Saturday, July 27, 2024
होमइतिहास1857 का महान योद्घा वीर कुँवर सिंह

1857 का महान योद्घा वीर कुँवर सिंह

1857 का महान योद्धा वीर कुंवर सिंह

1777 —-1858
अंग्रेज इतिहासकार होम्स लिखता है की उस बूढ़े राजपूत की जो ब्रिटिश सत्ता के साथ इतनी बहादुरी व आन के साथ लड़ा 26 अप्रैल 1858 को एक विजेता के रूप में मृत्यु का वरण किया |

कुंवर सिंह न केवल 1857 के महासमर के महान योद्धा थे , बल्कि वह इस संग्राम के एक वयोवृद्ध योद्धा भी थे |इस महासमर में तलवार उठाने वाले इस योद्धा की उम्र उस समय 80 वर्ष की थी |महासमर का यह वीर न केवल युद्ध के मैदान का चपल निर्भीक और जाबांज खिलाड़ी था , अपितु युद्ध की व्यूह — रचना में भी उस समय के दक्ष , प्रशिक्षित एवं बेहतर हथियारों से सुसज्जित ब्रिटिश सेना के अधिकारियों , कमांडरो से कही ज्यादा श्रेष्ठ था |इसका सबसे बड़ा सबूत यह है की इस महान योद्धा ने न केवल कई जाने — माने अंग्रेज कमांडरो को युद्ध के मैदान में पराजित किया अपितु जीवन के अंतिम समय में विजित रहकर अपने गाँव की माटि में ही प्राण त्याग किया | उनकी मृत्यु 26 अप्रैल 1858 को हुई , जबकि उसके तीन दिन पहले 23 अप्रैल को जगदीशपुर के निकट उन्होंने कैप्टन ली ग्राड की सेना को युद्ध के मैदान में भारी शिकस्त दिया था | कुंवर सिंह का जन्म आरा के निकट जगदीशपुर रियासत में 1777 में हुआ था | मुग़ल सम्राट शाहजहा के काल से उस रियासत के मालिक को राजा की उपाधि मिली हुई थी | कुंवर सिंह के पिता का नाम साहेबजादा सिंह और माँ का नाम पंचरतन कुवरी था | कुंवर सिंह की यह रियासत भी डलहौजी की हडपनीति का शिकार बन गयी थी |
10 मई 1857 से इस महासमर की शुरुआत के थोड़े दिन बाद ही दिल्ली पर अंग्रेजो ने पुन: अपना अधिकार जमा लिया था | अंग्रेजो द्वारा दिल्ली पर पुन:अधिकार कर लेने के बाद बाद भी 1857 के महासमर की ज्वाला अवध और बिहार क्षेत्र में फैलती धधकती रही | दाना पूर की क्रांतिकारी सेना के जगदीशपुर पहुंचते ही 80 वर्षीय स्वतंत्रता प्रेमी योद्धा कुंवर सिंह ने शस्त्र उठाकर इस सेना का स्वागत किया और उसका नेतृत्त्व संभाल लिया | कुंवर सिंह के नेतृत्त्व में इस सेना ने सबसे पहले आरा पर धावा बोल दिया |क्रांतिकारी सेना ने आरा के अंग्रेजी खजाने पर कब्जा कर लिया | जेलखाने के कैदियों को रिहाकर दिया | अंग्रेजी दफ्तरों को ढाहकर आरा के छोटे से किले को घेर लिया |किले के अन्दर सिक्ख और अंग्रेज सिपाही थे | तीन दिन किले की घेरेबंदी के साथ दाना पूर से किले की रक्षा के लिए आ रहे कैप्टन डनवर और उनके 400 सिपाहियों से भी लोहा लिया | डनवर युद्ध में मारा गया | थोड़े बचे सिपाही दानापुर वापस भाग गये | किला और आरा नगर पर कुंवर सिंह कीं क्रांतिकारी सेना का कब्जा हो गया | लेकिन यह कब्जा लम्बे दिनों तक नही रह सका | मेजर आयर एक बड़ी सेना लेकर आरा पर चढ़ आया | युद्ध में कुंवर सिंह और उसकी छोटी से\इ सेना पराजित हो गयी | आरा के किले पर अंग्रेजो का पुन: अधिकार हो गया |
