लहू बोलता भी हैं
जंगे -आजादी -ए-हिन्द पर नजरेसानी
वहाबी मूवमेंट
सन 1828 से 1888 तक चले वहाबी मूवमेंट को रायबरेली के सैय्यद अहमद ने मजहबी पायदारी और तालीम के लिए शुरू किया था | लेकिन मुल्क के हालात को देखते हुए उन्होंने पटना के विलायत अली और इनायत अली के साथ पटना से ही इस पूरी तंजीम को जंगे – आजादी की लड़ाई में तब्दील कर दिया | पहले तो इस पूरी तंजीम ने अंग्रेजो के खिलाफ फिर से मुसलमानों को तबलीग कर दिया || पहले तो इस पूरी तंजीम ने अग्रेजो के खिलाफ फिर से मुसलमानों को तबलीग करने की मुहीम चलाई , फिर पूरे मुल्क में इस तंजीम ने उनके खिलाफ अपने मुरीदो व माननेवालो की एक फ़ौज तैयार की , जिसे जंगी साजो – सामान रखने और चलाने की ट्रेनिग भी दिया | बाद में उन्हें फौजी वर्दी व साजो – सामान से लैस भी किया | इसी सेना ने सन 1830 में कुछ वक्त के लिए पेशावर पर कब्जा करके अपना सिक्का भी चलाया | सन 1857 में इस सेना की कयादत करते हुए बिहार में पीर अली ने जो आन्दोलन चलाया उससे अंग्रेज बौखला गये और कुछ दिनों बाद ही उन्हें गिरफ्तार करके एलिफिस्टन सिनेमा के सामने पेड़ पर लटकाकर फांसी की सजा दे दी गयी | ताकि आंदोलनकारियो में बगावत के अंजाम का खौफ फैले | अंग्रेजो की इस हरकत ने आंदोलनकारियो में दहशत की जगह गुस्सा और इश्तेयाल पैदा कर दिया | पीर अली के साथ के बचे नेताओ को भी कुछ दिनों बाद अंग्रेजी सेना ने कमिश्नर टेलूब की अगुआई में गुलाम अब्बास , जुम्मन खान , उनधू मियाँ , हाजी रहमान , पीर बक्श ,वहीद अली , गुलाम अली , मोहम्मद अख्तर , असगर अली नंदलाल और छोटे यादव को भी अवाम की मौजूदगी में सरे आम फांसी पर लटका दिया गया | गौरतलब है कि इसी टेलूब ने पीर अली को भी फांसी दी थी |सन 1857 – 1860 के बीच वहाबी आन्दोलन के नेताओं में विलायत अली इनायत अली और मौलवी अब्दुल्लाह के कयादत में यह तंजीम इतनी बास्लाहियत व फौजी तैयारी से मजबूत थी कि तीन साल तक अंग्रेजी अफसरों और उनकी सेना को चैन से बैठने नही दिया | मूवमेंट का नाम वहाबी अंग्रेज अफसरों ने रखा था |
प्रस्तुती — सुनील दत्ता – स्वतंत्र पत्रकार – समीक्षक
सन्दर्भ , लहू बोलता भी है पुस्तक से
लेखक – सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी