पद शक्ति लाता है। और कोई तपश्चर्या कर रहा है, मगर इरादे वही। इरादों में कोई भेद नहीं।
तुम्हारे धार्मिक, अधार्मिक लोग बिलकुल एक ही तरह के हैं। चाहे दिल्ली चलो, यह उनका नारा हो; और चाहे गोलोक चलो; मगर दोनों की खोपड़ी में एक ही गोबर भरा है–शक्ति चाहिए। क्यों? क्या करोगे शक्ति का? चमत्कार दिखलाने हैं! लेखक- रमेश पांण्डेय