कुंवर सिंह अपने सैनिको सहित जगदीशपुर की तरफ लौटे | मेजर आयर ने उनका पीछा किया और उसने जगदीशपुर में युद्ध के बाद वहा के किले पर भी अधिकार कर लिया | कुंवर सिंह को अपने 122 सैनिको और बच्चो स्त्रियों के साथ जगदीशपुर छोड़ना पडा | अंग्रेजी सेना से कुंवर सिंह की अगली भिडंत आजमगढ़ के अतरौलिया क्षेत्र में हुई | अंग्रेजी कमांडर मिल मैन ने 22 मार्च 1858 को कुंवर सिंह की फ़ौज पर हमला बोल दिया | हमला होते ही कुंवर सिंह की सेना पीछे हटने लगी अंग्रेजी सेना कुंवर सिंह को खदेड़कर एक बगीचे में टिक गयी | फिर जिस समय मिल मैन की सेना भोजन करने में जुटी थी , उसी समय कुंवर सिंह की सेना अचानक उन पर टूट पड़ी | मैदान थोड़ी ही देर में कुंवर सिंह के हाथ आ गया |मेल मैन अपने बचे खुचे सैनिको को लेकर आजमगढ़ की ओर निकल भागा | अतरौलिया में पराजय का समाचार पाते ही कर्नल डेम्स गाजीपुर से सेना लेकर मिल मैन की सहायता के लिए चल निकला |28 मार्च 1858 को आजमगढ़ से कुछ दूर कर्नल डेम्स और कुंवर सिंह में युद्ध हुआ | कुंवर सिंह पुन: विजयी रहे | कर्नल डेम्स ने भागकर आजमगढ़ के किले में जान बचाई |
अब कुंवर सिंह बनारस की तरफ बड़े | तब तक लखनऊ क्षेत्र के तमाम विद्रोही सैनिक भी कुंवर सिंह के साथ हो लिए थे |बनारस से ठीक उत्तर में 6 अप्रैल के दिन लार्ड मार्क्कर की सेना ने कुंवर सिंह का रास्ता रोका और उन पर हमला कर दिया | युद्ध में लार्ड मार्क्कर पराजित होकर आजमगढ़ की ओर भागा | कुंवर सिंह ने उसका पीछा किया और किले में पनाह के लिए मार्क्कर की घेरे बंदी कर दी |
इसकी सुचना मिलते ही पश्चिम से कमांडर लेगर्ड की बड़ी सेना आजमगढ़ के किले की तरफ बड़ी | कुंवर सिंह ने आजमगढ़ छोडकर गाजीपुर जाने और फिर अपने पैतृक रियासत जगदीशपुर पहुचने का निर्णय किया | साथ ही लेगर्ड की सेना को रोकने और उलझाए रखने के लिए उन्होंने अपनी एक टुकड़ी तानु नदी के पुल पर उसका मुकाबला करने के लिए भेज दिया | लेगर्ड की सेना ने मोर्चे पर बड़ी लड़ाई के बाद कुंवर सिंह का पीछा किया | कुंवर सिंह हाथ नही आये लेकिन लेगर्ड की सेना के गाफिल पड़ते ही कुंवर सिंह न जाने किधर से अचानक आ धमके और लेगर्ड पर हमला बोल दिया | लेगर्ड की सेना पराजित हो गयी |
अब गंगा नदी पार करने के लिए कुंवर सिंह आगे बड़े लेकिन उससे पहले नघई गाँव के निकट कुंवर सिंह को डगलस की सेना का सामना करना पडा | डगलस की सेना से लड़ते हुए कुंवर सिंह आगे बढ़ते रहे |अन्त में कुंवर सिंह की सेना गंगा के पार पहुचने में सफल रही | अंतिम किश्ती में कुंवर सिंह नदी पार कर रहे थे , उसी समय किनारे से अंग्रेजी सेना के सिपाही की गोली उनके दाहिने बांह में लगी | कुंवर सिंह ने बेजान पड़े हाथ को अपनी तलवार से काटकर अलग कर गंगा में प्रवाहित कर दिया | घाव पर कपड़ा लपेटकर कुंवर सिंह ने गंगा पार किया | अंग्रेजी सेना उनका पीछा न कर सकी | गंगा पार कर कुंवर सिंह की सेना ने 22 अप्रैल को जगदीशपुर और उसके किले पर पुन: अधिकार जमा लिया | 23 अप्रैल को ली ग्रांड की सेना आरा से जगदीशपुर की तरफ बड़ी ली ग्रांड की सेना तोपों व अन्य साजो सामानों से सुसज्जित और ताजा दम थी | जबकि कुंवर सिंह की सेना अस्त्र – शस्त्रों की भारी कमी के साथ लगातार की लड़ाई से थकी मादी थी | अभी कुंवर सिंह की सेना को लड़ते – भिड़ते रहकर जगदीशपुर पहुचे 24 घंटे भी नही हुआ था | इसके वावजूद आमने – सामने के युद्ध में ली ग्रांड की सेना पराजित हो गयी | चार्ल्स वाल की ‘इन्डियन म्युटनि ‘ में उस युद्ध में शामिल एक अंग्रेज अफसर का युद्ध का यह बयान दिया हुआ है की — वास्तव में जो कुछ हुआ उसे लिखते हुए मुझे अत्यंत ल्ल्जा आती है | लड़ाई का मैदान छोडकर हमने जंगल में भागना शुरू किया | शत्रु हमे पीछे से बराबर पीटता रहा | स्वंय ली ग्रांड को छाती में गोली लगी और वह मनारा गया | 199 गोरो में से केवल 80 सैनिक ही युद्ध के भयंकर संहार से ज़िंदा बच सके | हमारे साथ सिक्ख सैनिक हमसे आगे ही भाग गये थे .
22 अप्रैल की इस जीत के बाद जगदीशपुर में कुंवर सिंह का शासन पुन: स्थापित हो गया | किन्तु कुंवर सिंह के कटे हाथ का घाव का जहर तेजी से बढ़ रहा था इसके परिणाम स्वरूप 26 अप्रैल 1858 को इस महान वयोवृद्ध पराक्रमी विजेता का जीवन दीप बुझ गया | अंग्रेज इतिहासकार होम्स लिखता है की — उस बूढ़े राजपूत की जो ब्रिटिश — सत्ता के साथ इतनी बहादुरी व आन के साथ लड़ा 26अप्रैल 1858 को एक विजेता के रूप में मृत्यु हुई | एक अन्य इतिहासकार लिखता है की कुवरसिंह का व्यक्तिगत चरित्र भी अत्यंत पवित्र था , उसका जीवन परहेजगार था | प्रजा में उसका बेहद आदर – सम्मान था | युद्ध कौशल में वह अपने समय में अद्दितीय था
कुंवर सिंह द्वारा चलाया गया स्वतंत्रता – युद्ध खत्म नही हुआ | अब उनके छोटे भाई अमर सिंह ने युद्ध की कमान संभाल ली |
अमर सिंह
कुंवर सिंह के बाद उनका छोटा भाई अमर सिंह जगदीशपुर की गद्दी पर बैठा | अमर सिंह ने बड़े भाई के मरने के बाद चार दिन भी विश्राम नही किया | केवल जगदीशपुर की रियासत पर अपना अधिकार बनाये रखने से भी वह सन्तुष्ट न रहा | उसने तुरंत अपनी सेना को फिर से एकत्रित कर आरा पर चढाई की | ली ग्रांड की सेना की पराजय के बाद जनरल डगलस और जरनल लेगर्ड की सेनाये भी गंगा पार कर आरा की सहायता के लिए पहुच चुकी थी | 3 मई को राजा अमर सिंह की सेना के साथ डगलस का पहला संग्राम हुआ | उसके बाद बिहिया , हातमपुर , द्लिलपुर इत्यादि अनेको स्थानों पर दोनों सेनाओं में अनेक संग्राम हुए | अमर सिंह ठीक उसी तरह युद्ध नीति द्वारा अंग्रेजी सेना को बार – बार हराता और हानि पहुचाता रहा , जिस तरह की युद्ध नीति में कुंवर सिंह निपुण थे | निराश होकर 15 जून को जरनल लेगर्ड ने इस्तीफा दे दिया | लड़ाई का बहार अब जनरल डगलस पर पडा | डगलस के साथ सात हजार सेना थी |डगलस ने अमर सिंह को परास्त करने की कसम खाई | किन्तु जून , जुलाई , अगस्त और सितम्बर के महीने बीत गये अमर सिंह परास्त न हो सका | इस बीच विजयी अमर सिंह ने आरा में प्रवेश किया और जगदीशपुर की रियासत पर अपना आधिपत्य जमाए रखा | जरनल डगलस ने कई बार हार खाकर यह ऐलान कर दिया जो मनुष्य किसी तरह अमर सिंह को लाकर पेश करेगा उसे बहुत बड़ा इनाम दिया जाएगा , किन्तु इससे भी काम न चल सका | तब डगलस ने सात तरफ से विशाल सेनाओं को एक साथ आगे बढाकर जगदीशपुर पर हमला किया | 17 अक्तूबर को इन सेनाओं ने जगदीशपुर को चारो तरफ से घेर लिया | अमर सिंह ने देख लिया की इस विशाल सैन्य दल पर विजय प्राप्त कर सकना असम्भव है | वह तुरंत अपने थोड़े से सिपाहियों सहित मार्ग चीरता हुआ अंग्रेजी सेना के बीच से निकल गया | जगदीशपुर पर फिर कम्पनी का कब्जा हो गया , किन्तु अमर सिंह हाथ न आ सका कम्पनी की सेना ने अमर सिंह का पीछा किया | 19 अक्तूबर को नौनदी नामक गाँव में इस सेना ने अमर सिंह को घेर लिया .
अमर सिंह के साथ केवल 400 सिपाही थे |इन 400 में से 300 ने नौनदी के संग्राम में लादकर प्राण दे दिए | बाकी सौ ने कम्पनी की सेना को एक बार पीछे हटा दिया | इतने में और अधिक सेना अंग्रेजो की मदद के लिए पहुच गयी | अमर सिंह के सौ आदमियों ने अपनी जान हथेली पर रखकर युद्ध किया | अन्त में अमर सिंह और उसके दो और साथी मैदान से निकल गये | 97 वीर वही पर मरे | नौनदी के संग्राम में कम्पनी के तरफ से मरने वालो और घायलों की तादाद इससे कही अधिक थी |कम्पनी की सेना ने फिर अमर सिंह का पीछा किया | एक बार कुछ सवार अमर सिंह के हाथी तक पहुच गये | हाथी पकड लिया , किन्तु अमर सिंह कूद कर निकल गया | अमर सिंह ने अब कैमूर के पहाडो में प्रवेश किया | शत्रु ने वहा पर भी पीछा किया किन्तु अमर सिंह ने हार स्वीकार न की | इसके बाद राजा अमर सिंह का कोई पता नही चलता | जगदीशपुर की महल की स्त्रियों ने भी शत्रु के हाथ में पढ़ना गवारा न किया | लिखा है की जी समय महल की 150 स्त्रियों ने देख लिया की अब शत्रु के हाथो में पड़ने के सिवाय कोई चारा नही तो वे तोपों के मुँह के सामने खड़ी हो गयी और स्वंय अपने हाथसे फलिता लगाकर उन सबने ऐहिक जीवन का अन्त कर दिया .
-सुनील दत्ता
पत्रकार
आभार इंटरनेट तथा भारत ब्रिटिश राज —- सुन्दरलाल की पुस्तको के आधार पर प्रस्तुत

RELATED ARTICLES
- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments