चे ग्वेरा : अप्रतिम क्रांतियोद्धा
चे ग्वेरा : अप्रतिम क्रांतियोद्धा
विश्व के जिन गिने-चुने देशों में साम्यवाद आज भी अपनी मजबूत पकड़ बनाए हुए है, उनमें चीन, लाओस, वियतनाम, उत्तरी कोरिया के अलावा क्यूबा का नाम आता है. 26 जुलाई 1953 से दिसंबर 1956 तक चली क्यूबा जनक्रांति ने तानाशाह सम्राट फल्जेंसियो बतिस्ता को पदच्युत कर, फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व में जनवादी सरकार स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी. उसके बाद ही 1961 में वह एक साम्यवादी देश बन सका. क्यूबा क्रांति में फिदेल ने एक वीर और दूरदर्शी सेनापति की भूमिका निभाई थी, जो अपने राष्ट्र की जनभावनाओं को समझते हुए शत्रु को परास्त करने की कुशल रणनीति बनाता तथा अंततः लोकोन्मुखी शासन-व्यवस्था द्वारा समाजार्थिक परिवर्तनों को गति प्रदान करता है. लेकिन क्यूबा समेत पूरे लातीनी अमेरिकी देशों में जनक्रांति का वातावरण तैयार करने, सेनापति कास्त्रो के कंधे से कंधा मिलाकर अग्रणी भूमिका निभाने, बाद में लोगों की अपेक्षा के अनुरूप परिवर्तनों को गति देने का जो अनूठा कार्य अर्नेस्तो चे ग्वेरा ने किया, उसका उदाहरण दुर्लभ है. चे की लोकप्रियता का इससे बड़ा प्रमाण भला और क्या हो सकता है कि जिस अमेरिकी साम्राज्यवाद से वह आजन्म जूझता रहा, उसी की कंपनियां चे की बेशुमार लोकप्रियता को भुनाने के लिए बनियान, अंडरवीयर, चश्मे आदि उपभोक्ता साम्रगी की बड़ी रेंज उसके नाम से बाजार में उतारती रहती हैं. चे ग्वेरा ग्राम्शी जैसा प्रतिभाशाली तो न था, किंतु उसको प्रसिद्धि फिदेल कास्त्रो से कहीं अधिक मिली. यही कारण है कि प्रसिद्ध ‘टाइम’ पत्रिका द्वारा चे को बीसवीं शताब्दी की दुनिया-भर की पचीस सबसे लोकप्रिय प्रतिभाओं में सम्मिलित किया गया है. बाकी प्रतिभाओं में अब्राहम लिंकन, महात्मा गांधी, नेलसन मंडेला आदि अनेक नेता सम्मिलित हैं.
उसका पूरा नाम था अर्नेस्तो चे ग्वेरा. लेकिन उसके चाहने वाले उसको केवल ‘चे’ नाम से पुकारते थे. अपनापन जताने के लिए बोले जाने वाले इस नन्हे से शब्द का अर्थ है—‘हमारा’, हमारा अपना. अत्यंत घनिष्टता और आत्मीयता से भरा है यह संबोधन. अपने साथियों में चे इसी नाम से ख्यात था. उसका जन्म 14 जून, 1928 को अर्जेंटीना के रोसारियो नामक स्थान पर हुआ था. पिता थे अर्नेस्टो ग्वेरा लिंच. मां का नाम था—सीलिया दे ला सेरना ये लोसा. कुछ विद्वानों के अनुसार अर्नेस्टो की वास्तविक जन्मतिथि 14 मई, 1928 थी. इस तथ्य को छिपाने के लिए कि विवाह के समय अर्नेस्टो की मां गर्भवती थी, उसके जन्म की तिथि को बाद में एक महीना आगे खिसका दिया गया था. चे अपने माता-पिता की पांच संतान में सबसे बड़ा था. माता-पिता दोनों का ही संबंध अर्जेंटीना के प्रतिष्ठित घरानों से था. पिता आइरिश मूल के थे, जबकि मां का संबंध स्पेन के नामी परिवार से था. उनका परिवार कभी अर्जेंटाइना के धनाढ्य परिवारों में गिना जाता था, लेकिन अर्नेस्टो के जन्म के समय उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर पड़ चुकी थी. तो भी उनके आदर्श तथा प्रतिबद्धताएं पूर्ववत थीं. अर्नेस्टो के पिता स्पेन की जनक्रांति के प्रबल समर्थक थे. क्रांतिकारी विचारधारा से ओतप्रोत परिवार में अर्नेस्टो को बचपन से ही गरीबों के प्रति हमदर्दी का संस्कार मिला. तीन चीजें मानो उसे उपहार में प्राप्त हुईं. पहली उसका उग्र, जिद्दी और चंचल स्वभाव, दूसरा दमे का रोग और तीसरी उत्कट जिजीविषा. अर्नेस्टो के पिता बेटे के उग्र स्वभाव पर गर्व जताते हुए कभी-कभी कह देते थे—‘लोग यह बात अच्छी तरह जान लें कि मेरे बेटे की शिराओं में आइरिश विद्रोही का लहू दौड़ता है.’ मां सीलिया स्त्री-स्वातंत्र्य और समाजवादी विचारधारा की समर्थक थी. अर्नेस्टो ने पिता से विद्रोही स्वर लिया और मां से समाजवादी, स्त्री-स्वातंत्र्यवादी प्रेरणाएं. लेकिन बचपन में जो कुछ सहा वह एकदम आसान नहीं था. मौत से संघर्ष की प्रेरणा उसको अपनी ही जिंदगी से मिली थी. शिशु अर्नेस्टो मात्र 40 दिन का था, जब उसको निमोनिया ने आ घेरा, जिससे वह मरते-मरते बचा. वह केवल दो वर्ष का था जब मई, 2 1930 को उसे दमा के पहले हमले का सामना करना पड़ा. अगले तीन वर्ष तो दमा मानो उसकी छाती पर सवार रहा. लगभग हर रोज दौरा, हर रोज मौत की ललकार सुनना, अपने जीवट के दम पर मौत को पछाड़ना. छापामार युद्ध का प्रारंभिक प्रशिक्षण उसको मानो मौत से मिला. माता-पिता अबोध अर्नेस्टो की हालत पर दुखी होते. पर बेबसी में कुछ कर न पाते थे. डा॓क्टरों की सलाह पर वे यहां से वहां यात्राएं करते. बार-बार स्थान बदलते. शायद कहीं पर बालक अर्नेस्टो को आराम मिले. लगातार उपचार कराते. एक के बाद एक स्थान बदलते हुए अंततः कुछ सफलता मिली. कोरडोबा नगर के पास एक छोटा कस्बा था, अल्टा ग्रेशिया. वहां की शुष्क जलवायु के बीच अर्नेस्टो को कुछ राहत मिली. माता-पिता की देखभाल और स्नेह-समर्पण भी काम आया. दमा पूरा शांत तो नहीं हुआ, पर उसका प्रकोप अवश्य घट गया. यही वह समय था जब उसको अपनी मां को निकटता से समझने का अवसर मिला. कमजोर होने के कारण उसके लिए पाठशाला जाना तो संभव नहीं था. मां ही उसको घर पर पढ़ाती थी. मां के अलावा और जो अर्नेस्टो की साथी बनीं, वे थीं पुस्तकें. घर में समाजवादी विचारधारा की पुस्तकें आती थीं. मां स्वयं विदुषी थी. पिता तो व्यापार के सिलसिले में अक्सर बाहर रहते थे. बेटे की छाती को सहलाते-सहलाते हुए मां सीलिया रात को उसके बिस्तर पर ही सो जाती थी. अर्नेस्टो ने अपने एकांत को पुस्तकों से समृद्ध करना आरंभ कर दिया. अल्टा ग्रेशिया की जलवायु अर्नेस्टो के स्वास्थ्य के लिए इतनी अनुकूल सिद्ध हुई कि उसके माता-पिता को उसको छोड़कर जाना संभव ही नहीं हो पाया. उसके बचपन का बड़ा हिस्सा उसी कस्बे में बीता. यहीं रहकर पिता ने अपने व्यापार को संभाला. मां ने स्वयं को अपने बच्चों की देखभाल के प्रति समर्पित कर अच्छी मां सिद्ध किया. अर्नेस्टो ने अपने भाई-बहनों के साथ यहां रहते हुए जो शांतिमय और स्नेह से भरपूर जीवन बिताया, वह उसके आगे सक्रिय जीवनकाल में कभी संभव न हो सका. अपने लक्ष्य को समर्पित चे ने निजी सुख के बारे में कभी सोचा भी नहीं.
बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्ष अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद स्वास्थ्यकारी सिद्ध हुए. 1913 के आसपास प्रतिव्यक्ति आय के मामले में ऊपर से वह तेरहवें स्थान पर था. यहां तक कि फ्रांस भी उससे पीछे था. लेकिन असल चुनौती अभी बाकी थी. बीसवीं शताब्दी के दूसरे वर्ष में अर्जेंटाइना की अर्थव्यवस्था में अचानक भारी बदलाव आया. वहां की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार मांस और गेहूं का निर्यात था. वैश्विक मंदी ने अचानक इन उत्पादों के मूल्य को जमीन पर ला दिया. 1926 से 1932 के बीच इन उत्पादों के दाम गिरकर लगभग आधे रह गए. इसका परिणाम यह हुआ कि कृषि क्षेत्र में बेरोजगारी से घिर गया. इसका प्रभाव दूसरे उद्योगों पर भी पड़ा. उद्योग-धंधे तबाह होने लगे. बेरोजगारी के मारे लोग गांव छोड़कर शहरों की ओर पलायन करने लगे. तब उन्हें एहसास हुआ कि शहरों में रहने वाले उनसे कितनी नफरत करते थे. अपने ही देश के लोग. जिनसे वे उम्मीद लगाए थे कि मंदी के दिनों में मदद करेंगे, संकट के समय काम आएंगे, सब अपने स्वार्थ में सिमटे हुए थे. अपनी चमक-दमक पर गर्व करने वाले अपने शहरी बंधु-बांधवों से गांव से आए लोगों को नफरत ही मिली. लेकिन नफरत भूख से तो बड़ी नहीं थी. मजबूरियों से भी बड़ी नहीं थी. रोजगार के लिए गांव छोड़कर शहर पहंुचे ये लोग आसपास के इलाकों में बसने लगे. कुछ ही वर्षों में उनकी बस्तियां बड़ी हो गईं. संख्याबल के आधार पर वे अच्छी ताकत बटोरने लगे. अर्नेस्टो उस समय मात्र पांच वर्ष का था. उसकी सेहत सुधरने लगी थी. अब वह आसपास के इलाकों में घूमने लगा था. कुछ दोस्त भी बना लिए थे. चोर-सिपाही का खेल, रेत के किले बनाकर तोड़ना, बचपन के उसके पसंदीदा खेलों में सम्मिलित थे. इसी बीच उसको एक नया शौक लगा, मोटरसाइकिल की सवारी का. पूरा इलाका पठारी था. अर्नेस्टो ऊंची-नीची चट्टानों पर मोटरसाइकिल को दौड़ाता हुआ निकल जाता. मानो शरीर की व्याधियों को चुनौती देना चाहता हो. परंतु मां ठहरी मां, वह मानने को तैयारी न थी कि अर्नेस्टो स्वस्थ हो चुका है; या उसमें शरीर की व्याधियों से जूझने, उनको चुनौती देने का अद्वितीय साहस है. वह बेटे को स्कूल भेजने से भी घबराती थी. मां के घने लाड़-प्यार के कारण अर्नेस्टो की प्रारंभिक पढ़ाई घर पर हुई. खुद मां ने उसको वर्णमाला सिखाई. अर्नेस्टो के बचपन को याद करते हुए 1967 में एक साक्षात्कार के दौरान मां सीलिया ने कहा था—
‘दमा के कारण अर्नेस्टो के लिए नियमित पाठशाला जाना संभव न था. अतः मैंने उसको घर पर ही वर्णमाला की शिक्षा दी. उसने केवल दूसरे और तीसरे ग्रेड की शिक्षा नियमित विद्यार्थी के रूप में प्राप्त की. पांचवे और छठे ग्रेड में भी वह यथासंभव स्कूल गया. उसके भाई-बहन स्कूल से मिले काम को उसकी का॓पी में उतार देते थे, जिसका वह घर पर अध्ययन करता था.’
मां की ओर से अर्नेस्टो को प्रारंभिक शिक्षा मिली तो उसके पिता ने उसको खेल, व्यायाम, स्पर्धा में टिके रहने के गुर समझाए. पिता ने ही उसको सिखाया कि किस प्रकार दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर शारीरिक दुर्बलताओं पर विजय पाना संभव है! इरादे मजबूत हों तो कैसे बड़े संकल्प आसानी से साधे जा सकते हैं! इसी से वह उन शारीरिक अक्षमताओं से उबर सकता है, जो उसकी जन्मजात बीमारी से उपजी हैं. यह पिता का ही संबल था कि दमे का शिकार चे बचपन में ही पिंग-पोंग, गोल्फ, तैराकी, पर्वतारोहण जैसे खेलों में पारंगत हो चुका था. दूसरों का नेतृत्व करने का गुण उसमें बचपन से ही था, जो लगातार निखर रहा था. माता-पिता से एक और संस्कार अर्नेस्टो को मिला, वह था, अच्छी पुस्तकें पढ़ने का. घर में क्रांति से जुड़ी पुस्तकें आती थीं. घर पर रहते हुए अर्नेस्टो उन्हें पढ़ता. उनमें व्यक्त विचारों पर सोचता. इसके फलस्वरूप 14 वर्ष की अवस्था तक वह सिंगमंड फ्रायड, अलेक्जेंड्र डूमा, राबर्ट फास्ट, जूलियस बर्ने की पुस्तकें पढ़ चुका था. रोमांचक साहित्य पढ़ने में उसको विशेष आनंद आता था. जेक लंडन की पुस्तकें उसको सर्वाधिक पसंद थीं. फ्रांसिसी कवि चाल्र्स बुडेलायर का प्रभाव भी उस पर पड़ा. उसने रूसो, कार्ल माक्र्स, पाब्लो नेरूदा, फ्रेड्रिको गारशिया लोर्का, अनातोले फ्रांस आदि क्रांतिकारी लेखकों की रचनाएं पढ़ी, जिन्होंने उसके भीतर बौद्धिकता का संचार किया. एल्टा ग्रेशिया में रहते हुए अर्नेस्टो को बहुत कुछ सीखने को मिला. एक तो यह विश्वास कि आत्मबल से किसी भी कमजोरी को दूर किया जा सकता है. दूसरे वहां रहते हुए वह समाज के विभिन्न वर्गों के संपर्क में आया था, जिससे उसको समाज को समझने का अवसर मिला था.
किशोरावस्था में अर्नेस्टो की मित्रमंडली असाधारणरूप से अलग थी. उसमें समाज के भिन्न वर्गों के किशोर सम्मिलित थे. जिनमें उसके पिता की भवन निर्माण कंपनी में काम करने वाले श्रमिकों के बच्चे, गरीब नौकरों के बच्चे, कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों के बच्चे भी सम्मिलित थे. अर्नेस्टो को सभी के साथ समान व्यवहार करने की प्रेरणा मिली थी, मां से—जो अमीर-गरीब सभी के साथ समान व्यवहार करना सिखाती थी. अर्नेस्टो का बचपन हंसी-खुशी बीत ही रहा था कि सहसा अल्टा ग्रेशिया के शिक्षा विभाग के कुछ अधिकारियों ने अर्नेस्टो के माता-पिता से संपर्क कर, उसको स्कूल भेजने का निर्देश दिया. इसके फलस्वरूप अर्नेस्टो के विधिवत अध्ययन का मार्ग प्रशस्त हुआ. मार्च 1937 में अर्नेस्टो स्कूल स्तर पर भर्ती हुआ. उस समय उसकी वयस् अपनी कक्षा के अन्य विद्यार्थियों की औसत वय से लगभग एक वर्ष अधिक थी. लेकिन मां के सान्निध्य में रहकर वह विश्व-साहित्य का गहन अध्ययन कर चुका था. इसलिए कक्षा में वह अपने सहपाठियों पर प्रभावशाली सिद्ध हुआ. मां के प्रभाव से ही उसका साहित्यिक पुस्तकों के प्रति अनुराग बढ़ा जो आजीवन बना रहा. स्कूल के दौरान अर्नेस्टो को अपने गुरुजनों से प्रशंसा मिलती थी, मगर था वह सामान्य विद्यार्थी ही. अर्नेस्टो के तीसरे ग्रेड के अध्यापक ने उसको याद करते हुए लिखा था—‘वह दुर्भाग्य का मारा, प्रतिभाशाली लड़का था जो अपनी कक्षा में सबसे अलग नजर आता, किंतु उसकी नेतृत्व क्षमता खेल के मैदान में नजर आती थी.’
कक्षा में उसका सदैव यही प्रयत्न होता कि उसके सहपाठी और अध्यापक उस पर ध्यान दें, किसी भी तरह वह उन सबकी नजरों में चढ़ा रहे. नायकत्व की उत्कट चाहत ही कालांतर में एक क्रांतिकारी योद्धा के रूप में विकसित हुई. यह संभवतः उस हीनताग्रंथि से उबरने की कोशिश का परिणाम था, जो निरंतर बीमार रहने के कारण उपजी थी. जो हो, विद्यार्थी जीवन से ही उसके मन में दूसरों से आगे निकलने, स्पर्धा में बने रहने की भावना का जन्म हो चुका था. इसके लिए कई बार वह अजीबोगरीब हरकतें कर जाता, जैसे बोतल से इंक को पी जाना, चाक चबाना, खान में विस्फोट करना, सांड से जूझना. इन सब कारनामों से वह अपने साथियों तथा अध्यापकों के बीच निरंतर लोकप्रिय बनता जा रहा था. अर्नेस्टो की एक अध्यापिका एल्बा रोसी ओवीडो जेलिया ने उसको याद करते हुए लिखा है—
‘मुझे याद आता है कि बच्चे झुंड बनाकर स्कूल की चारदीवारी में उसके पीछे-पीछे घूमते थे. वह किसी ऊंचे पेड़ पर चढ़ जाता और उसके साथी पेड़ के इर्द-गिर्द घेरा बनाकर खड़े हो जाते. वह दौड़ता तो बाकी उसका पीछा करने लगते. वह स्वयं को उनका नेता सिद्ध कर चुका था. शायद उनका एक परिवार था, लेकिन सामान्य परिवारों से पूरी तरह भिन्न. उसके साथी जानते थे कि बातचीत में दूसरों को प्रभावित कैसे किया जाता है और वे इसमें पारंगत भी थे. वे कभी, कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ते थे. वे दूसरों से एकदम भिन्न और इतने दंभी थे कि अपने बारे में कभी कुछ नहीं बताते थे, हालांकि उनमें सभी एक जैसे नहीं थे.’
अर्नेस्टो के परिवार के बारे में बाकी कुछ भी कहा जाए, दंभ वहां हरगिज नहीं था. उनका घर अतिथियों के लिए खुला था. कोई अपरिचित भी भोजन के समय वहां आता तो उसको ठहरने और भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता. उनके परिवार को दूसरों के बीच ‘बोमियन’ कहा जाता था. मां सेलिया घर की छवि को बनाए रखने का पूरा ध्यान रखती. अल्टा गे्रशिया की वह पहली स्त्री थी जो अपनी कार स्वयं चलाती, खुले में धूम्रपान का हौसला रखती और ब्लाउज पहन कर बाहर निकल आती थी. वह अमीर-गरीब सबके साथ स्नेह-भाव से पेश आती, बौद्धिक बहसों में खुलकर हिस्सा ले सकती थी. अर्नेस्टो पर मां के इसी दबंग व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ा था.
राजनीति में पदार्पण
नेतृत्व का गुण अर्नेस्टो के बचपन में ही निखार ले चुका था. किशोरावस्था बीतते-बीतते वह स्वयं को प्रखर मेधावी, दूरद्रष्टा, सघन इच्छाशक्ति, नेतृत्वकुशल युवक के रूप में ढाल चुका था, जिसकी चिंताएं तथा सामाजिक सरोकार अपने समवयस्क युवकों की अपेक्षा कहीं बड़े थे. यही वे दिन थे जब उसका राजनीति की ओर रुझान बढ़ा. राजनीतिक घटनाक्रम उसमें सहायक सिद्ध हुआ. 1936 में स्पेन में सेना ने अचानक विद्रोह कर दिया. जनरल फ्रांसिस्को फ्रेंको के नेतृत्व में स्पेन की सेना का एक समूह निर्वाचित सरकार को उखाड़ फेंकने पर तुला था. इस विद्रोही समूह को जर्मनी के निरंकुश सम्राट एडोल्फ हिटलर तथा इटली के बेनिटो मुसोलिनी का समर्थन प्राप्त था. विद्रोह में निर्वाचित सरकार के मुखिया मेनुइल अजन को सत्ता गंवानी पड़ी. 1939 में सैन्य-शक्ति के बल पर जनरल फ्रांसिस्को फ्रेंको सत्ता पर काबिज हो गया. युद्ध के दौरान अर्नेस्टो ग्वेरा उन युवकों में था, जो मान रहे थे कि उसमें निर्वाचित सरकार की विजय होगी. दीवार पर स्पेन का नक्शा टांगकर वह रिपब्लिकन सरकार तथा विद्रोही फासिस्ट सेनापति की युद्धरत सेनाओं की स्थिति तथा उनकी रणनीति के बारे में अनुमान लगाता रहता था. मेनुइल अजन और उसके सहयोगी उसकी निगाह में ‘अच्छे बच्चे’ थे. अर्नेस्टो को उनकी विजय का पूरा भरोसा था. यही वे दिन थे, जब अर्नेस्टो को लगा कि अपने विचारों को मूत्र्तरूप देने के लिए राजनीति सबसे उपयुक्त माध्यम है. लेकिन युद्ध का परिणाम उसके सोच की विपरीत दिशा में जा रहा था. रिपब्लिकन सेनाएं कमजोर पड़ने लगी थीं. फासिस्ट सेनापति फ्रेंको को बाहर से मदद मिल रही थी.
रिपब्लिकन की हार की संभावना बढ़ते ही एल्टा ग्रेशिया और आसपास के क्षेत्रों में शरणार्थी बढ़ने लगे थे. अर्नेस्टो उन्हीं के मुंह से फासिस्ट सेनाओं के उत्पीड़न की सच्ची कहानियां सुनता. अर्नेस्टो का परिवार भी रिपब्लिकन सेनाओं का समर्थक था. इससे उसका रिपब्लिकन विचारधारा से अनुराग बढ़ने लगा. विजय प्राप्ति के साथ ही फासिस्ट समर्थक उद्योगपति और व्यापारी उद्योग-धंधों को अपने अधिपत्य में लेते जा रहे थे. उनके बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए अर्नेस्टो के पिता ने एक फासिस्ट विरोधी संस्था की नींव रखी. संस्था का काम था, नाजियों का विरोध करने वाले नागरिकों से चंदा जुटाकर उसके माध्यम से जर्मनी द्वारा अर्जेंटीना में घुसपैठ के विरुद्ध युद्ध का संचालन करना. साथ ही अर्जेंटीना के विरुद्ध किसी भी प्रकार की जासूसी पर नजर रखना. अर्नेस्टो उस समय मात्र 11 वर्ष का था, मगर वह हमेशा अपने पिता के साथ रहता. पिता के साथ मिलकर वह संस्था की गतिविधियों के संचालन में भी हिस्सा लेता. इसके बावजूद फासिस्टों का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा था. स्पेन के अलावा जर्मनी, इटली आदि कई देश उसकी जद में आ चुके थे. मध्य यूरोप में अपना प्रभाव जमा लेने के बाद फासिस्टों की महत्त्वाकांक्षाएं आसमान छूने लगी थीं. अब वे पूरी दुनिया पर शासन करने का इरादा रखते थे. अर्जेंटीना उनका सबसे निकटवर्ती पड़ाव बन सकता था. अर्जेंटीना प्रकटरूप में दूसरे विश्वयुद्ध से अलग था, किंतु भीतर ही भीतर वह जर्मनी का समर्थन कर रहा था. उसको उम्मीद थी कि जर्मनी की विजय से उसको नए बाजार मिलेंगे. मगर युद्ध खिंचने के साथ अर्जेंटीना की समस्याएं भी बढ़ती जा रही थीं.
मार्च 1942 में अर्नेस्टो ने हाईस्कूल के लिए ‘का॓लेजियो नेशनल डीन फेन्स’ में प्रवेश प्राप्त कर लिया. उस समय उसकी वयस् मात्र 14 वर्ष थी. अल्टा ग्रेशिया में कोई स्कूल न होने के कारण उसको कोरडोवा तक बस से जाना पड़ता था, जो उसके निवासस्थान से लगभग 32 किलोमीटर दूर था. अर्नेस्टो की मां दमा-ग्रस्त बेटे को इतने लंबे सफर की अनुमति देने को तैयार नहीं थी. इसलिए 1943 के ग्रीष्म में अर्नेस्टो का पूरा परिवार कोरडोवा के लिए प्रस्थान कर गया. इस घटना के बाद अर्नेस्टो के परिवार में बिखराव का सिलसिला आरंभ हो गया. उसके माता-पिता के रिश्ते उतने सामान्य न थे. दोनों में अकसर तनाव बना रहता था. 1943 में दोनों ने संबंध-विच्छेद कर लिया. इसका एक कारण अर्नेस्टो के पिता की स्त्रियों के प्रति तीव्र आसक्ति भी था. वह अपने ‘व्यापार’ के सिलसिले में प्रायः बाहर रहते. इस दौरान उनके युवा महिलाओं से संबंध बनते ही रहते थे. धीरे-धीरे उनके परिवार का धन समाप्त होने लगा, जो आगे चलकर उनके लिए बहुत हानिकर सिद्ध हुआ. अर्नेस्टो के पिता का भवन-निर्माण का कारोबार अब भी सामान्य था. उन्होंने पहाड़ी पर एक बंगला खरीद लिया. उसमें भी उनका काफी धन खर्च हो गया. तो भी उसका परिवार अपने लंबे सामाजिक संबंध अब भी पहले की तरह निभाए जा रहा था. बाहर से जो मेहमान मिलने आते वे उनके घर की हालत देखकर दंग रह जाते थे. उनके घर कुर्सियां, स्टूल आदि पुस्तकों से दबे होते. परिवार का वातावरण खुला था. बच्चे बाहर से साइकिल पर चढ़कर आते और उसी तरह आवासकक्ष को पार कर धड़धड़ाते हुए भीतर घुस जाते थे. अर्नेस्टो अपने खाली समय का उपयोग पढ़ने, खेलने तथा मित्रों के साथ गपशप करने में बिताता. दमे का उसका रोग अब भी उसी प्रकार था. रग्वी उसके प्रिय खेलों में से था. कोरडोवो में रहते हुए अर्नेस्टो का संपर्क था॓मस ग्रेनांडो से हुआ. कुछ ही दिनों के बाद दोनों पारिवारिक दोस्त बन गए. मित्रों के अलावा युवा अर्नेस्टो की साथी थीं, साहित्यिक पुस्तकें. पाब्लो नेरुदा, जा॓न कीट्स, फेडरिको गार्शिया लोर्का की कविताएं, एमिल जोला, आंद्रे जीद, विलियम फाॅकनर के उपन्यास उसको सर्वाधिक प्रिय थे. इसी अवधि में उसने सिंगमड फ्रायड, अनातोले फ्रांस को पढ़ा और उनसे प्रभावित हुआ. उसका अध्ययन विशाल था, इसके बावजूद कक्षा में वह औसत नंबर ही ला पाता था. शायद इसके पीछे उसके अनेक गतिविधियों में उसकी हिस्सेदारी तथा वह छोटी-सी नौकरी भी थी जो उसके पिता के अनुसार उसने अपना समय बिताने के लिए की थी. इस बीच निडरता उसके स्वभाव का हिस्सा बन चुकी थी.
मित्रों के बीच अर्नेस्टो के कई उपनाम थे. कुछ साथी उसको ‘एल लोको’ कहते, जिसका अर्थ है—‘बाबरा’. कुछ अन्य दोस्त उसको चांचो(सुअर) भी कहते थे. अर्नेस्टो के इस विचित्र स्वभाव के बारे में उसके मित्र ग्रेनांडो ने लिखा है कि उसको थोड़ा खतरनाक दिखना भी पसंद था. नदी किनारे पहुंचकर अक्सर वह शेखी बघारता था कि वह कितनी देर तक गहरे जल में छिपकर रह सकता है. उसको अकसर यह कहते सुना जाता—‘इस रग्बी की कमीज को धोए हुए मुझे पचीस दिन बीच चुके हैं.’ उम्र के साथ जहां उसके दोस्तों की संख्या में वृद्धि हो रही थी, वहीं उसका राजनीति के प्रति रुझान भी विकसित हो रहा था. पर जो नहीं बदला, वह था उसका दमा का रोग, जिसके कारण वह अकसर परेशान रहता था. इसके बावजूद वह था दूसरों से एकदम अलग. किशोरावस्था में उसके विद्रोही लक्षण उसके स्वभाव से झलकने लगे थे. एक किवदंति के अनुसार अर्नेस्टो का मित्र एक बार सैन्य कार्रवाही का विरोध करते समय गिरफ्तार कर लिया गया. अर्नेस्टो उससे मिलने पुलिस स्टेशन पहुंचा तो ग्रेनांडो ने उसको विरोध-प्रदर्शन का नेतृत्व करने की सलाह दी. इसपर अर्नेस्टो ने गुस्से में कहा था—
‘कैसा प्रदर्शन, क्या सिर्फ पुलिस की गालियां और मार खाने के लिए….हरगिज नहीं! इस तरह का कोई भी कदम मैं उस समय तक नहीं उठाऊंगा, जब तक मेरे पास एक अदद बंदूक न हो.’
यह उदाहरण दर्शाता है कि अर्नेस्टो के भीतर जुझारूपन की भावना बचपन में जन्म ले चुकी थी. संभव है यह उसकी जन्मजात बीमारी की प्रतिक्रियास्वरूप हुआ हो. दवाओं के सहारे जूझती हुई जिंदगी ने प्रत्येक संघर्ष में कृत्रिम साधनों की आवश्यकता को सहज अपना लिया हो. 1946 में अर्नेस्टो ने हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की. वह आगे इंजीनियरिंग की पढ़ाई करना चाहता था. लेकिन घटनाक्रम अकस्मात इतनी तेजी-से बदला कि जिंदगी अनचाहे-अनचीन्हे रास्तों की ओर बढ़ चली. 1947 में अर्नेस्टो को कोर्डोबा में छोड़, उसका बाकी परिवार बुनोस एअर्स के लिए प्रस्थान कर गया. उस समय परिवार अर्थिक तंगी से गुजर रहा था. ऊपर से उसके माता-पिता के बीच मनमुटाव इतना अधिक बढ़ चुका था कि दोनों साथ रहने को तैयार न थे. उन्हीं दिनों अर्नेस्टो की दादी का, जिससे उसको गहरी आत्मीयता थी, निधन हो गया. इस घटना की दुःखद परिणति यह हुई कि अर्नेस्टो ने कोर्डोबा में टिके रहने का इरादा छोड़ दिया. इससे उसका इंजीनियर बनने का सपना धरा का धरा रह गया. बुनोस पहुंचकर अर्नेस्टो ने डा॓क्टरी की पढ़ाई के लिए दाखिला ले लिया. वह विज्ञान का विद्यार्थी रह चुका था. इससे पहले डाॅक्टरी के व्यवसाय में उसकी कोई रुचि न थी. तब चिकित्सा व्यवसाय में आने का अचानक निर्णय क्यों? इसके पीछे भी उसका अपनी दादी के प्रति अतिशय लगाव था. उसको लगता था कि दादी की मृत्यु केंसर से, समय पर उपचार न होने के कारण हुई है. इसका दूसरा कारण अपनी जन्मजात बीमारी के कारण को समझना भी हो सकता है. बहरहाल वह मन लगाकर डा॓क्टरी की पढ़ाई करने लगा. विद्यालय के खर्च निकालने के लिए उसने नौकरी भी कर ली. घर में अशांति का वातावरण था. उससे बचने के लिए अर्नेस्टो स्वयं को सदैव व्यस्त रखने का प्रयास करता. अपना अधिकांश समय वह घर से बाहर रहकर मित्रों के बीच बिताता, जिनके लिए वह अब भी एक ‘हीरो’ था. बुनोस में उसके पुराने मित्र हालांकि छूट चुके थे. परंतु नए मित्रों के बीच भी उसकी धाक वैसी ही थी. अपने संगठन सामथ्र्य और नए लोगों के बीच बहुत जल्दी घुलमिल जाने के उसके स्वभाव ने उसको मित्रों के बीच जल्दी ही लोकप्रिय बना दिया था. इस बीच घुमक्कड़ी का नया शौक उसको पैदा हुआ जो आजीवन बना रहा. साहित्य के प्रति पहले ही उसका गहनानुराग था. घुमक्कड़ी से उसके मन में इतिहास, राजनीतिक विज्ञान, समाजशास्त्र तथा दर्शन को जानने की ललक पैदा हुई. साथ ही उसने लिखना भी आरंभ कर दिया. स्थानीय समाचारपत्रों में उसके लेख प्रकाशित होने लगे थे. इसके बावजूद उसका मन अशांत था. यद्यपि डाॅक्टरी की पढ़ाई में वह मनोयोग से जुटा था, तो भी वह उसका पसंदीदा विषय न था. उसको बराबर यह लगता था कि उसके जीवन का मकसद कुछ और है. लेकिन लक्ष्य तय न कर पाने से जन्मी छटपटाहट उसको बेचैन किए रहती थी.
अर्नेस्टो का मन हमेशा कुछ नया करने को छटपटाता रहता. 1 जनवरी 1950 को उसका मन अचानक उचटा और वह साइकिल निकालकर लंबी यात्रा पर निकल गया. साइकिल को चलाने के लिए उसने एक छोटा इंजन लगाया हुआ था. पहला पड़ाव उसने कोर्डोबा में किया. वहां वह ग्रेनांडो से मिला, जो स्वयं चिकित्सा के क्षेत्र में आ चुका था और कोर्डोबा के कुष्ठ रोगालय में काम करता था. कुछ दिन कुष्ठ रोगियों के बीच कोर्डोबा में बिताने के बाद वह पुनः यात्रा पर बढ़ गया. अर्नेस्टो के लिए वह यात्रा बहुत परिवर्तनकारी सिद्ध हुई. उससे पहले तक वह शहरी जीवन में पला-बढ़ा था. गांव और गरीबी उसने देखी नहीं थी. मोटरसाइकिल की यात्रा से उसको ग्रामीण जीवन को निकटता से देखने का अवसर मिला. पहली बार उसने गांव में जमींदारों का उत्पीड़न देखा. देखा कि किस प्रकार ग्रामीण मजदूरों के श्रम से बड़े भूमिपति उत्तरोत्तर धनवान एवं शक्तिशाली बनते जा रहे हैं. पहली बार उसे अनुभव हुआ कि राजनीतिक सीमाओं से परे पूरा लातीनी अमेरिका दो भागों में बंटा हुआ है. एक छोर पर संपत्ति और संसाधनों पर कब्जा जमाए यूरोपीय मूल के जमींदार, उद्योगपति, सरमायेदार और व्यापारी हैं. दूसरी ओर मूल लातीनी मजदूरों के वंशज हैं, जो मात्र पेट-भर रोटी के लिए जी-तोड़ मजदूरी करते हैं. लेकिन रात-दिन परिश्रम करने पर भी अकसर उन्हें भरपेट भोजन प्राप्त नहीं हो पाता. पहली बार उसने समाज का उत्पीड़क और उत्पीड़ित में साफ-साफ विभाजन देखा. माक्र्स की कही बातें उसको अक्षर-अक्षर जमने लगीं. इस बीच उसने रूसी क्रांति का अध्ययन किया. वह लेनिन और स्टालिन के आंदोलन से प्रभावित हुए बिना रह न सका. खासकर स्टालिन ने उसको बहुत प्रभावित किया.
सामाजिक अनुभवों से अर्नेस्टो की राजनीतिक समझ साफ होती जा रही थी. उस समय वह वयस् के बाइसवंे पड़ाव पर था. युवावस्था अपनी छाप छोड़ रही थी. नया सोच और सपने भी उछाह मारने लगे थे. उन्हीं दिनों वह 16 वर्षीय मारिया डेल कर्मन चिचीना फेरेरा के संपर्क में आया. वह कार्डोबा के सबसे अमीर व्यापारी की बेटी थी. दोनों की प्रथम भेंट को प्यार में बदलते देर न लगी. चिचीना के परिवारवाले उस संबंध को तैयार न थे. इसके बावजूद उनका प्रेम गहराता गया. दोनों विवाह के लिए तत्पर थे. चिचीना की मां ने चालाकी से काम लिया. उसने अपनी बेटी को धमकी दी कि यदि उन दोनों का प्यार आगे बढ़ता है तो वह परिवार छोड़ देगी और गिरजाघर में जाकर नन बन जाएगी. चिचीना डर गई. उसको अपने पांव पीछे खींचने पड़े. प्रेम में निराश होने के बाद अर्नेस्टो ने स्वयं को पुनः पढ़ाई में लगा दिया. उसके मित्र अल्ब्रेट ग्रेनांडो की बहुत पुरानी इच्छा थी, एक बार समूचे दक्षिणी अमेरिका का भ्रमण करना. अकेले यात्रा पर निकलने की उसकी हिम्मत नहीं थी. उसने अर्नेस्टो के समक्ष प्रस्ताव रखा तो वह सहर्ष तैयार हो गया. 4 जनवरी 1952 को दोनों दोस्त मोटरसाइकिल पर सवार होकर यात्रा के लिए निकल पड़े. उनका पहला पड़ाव अर्जेंटीना के समुद्रीय क्षेत्र में बसा मिरामर नाम का शहर था. चिचीना वहीं अपने माता-पिता के साथ प्रवास पर थी. युवा अरमान लिए अर्नेस्टो ने उससे मुलाकात की. दोनों का प्रेम एक बार फिर परवान चढ़ने लगा. लेकिन अर्नेस्टो यात्रा को अधूरी छोड़ने को तैयार न था. कुछ दिन पश्चात दोनों मित्र आगे बढ़ गए. उनके पास बहुत कम पैसा था. भोजन के लिए भी वे स्थानीय निवासियों की अनुकंपा पर निर्भर थे. उस यात्रा में अर्नेस्टो को जीवन को गहराई से समझने का अवसर मिला. उसने लोगों के अभावग्रस्त जीवन को निकटता से देखा. उसके कारण भी उसकी समझ में आने लगे थे. अमेरिकी साम्राज्यवाद किस प्रकार अपने उपनिवेशों का शोषण करता है, यह उसने उस यात्रा के दौरान निकटता से देखा-समझा. एक डायरी वह सदा अपने पास रखता था. लोगों से मिलने के बाद अंतर्मन में जन्मी हलचल को व्यक्त करते हुए डायरी में उसने लिखा कि इस यात्रा से उसके भीतर बहुत कुछ बदला है. अब वह वैसा नहीं है, जैसा पहले था—
‘मुझे लगता था कि मेरे भीतर ही भीतर बहुत-कुछ पक चुका था, जो इस शहर के आपाधापी तथा धक्का-मुक्की से भरे जीवन में लंबे समय से मेरे मन में घुमड़ता आ रहा था. वह इस सभ्यता, घृणास्पद सभ्यता के नाम पर कलंक है, जिसके भीषण शोरगुल-युक्त वातावरण में असभ्य लोग पागलों की भांति दौड़ लगाए जा रहे हैं. सच कहूं तो यह शांति का शानदार विलोम है.’
यात्रा के बीच अर्नेस्टो को दिल दहला देने वाला संदेश मिला. संदेश चिचीना का था. उसने कहलवाया था कि वह और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकती. चिचीना की ओर से पूरी तरह निराश हो जाने के बाद वह यात्रा पर आगे बढ़ गया. वहां से वह चिली पहुंचा, जहां दोनों को नए अनुभव हुए. समाचारपत्रों में उन युवकों की यात्रा को लेकर खबरें छपने लगी थीं. एक अखबार ने लिखा था—‘लेप्रोसी के दो अर्जेंटीनाई डा॓क्टर मोटरसाइकिल से दक्षिणी अमेरिका की यात्रा पर.’ उन दोनों का काफिला जहां भी पहुंचता उन्हें देखने लोग उत्साह से जुट जाते. यात्रा को जनसमर्थन मिलने से दोनों का हौसला बढ़ा. उन्हें लगने लगा था कि अब वे अकेले नहीं हैं. बल्कि अपनापन लिए अनजाने लोग भी उनके साथ हैं. मोटरसाइकिल को अक्सर अर्नेस्टो चलाता था, जबकि ग्रेनांडो उसपर पीछे सवार रहता. यात्रा के बीच एक और घटना ने अर्नेस्टों के मन पर गहरा असर डाला. उस समय वह समुद्रतटीय नगर वालपरायसो से गुजर रहा था. रात्रि पड़ाव के समय जब अपने मित्र के साथ अर्नेस्टो ने एक निर्धन गृहस्थ के घर शरण ली तो यह जानकर कि वह अच्छा डाॅक्टर है, गृहस्थ ने उससे अपनी पत्नी का उपचार करने का अनुरोध किया. स्त्री को दमा और हृदयरोग था. अर्नेस्टो ने यथासंभव उसको ठीक करने की कोशिश की. लेकिन वह मरणासन्न स्त्री को बचा न सका. उस रात स्त्री को तिल-तिल कर मौत के मुंह में जाते हुए देख उसने अपनी डायरी में नोट किया—‘यह ऐसा समय है जब डा॓क्टर की संपूर्ण बुद्धिमत्ता, उसका अनुभव और कार्यकुशल होना किसी काम नहीं आता. इसके लिए समाज को बहुत कुछ बदलना होगा. हमें अपने चारों ओर व्याप्त अन्याय और अनाचार को रोकने के प्रयास करने होंगे. यह स्त्री मात्र एक महीना पहले अपना पेट भरने के लिए वेट्रेस का काम करती थी. गुजारा भले ही जैसे-तैसे होता था, परंतु वह एक सम्मान-भरा जीवन जीती थी.’ उसको लगा कि उस स्त्री की मौत स्वाभिक मौत नहीं है. पूरी व्यवस्था इसके लिए जिम्मेदार है. 17 जुलाई, 1951 को वे वेनेजुएला पहुंचे. वहां के कुष्ठ रोगालय की ओर से ग्रनांडो को नौकरी का निमंत्रण प्राप्त हुआ, जिसको उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया. मित्र के नौकरी संभाल लेने के पश्चात अर्नेस्टो अकेला पड़ गया. वह यात्रा को आगे बढ़ाना चाहता था, किंतु मोटरसाइकिल के इंजन में अचानक आई बड़ी गड़बड़ी ने उसकी यात्रा में व्यवधान खड़ा कर दिया. परिणामस्वरूप अर्नेस्टो को यात्रा अधूरी छोड़कर वापस लौटना पड़ा. घर पहुंचते ही उसने स्वयं को एक बार पुनः अध्ययन को समर्पित कर दिया. जिनका अनुकूल परिणाम भी निकला. अप्रैल 1953 में डाॅक्टरी की अंतिम परीक्षा में पास होने के बाद उसने हर्षातिरेक में पहला फोन अपने पिता को किया, जिसमें उसने डाक्टर बन जाने की सूचना दी थी—‘मैं डा॓क्टर अर्नेस्टो ग्वेरा दे ला सेरना बोल रहा हूं.’ उसके पिता ने बाद में प्रतिक्रिया देते हुए बताया था कि ‘मैं उस समय अत्यधिक प्रसन्न था.’ लेकिन पिता की यह प्रसन्नता बहुत कम समय तक कायम रह सकी. उन्हें लगता था कि डा॓क्टर बन जाने के पश्चात अर्नेस्टो नौकरी की ओर ध्यान देगा. घर की जिम्मेदारी में हाथ बंटाएगा. मगर वह डा॓क्टरी क्या किसी भी बंधी-बंधाई नौकरी के लिए जन्मा ही नहीं था.
