स्वाधीनता संग्राम में मुस्लिम भागीदारी – भाग सात
अंग्रेजो ने राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन को कमजोर करने के लिए फूट डालने का खेल खेला –
प्रथम स्वाधीनता संग्राम के तुरंत बाद भारतीय मामलो के तत्कालीन मंत्री लार्ड वुड ने लन्दन में बैठकर भारत में अंग्रेजी शासन के प्रमुख लार्ड एलगिन को लिखे पत्र में स्वीकार किया — ” हमने एक पक्ष को दूसरे पक्ष के खिलाफ खडा करके भारत में अपनी सत्ता को बनाये रखा है और हमे ऐसा करते रहना चाहिए | लिहाजा , हमे सभी लोगो में मौजूद साझे अहसास को रोकने के लिए वह हर काम करना चाहिए , जिसे हम कर सकते है “| इस रणनीति को प्रभावी रूप से अमल में लाने के लिए औपनिवेशिक शासक और उनके भारतीय पिठ्ठूओ ने यह बताते हुए दो राष्ट्रों का सिद्धांत दिया कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग – अलग राष्ट्रों से सम्बन्ध रखते है , क्योंकि उनका अलग – अलग धर्मो से ताल्लुक है | ”बाटो और राज करो” की अपनी नीति को आगे बढाते हुए उन्होंने साम्प्रदायिक और अलगाववादी रुझानो को बढ़ावा दिया , जिससे की विभिन्न धर्मो के लोगो को एक दूसरे के साथ भिड़ाया जा सके | उन्होंने प्रांतवाद को बढ़ावा दिया , जातीय ढाँचे का दोहन किया और इसके अलावा उर्दू के उपर हिंदी के आधिपत्य के मुद्दे को उठाया | इससे हिन्दुओ और मुस्लिमो के बीच साम्प्रदायिक कटुता और मनमुटाव की शुरुआत हुई | उन्होंने ऐसे इतिहासकारों को तरजीह दी , जिन्होंने भारतीय इतिहास को इस रूप में प्रस्तुत किया जिससे साम्प्रदायिक भावनाओं को बढ़ावा मिले | इलियट , डासन, मैलकाम, ब्रिग्स और एलफिस्टन जैसे ब्रिटिश इतिहासकारों और नौकरशाहों को इस काम पर लगाया गया और उन्हें इतिहास की ऐसी पुस्तके लिखने के लिए निर्देशित किया गया जो अंग्रेजो के पक्ष में जनमानस तैयार कर सके और यह बताये कि उनका शासन ‘अत्याचारी मुस्लिम शासन ” के मुकाबले बहुत अच्छा था | उदाहरण के तौर पर जेम्स मिल कि “‘ हिस्ट्री आफ ब्रिटिश इंडिया ” जिसे तीन भागो — हिन्दू सभ्यता , मुस्लिम सभ्यता और ब्रिटिश काल — में बात गया है को सरक्षण प्रदान किया गया मिल ने तर्क पेश किया कि हिन्दू सभ्यता गतिहीन और पिछड़ी थी , मुस्लिम मामूली रूप से बेहतर थे और ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता प्रगति की चालक शक्ति थी यह भारत में सुधार के लिए परिवर्तन को कार्यान्वित कर सकती थी | ठीक इसी समय विलियम हन्टर जैसे अधिकारियो ने ”इन्डियन मुस्लिम्स ” लिखी जिसमे मुस्लिमो को पृथक राष्ट्रीयता के रूप में वर्गीकृत किया गया , और उनके विकास के लिए उठाये जानेवाले कदमो को विस्तार से स्पष्ट किया गया | इन किताबो ने मुस्लिमो और मुस्लिम शासको के बारे में गलतफहमी पैदा करने और गलत धारणाये फैलाने के लिए विभाजनकारी भूमिका अदा की | इसी प्रकार वे भारतीय इतिहास – लेखन को इस कदर प्रभावित करने में सफल रहे , जिसके चलते डा यदुनाथ सरकार को नाईट की उपाधि दी गयी | उसने चार जिल्दो के अध्ययन ”मुग़ल साम्राज्य का पतन ” में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ध्येय की भलीभांति सेवा की | इतिहास के रुढ़िवादी सम्प्रदाय की अलगाववादी सोच पर प्रकाश डालते हुए आर सी मजुमदार लिखते है — ” इन इतिहासकारों को इस बात का एहसास न था कि प्राचीन और मध्ययुग के दौरान भारत की राजनीति किसी अन्य जगह की राजनीति जैसी ही थी तथा शासको के आर्थिक और राजनीतिक हितो की पूर्ति करने का काम करती थी .. विशिष्ठ और पृथक हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियो की झूठी अवधारणा प्रस्तुत करके इतिहास के प्रति साम्प्रदायिक सोच ने विभाजनकारी रुझानो को जन्म दिया | धार्मिक सुधार आंदोलनों ने भी ऐसा असर डाला .. कुछ नेताओं ने हिन्दू राष्ट्रवाद के बारे में , विदेशियों ” के रूप में मुस्लिमो के बारे में , हिन्दू हित की रक्षा करने के बारे में बात करना शरू कर दिया .. इस प्रकार से हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने एक दूसरे पर असर डाला और एक दूसरे को सहारा दिया ”| इस साम्प्रदायिक सिद्धांत ने आगे उस समय और भी ठोस रूप ग्रहण कर लिया जब 1906 में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना हुई | दूसरी तरफ , अंग्रेजो ने मौजूदा भारतीय जनता पार्टी ,आर एस एस बजरंग दल व अन्य के पुरखे ”हिन्दू महा सभा ” जैसे अतिवादियो की मदद की | इस सब ने लोगो की दो पृथक भावनाओं को जन्म दिया | इसके बाद इसने प्रांतीयता फैलाने के लिए भी अधिक समय नही लिया | इस प्रकार अंग्रेजो ने भारतीयों को दो हिस्सों हिन्दुओ – एवं मुस्लिमो में बाट दिया | वी.डी महाजन कहते है ”भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान ही हिन्दू – मुस्लिम दंगे हुए और वह भी उन इलाको में जहाँ पर राष्ट्रवादी आन्दोलन मजबूत था | 1889 और 1894 के बीच तक़रीबन 90 हिन्दू हिन्दू – मुस्लिम दंगे हुए | उनमे से अकेले बंगाल में इस प्रकार के 44 दंगे हुए उत्तर -पश्चिमी प्रान्तों एवं अवध में 9 दंगे , मद्रास में 17 और पंजाब में एक दंगा हुआ | जहां कही भी ज्यादा राजनितिक गतिविधि थी ब्रिटिश सरकार ने वही इन दंगो को बढ़ावा दिया , ताकि हिन्दू और मुस्लिम झगड़ा शुरू कर सके और राष्ट्रवादी आन्दोलन के लिए संघर्ष को धक्का लगे | ऐसी निराशाजनक स्थिति के वावजूद इस बात का उल्लेख्य करना जरूरी है कि तत्कालीन बंगाल प्रांत के मुस्लिमो ने अच्छी – खासी संख्या में बंगाल विभाजन का विरोध किया था – जिसे हिन्दुओ और मुस्लिमो में आगे और भी फूट डालने के लिए ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की तरफ से उठाये गये एक और चालाकी भरे कदम के रूप में लिया गया | ” बंगाल विभाजन के खिलाफ आन्दोलन से सम्बन्धित सरकारी अभिलेखागार के दस्तावेज साबित करते है कि समूचे पूर्वी बंगाल के विभिन्न जिलो में बड़ी संख्या में जन – समुदाय की बैठके आयोजित की गयी थी ” 7 अगस्त 1905 को कलकत्ता में एक बड़ी सभा में एक प्रस्ताव पारित किया गया , जिसका मौलवी हिसीबुबुद्दीन अहमद ने अनुमोदन किया | इसके फलस्वरूप , तथ्यात्मक प्रमाण के वावजूद एकांगी इतिहास लेखन ने राष्ट्रीय आन्दोलन में भारतीय मुस्लिमो की गौरवशाली भूमिका को काफी हद तक दरकिनार कर दिया |
प्रस्तुती – सुनील दत्ता – स्वतंत्र पत्रकार – समीक्षक
लेखक- डा पृथ्वी राज कालिया – अनुवादक – कामता प्रसाद