डा॓क्टर की डिग्री लेने के पश्चात अर्नेस्टो अपने लिए एक सुविधासंपन्न जीवन सुनिश्चित कर चुका था. उसके पिछले नियोक्ता डा॓. पिसानी ने उसे अपनी लैब में काम करने के बदले वेतन के रूप में आकर्षक धनराशि उपलब्ध कराने का आश्वासन भी दिया था. लेकिन उसके भीतर तो दुनिया को देखने-जानने की ललक थी. पहली यात्रा के अनुभव उसके साथ थे. लेकिन अपर्याप्त. वह दुनिया को जानने के लिए उसको बहुत-बहुत देखना चाहता था. कहीं न कहीं उस यात्रा के पीछे स्वयं को जानने-समझने की भी चाहत थी. इसलिए अवसर मिलते ही उसने तीसरी बार यात्रा पर निकलने की तैयारी शुरू कर दी. अपने अभियान के लिए उसने नए साथी को चुना. उसका नाम था—कार्लोस केलिसा फेरर. अक्टूबर, 1951 में अर्नेस्टो ने यात्रा का अगला चरण आरंभ किया. उसकी योजना आंदेस से चिली, वहां से बोलविया, पेरू, एक्वाडोर, कोलंबिया से गुजरते हुए पूरा दक्षिणी अमेरिका घूम लेने की थी. नौ महीने तक चली वह यात्रा अद्भुत रोमांच और नवीनतम अनुभवों से भरी थी. उसके द्वारा वह लातिनी अमेरिका की जमीनी सचाई के संपर्क में आया. उस यात्रा ने उसको वैचारिक रूप से समृद्ध और संकल्पवान भी बनाया. सफर में दोनों मित्र लोगों के साथ तरह-तरह से पेश आते. साधारण सैलानियों की भांति वे युवा लड़कियांे को ताड़ते, उनके साथ हंसी-ठिठोली करते. कभी-कभी मस्ती में उनका पीछा भी करने लगते. मन होता तो मदिरालय पहुंचकर नशा करते. यात्रा का पहला पड़ाव बोलेविया था, जहां वे 11 जुलाई 1953 को पहुंचे थे.
बोलेविया लातीनी अमेरिका का सर्वाधिक गरीब, विपन्न देश था, जो उन दिनों परिवर्तनकारी चक्र से गुजर था. 1952 से सत्ता संभालने के बाद ही बोलेविया के राष्ट्रपति विक्टर पा॓ज ऐस्टेंसरो ने देश को समाजवादी आदर्श के अनुकूल ढालना आरंभ कर दिया था. जिसमें सेना में कटौती, खानों का राष्ट्रीयकरण जैसे प्रमुख कदम थे. बदलते बोलेविया ने अर्नेस्टो को प्रभावित किया था: ‘साम्राज्यवादी अमेरिका को बोलेविया से सबक लेना चाहिए.’—उसकी प्रतिक्रिया थी. यात्रा के दौरान वे समुद्र तट से 5182 मीटर ऊपर स्थित टंगस्टन की खान को देखने पहुंचे. वहां कार्यरत इंजीनियर ने उन्हें वह स्थान दिखाया जहां क्रांति के दौरान खान मालिक के गार्ड ने मजदूरों तथा उनके बीबी-बच्चों पर मशीनगन से गोलियां बरसाई थीं. ‘अब यह खान पूरे देश यानी जनता की है.’—इंजीनियर ने गर्व से बताया था. यात्रा के दौरान बदलते बोलेविया ने अर्नेस्टो को प्रभावित किया था, लेकिन उसकी संतुष्टि बहुत सीमित समय के लिए थी. बहुत शीघ्र उसकी समझ में आने लगा कि वहां सबकुछ जनता की अपेक्षा के अनुसार नहीं था. अमेरिका के दबाव में नई सरकार ने भूमि-सुधारों की गति को आवश्यकता से बहुत धीमा कर दिया था. परिणामस्वरूप वहां जनाक्रोश भड़क उठा. 11 मार्च 1952 की शाम अर्नेस्टो तथा अल्बर्ट रात बिताने के लिए एक निर्धन मजदूर दंपति के घर टिके, जो प्रसिद्ध अटाकामा रेगिस्तान के अनाकोंडा की शुक्युईकामत खान में काम करते थे. खान मजदूर और उसकी पत्नी दोनों साम्यवादी विचारों के थे. अपनी आर्थिक दुर्दशा के बारे खान मजदूर ने उसको बताया कि मात्र कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने के कारण उसको तीन महीने जेल में बिताने पड़े हैं. इसी कारण स्थानीय तांबे की खानों में कोई उसको काम देने को तैयार नहीं होता. अर्नेस्टो माक्र्सवाद के बारे में बहुत कुछ पढ़ चुका था. लेकिन उन गरीब श्रमिकों से उसको बहुत कुछ सीखने को मिला था. वह खान मजदूर उसको ‘दुनिया में सर्वहारावर्ग का जीता-जागता उदाहरण’ प्रतीत हुआ. उस दंपति के साथ बिताई गई सर्द रात का उल्लेख करते हुए अर्नेस्टो ने अपनी डायरी में लिखा—
‘उनके पास रात बिताने के लिए एक मामूली कंबल तक नहीं था. अतः हमने उन्हें अपना कंबल दिया. उसके बाद मैंने तथा अल्बर्ट ने अपनी रात एक कंबल में लिपटकर जैसे-तैसे बिताई. वह मेरी अब तक बिताई गई सर्वाधिक ठंडी रातों में से एक थी, जिसने हमें उस अजनबी मजदूर, जो निस्संदेह मानव-प्रजाति का ही सदस्य था, के थोड़ा करीब ला दिया था.’
यात्रा के दौरान अर्नेस्टो ने देखा कि मजदूर माता-पिता अपनी बीमार संतान को मरते-तड़फते देखने को सिर्फ इस कारण विवश हैं, क्योंकि उनके पास डाॅक्टर की फीस चुकाने लायक पैसे नहीं हैं. अभावग्रस्तता को उन्होंने अपनी नियति, जिंदगी का स्वाभाविक हिस्सा मान लिया है. क्या डा॓क्टर के रूप में वह उनकी कुछ मदद कर सकता है? श्रमिक परिवारों की दुर्दशा देख अर्नेस्टो अपने आप से प्रश्न करता. अंतर्मन से तत्काल उत्तर आता कि—‘नहीं, इनकी समस्या केवल रोगों का उपचार कर देने से दूर होने वाली नहीं है. वास्तविक समस्या उस उत्पीड़न में छिपी है जो उन्हें आर्थिक असमानता के कारण कदम-कदम पर झेलना पड़ता है.’ रोग का वास्तविक कारण इनकी गरीबी और वह भयावह आर्थिक असमानता है, जो अमेरिकी साम्राज्यवाद के कारण जन्मी है. वह यह जानकर क्षुब्ध था कि अपनी जमीन, अपना देश होने के बावजूद वहां अमेरिकी कंपनियां शासन और प्रशासन पर हावी हैं. कमरतोड़ मेहनत करने के बावजूद उन्हें पेट-भर भोजन उपलब्ध नहीं है. सरकार भी उत्पीड़न में विदेशी कंपनियों का साथ देती है. वह यात्रा डाॅ. अर्नेस्टो के ‘क्रांतिकारी चे ग्वेरा’ में बदलने की यात्रा थी—
‘धीरे-धीरे वह समझने लगा था कि संयुक्त राज्य अमेरिका की शोषणकारी प्रवृत्ति ही दक्षिणी अमेरिका की गरीबी और अन्याय का मूल है.’
आंद्रे की यात्रा में अर्नेस्टो का फिर भीषण गरीबी से साक्षात्कार हुआ. वहां उसने अधनंगे किसानों को जमींदारों के खेतों में काम करते हुए देखा. यात्रा का एक पड़ाव उसने कुष्ठ रोगियों की बस्तियों में भी किया. यह एक नया अनुभव था. कुष्ठ रोगियों के बीच आपसी भाईचारे और सहयोग की भावना ने उसको बहुत प्रभावित किया. पहली यात्रा में उसने कुल 4500 किलोमीटर की यात्रा की थी. दूसरी यात्रा में वह अर्जेंटीना, चिली, पेरू, एक्वाडोर, कोलंबिया, वेनेजुएला, पनामा तथा मियामी तक पहुंचा था, जिसमें उसने कुल नौ महीने के भीतर 8000 किलोमीटर से अधिक यात्रा की थी. दोनों यात्राओं से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि दक्षिणी अमेरिका अलग-अलग देशों का समुच्चय न होकर, एक राष्ट्र है जिसको स्वाधीनता की भावना क्षेत्रवार विभाजित करती है. राज्यों की सीमा से परे सभी क्षेत्रों में लगभग एक जैसी परिस्थितियां हैं. हर जगह बेहद गरीबी है. आर्थिक विषमता और तज्जनित उत्पीड़न, घोर अभावग्रस्तता है. पूरा क्षेत्र साम्राज्यवादी अमेरिका के आर्थिक-राजनीतिक शोषण का शिकार है. इससे उसके मन में सीमारहित स्पेनिश अमेरिका की अवधारणा का विकास हुआ, जिसको लेटिन की सुदीर्घ साहित्य-परंपरा आपस में जोड़ती है. जिसकी संस्कृति में राज्यवार भले ही थोड़ा-बहुत अंतर हो, समस्याएं एक समान हैं. यही संयुक्त स्पेनिश अमेरिका का विचार कालांतर में उसकी क्रांतिकारी गतिविधियों का उत्पे्ररक और मार्गदर्शक सिद्ध हुआ. बाद के वर्षों में अपनी लेटिन अमेरिका की यात्रा के दौरान उसने ‘भूख, गरीबी, बेरोजगारी और बीमारी से सीधा साक्षात किया.’ यात्रा में अर्नेस्टो ने गरीबी का ऐसा रौद्ररूप देखा कि उसको अपना डा॓क्टर होना निरर्थक लगने लगा. उसको लगने लगा कि ऐसे लोगों की सहायता के लिए डा॓क्टरी का पेशा व्यर्थ है. कुछ ही अर्से बाद उसने चिकित्सा के पेशे को छोड़कर राजनीति से जुड़ने का निर्णय कर लिया. यह बात अलग है कि कालांतर में क्यूबा की सरकार में मंत्री होने के बावजूद उसको लगने लगा था कि केवल राजनीति द्वारा सीधे-सीधे लक्ष्य प्राप्त कर पाना असंभव है. इसलिए मंत्रीपद और सारी सुख-सुविधाओं को त्यागकर वह एक बार फिर सैनिक की वेषभूषा में आया तथा मरणोपरांत छापामार सैनिक बना रहा.
दूसरी यात्रा में अर्नेस्टो ने मियामी को अपना अंतिम पड़ाव बनाया था. वहां एक महीने के प्रवास के दौरान घटी एक घटना ने उसके मन में अमेरिका-विरोध को और गहरा कर दिया जो आखिर तक बना रहा. जिन दिनों वह मियामी की यात्रा पर था. òोत बताते हैं कि सीआईए के इशारे पर उसको गिरफ्तार कर लिया गया. जबकि सीआईए के दस्तावेज में उसके अपराध का कोई उल्लेख नहीं है, जिसके लिए उसको गिरफ्तार किया गया था. कुछ विश्वसनीस स्रोतों के अनुसार अर्नेस्टो तथा उसके मित्र प्युर्टो रिकन ने मियामी के एक मदिरालय में हुड़दंग मचाते हुए अमेरिका के विरुद्ध कुछ सख्त टिप्पणियां की थीं, जिससे वहां की गुप्तचर संस्था को सक्रिय होना पड़ा था. बहरहाल, दूसरी यात्रा के बाद अर्नेस्टो ने डाॅक्टरी के पेशे को पूरी तरह त्यागकर राजनीति से जुड़ने का निर्णय ले लिया.उसकी राजनीति पर माक्र्स का प्रभाव था. रूस की क्रांति उसको आकर्षित करती थी, लेकिन वह बजाय लेनिन के जोसेफ स्टालिन को अपना प्रमुख प्रेरणास्रोत मानता था. किंतु स्टालिन जहां राजनीतिक रूप से अत्यंत महत्त्वाकांक्षी था, वहीं अर्नेस्टो की प्रतिबद्धता पूरे दक्षिणी अमेरिकी समाज के साथ थी. स्टालिन के लिए राजनीति सत्ता एवं शक्ति समेट लेने का माध्यम थी, वहीं अर्नेस्टो उससे समाज के उत्पीड़ित वर्ग का शोषण से मुक्ति का मार्ग खोजना चाहता था.
ग्वाटेमाला की यात्रा
अगस्त-1953 के मध्य में अर्नेस्टो तथा उसके सहयात्री ने बोलेविया से विदा ली और पेरू के रास्ते वेनेजुएला जाने का विचार किया. किंतु शीघ्र ही उन्होंने अपना रास्ता बदल लिया और ग्वाटेमाला को अपना लक्ष्य बनाया. नववर्ष की संध्या को दोनों मित्र ग्वाटेमाला पहुंचे. ग्वाटेमाला के लिए रवाना होने से पहले 10 दिसंबर, 1953 को अर्नेस्टो ने अपनी चाची बीट्रिज को सेन जोस, कोस्टा रीसा से एक संदेश भेजा था. पत्र में उसने लिखा था कि वे संयुक्त राष्ट्र की फल-उत्पादक कंपनियों के उपनिवेशों से गुजर रहे हैं. उन कंपनियों की ‘जोंक’ से तुलना करते हुए अर्नेस्टो ने उनके आतंक की चर्चा की थी. फल-उत्पादक कंपनियों की लूट और मनमानी ने उसे उत्तेजित किया था. इसके कुछ ही दिन पश्चात अर्नेस्टो ने स्टालिन की तस्वीर के आगे, जिसका कुछ ही दिन पहले निधन हुआ था, उस समय तक चैन से न बैठने की शपथ ली थी, जब तक कि वह उन जोंकों को मिटा नहीं देता. ग्वाटेमाला की आबादी मात्र तीस लाख थी. उसमें अधिकांश संख्या वहां के पुराने निवासियों की थी, जो भीषण गरीबी में जीवन बिताते थे. अर्थव्यवस्था कृषि आधारित थी. केला, काॅफी, गन्ना और कपास वहां की प्रमुख फसलें थीं. मगर देश की सत्तर प्रतिशत कृषि भूमि पर केवल दो प्रतिशत अमेरिकी और यूरोपीय मूल के लोगों का अधिकार था. अधिकांश भू-संपदा ‘यूनाइटेड फ्रुट कंपनी’ के अधिकार में थी. राष्ट्रपति अर्बेंज गुजमान के नेतृत्व में आर्थिक असमानता की खाई को पाटने का प्रयास आरंभ हो चुका था. साम्यवादी दलों के समर्थन पर राष्ट्रपति बने अर्बेंज ने कृषि-भूमि का भूमिहीनों में बंटवारा किया. इससे सबसे अधिक नुकसान ‘यूनाइटेड फ्रुट कंपनी’ को उठाना पड़ा, उसके कब्जे से 2,25,000 एकड़ भूमि राष्ट्रपति अर्बांज ने अधिग्रहीत की थी. यही आगे चलकर अमेरिका की नाराजगी और अर्बांज सरकार के पतन का कारण बनी. अर्नेस्टो ग्वाटेमाला के कृषि सुधारों से बेहद प्रभावित हुआ. वहां उसने पूरे नौ महीने प्रवास किया. लेकिन ग्वाटेमाला में सुधार का यह दौर अधिक दिनों तक कायम न रह सका. अमेरिकी सरकार और सीआईए के दबाव में अर्बांज सरकार को सत्ता में बने रहना दिनोंदिन कठिन होता चला गया. देश में गृहयुद्ध जैसे हालात बन चुके थे. सीआईए विद्रोह को हवा दे रहा था. साम्यवादी अर्बांज सरकार की मदद के लिए चेकोस्लोवाकिया ने हथियारों से भरा एक जहाज 15 मई, 1954 को भेजा था. किंतु अर्बांज तक पहुंचने से पहले ही सीआईए को उसकी भनक लग गई. तुरंत अमेरिका के इशारे पर सेना ग्वाटेमाला में घुस आई. उसका नेतृत्व कार्लोस कास्टिलो आम्र्स के हाथों में था. अर्नेस्टो के दिमाग पर तो अमेरिका को सबक सिखाने का जुनून सवार था. उसकी शुरुआत किस देश से, किन लोगों को साथ लेकर हो, यह उसके लिए सर्वथा अर्थहीन था. अर्बांज सरकार की सहायता के लिए वह उसकी सेना में सम्मिलित हो गया. सेना का गठन साम्यवाद-समर्थक युवाओं की ओर से किया गया था. अर्नेस्टो युद्ध में हिस्सा लेने को तत्पर था. लेकिन जून 1954 में अर्बांज ने देश छोड़ने का निर्णय कर मैक्सिको के दूतावास में शरणागत हो गया. उसने अपने विदेशी समर्थकों से भी तत्काल ग्वाटेमाला से निकल जाने का अनुरोध किया. अब अर्नेस्टो के लिए वहां रुके रहना मुश्किल ही था. उसने तत्काल मैक्सिको जाने का निर्णय कर लिया. अर्बांज सरकार के पतन के साथ ही ग्वाटेमाला में सुधारों का एक युग समाप्त हो गया. अर्नेस्टो के लिए ग्वाटेमाला के अनुभव हमेशा यादगार बने रहे. उन दिनों को याद करते हुए उसने आगे चलकर लिखा—
‘मैं अर्जेंटीना में जन्मा, क्यूबा में लड़ा, लेकिन मैं क्रांतिकारी बनूं, इसकी शुरुआत ग्वाटेमाला से हुई.’
मैक्सिको यात्रा के आरंभिक दिन बहुत कष्ट-भरे थे. अर्नेस्टो की जेब एकदम खाली थी. जितना धन वह घर से लेकर निकला था, वह समाप्त हो चुका था. नए देश में उसका न तो कोई परिचित था, न उसके पास कोई काम-धंधा, जिससे वह अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा कर सके. मैक्सिको में उसको अपने पिता के एक दोस्त का सहारा था. उसने अर्नेस्टो को एक कैमरा भेंट किया था. कोई और उपाय न देख अर्नेस्टो ने उसी से अमेरिका से आए सैलानियों की तस्वीरें खींचना आरंभ कर दिया, जिससे उसको कुछ सहारा मिला. मैक्सिको में ही उसकी भेंट पेरू मूल की अर्थशास्त्री हिल्डा जेडा अकोस्टा से हुई, जो कालांतर में प्रेमसंबंध में परिणित हो गई. प्रखर मेधावी हिल्डा के साम्यवादी नेताओं तथा क्रांतिकारी विचारकों से गहरे संबंध थे. अर्नेस्टो उससे सुरक्षित दूरी बनाए रखना चाहता था. तो भी दोनों की नजदीकियां धीरे-धीरे बढ़ती गईं. हिल्डा के माध्यम से ही उसकी भेंट मैक्सिको के साम्यवादी नेताओं और विचारकों से हुई. वहीं पर वह निर्वासित जीवन जी रहे क्यूबा के क्रांतिकारी नेता फिदेल कास्त्रो से मिला. वह मुलाकात दोनों के लिए परिवर्तनकारी सिद्ध हुई. दोनों पूरी रात बात करते रहे. दिन निकलने पर भी उनकी बातों का सिलसिला बना रहा. वह एक युगांतरकारी घटना थी, जिससे नए क्यूबा की तस्वीर गढ़ी जानी थी. फिदेल से अपनी पहली भेंट के पश्चात अर्नेस्टो ने अपनी डायरी में लिखा—
‘मैं जब उससे मिला वह मैक्सिकों की भीषण सर्दं रातों में से एक थी; और मुझे याद है कि हमारी पहली बातचीत विश्व-राजनीति को लेकर हुई थी. कुछ घंटे बाद सोने से पहले मैं अपने भविष्य की दिशा तय कर चुका था. वस्तुतः लातीनी अमेरिका की यात्रा, जिसका समापन ग्वाटेमाला में हुआ, के दौरान हुए अनुभवों के बाद, निरंकुश शासकों के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर मुझे आकर्षित करना कठिन नहीं रहा था. फिदेल ने मुझे असाधारण नेता की भांति प्रभावित किया था. मैं जानता था, उसने कई मुश्किलों का सामना किया है, उनके समाधान भी निकाले हैं….मैं उसके प्रखर आशावाद से प्रभावित में था. युद्ध और युद्ध की योजना को लेकर बहुत कुछ किया जाना बाकी था. सच तो यह है कि बातचीत के लिए चीखना-चिल्लाना भूलकर हम युद्ध के लिए तैयार हो रहे थे….’
मैक्सिको की यात्रा के दौरान अर्नेस्टो को उसका उपनाम मिला—‘चे’, स्पानी मूल के इस शब्द का आशय है—मित्र, भाई, सखा आदि. लातीनी अमेरिकी देशों में व्यक्ति विशेष के प्रति सघन आत्मीयता दर्शाने के लिए भी किया जाता है. अर्जेंटीना स्वयं लातीनी अमेरिकी देश है, किंतु बाकी देश अर्जेंटीना से आए लोगों को भी ‘चे’ का संबोधन करते है. चे ग्वेरा के साथ यह संबोधन इसलिए भी जुड़ा था कि वह अपने संपर्क में आने वाले लोगों को अनौपचारिक भाषा में अक्सर ‘चे’ कहकर बुलाता रहता था. बहरहाल यह संबोधन चे ग्वेरा के साथ सदैव के लिए जुड़ गया. कालांतर में वह इसी से पूरी दुनिया में पहचाना गया. मैक्सिको में उसकी आर्थिक स्थिति लगातार गड़बड़ाती जा रही थी. दूसरी ओर क्रांति के प्रति उसका विश्वास दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था. उसको लग रहा था कि राजदूत एवं राजनेता अमेरिकी साम्राज्यवाद को मतपत्र द्वारा नहीं जीत पाएंगे. उसको केवल बंदूक द्वारा पराजित किया जा सकता है. क्रांति को केवल क्रांति द्वारा ही पराजित किया जा सकता है. इस बीच उसकी मुलाकात निर्वासन की सजा झेल रहे क्यूबा के प्रमुख क्रांतिकारियों से हुई, जिनमें नीको ला॓पेज जैसा क्रांतिधर्मी भी था. ला॓पेज ने अर्नेस्टो को क्यूबा आंदोलन के बारे में काफी जानकारी दी. अर्नेस्टो ग्वाटेमाला की क्रांति को असफल होते देख चुका था, किंतु वह आशा से भरा हुआ था और ग्वाटेमाला के संघर्ष की कमजोरियों से बचना चाहता था. उस समय उसका एक ही उद्देश्य था, अमेरिका के समर्थन पर टिकी निरंकुश सत्ता को उखाड़ फेंकना. लेकिन यह सब उसका दिमागी फितूर ही बना रहता यदि उससे फिदेल कास्त्रो का साथ उसको न मिला होता. इस बीच 18 अगस्त 1955 को उसने हिल्डा जीडिया से विवाह कर लिया.
क्यूबा के लिए संघर्ष
क्यूबा से निर्वासित क्रांतिकारी नेताओं की बड़ी संख्या मैक्सिको में सजा भुगत रही थी. फिदेल ने उन्हीं को संगठित कर क्यूबा के दक्षिणी समुद्र तट की ओर से बतिस्ता सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए व्यूह रचना की. उसकी योजना छापामार युद्ध द्वारा निरंकुश सरकार को उखाड़ फेंकने की थी. अर्नेस्टो अमेरिका समर्थित किसी भी निरंकुश सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए स्वयं को प्रतिबद्ध कर चुका था. इसलिए वह फिदेल के छापामार दल में शामिल हो गया. सैन्य प्रशिक्षण मैक्सिको में आरंभ हुआ. अपनी निष्ठा, चुस्ती-फुर्ती और संकल्प के बल पर अर्नेस्टो प्रशिक्षण के अंत में ‘सर्वश्रेष्ठ गुरिल्ला’ सिद्ध हुआ. उसके सैन्य प्रशिक्षक कर्नल अल्ब्रेटो बाय ने उन दिनों को याद करते हुए कहा था—
‘‘चे ग्वेरा को कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था. उसके सर्वाधिक अंक थे. हर विषय में दस में दस. फिदेल ने जब उसकी अंकतालिका देखी तो मुझसे पूछा—‘ग्वेरा हर बार प्रथम स्थान पर क्यों है?’ ‘उसे होना ही चाहिए, इसलिए कि वह सर्वश्रेष्ठ है. वह ठीक वैसा है, जैसा कि मैं सोचता हूं’—मैंने बताया था. ‘मेरा भी उसके बारे में यही विचार है’—कास्त्रो का उत्तर था.’’
प्रशिक्षण के दिनों ही हिल्डा ने अर्नेस्टो की बेटी को जन्म दिया. 14 जून, 1956 को एक घटना और घटी. फिदेल कास्त्रो तथा उसके दो सहयोगियों को सम्राट बतिस्ता की हत्या के षड्यंत्र में गिरफ्तार कर लिया गया. उसके दस दिन बाद ही अर्नेस्टो भी क्यूबाई सेना के शिकंजे में फंस गया. परंतु आरोप सिद्ध न हो पाने के कारण एक महीने बाद ही फिदेल को रिहा कर दिया गया. अर्नेस्टो को मुक्त करने का खेल चलता रहा. अंततः अगस्त के मध्य में 57 दिन के कारावास के पश्चात उसको भी मुक्ति दे दी गई. इस घटना के बाद अर्नेस्टो का अमेरिका विरोध और भी मुखर हो गया. इरादे कुछ और मजबूत हुए थे. रिहा होने के तुरंत बाद वह कास्त्रो से मिला. दोनों मिलकर क्रांति को नए सिरे से अंजाम देने में जुट गए.
25 नवंबर, 1956 को अर्नेस्टो ने छापामार दस्ते के साथ मैक्सिको के रास्ते क्यूबा पर आक्रमण किया. उसके साथ केवल 82 छापामार योद्धा थे. भीषण युद्ध में अर्नेस्टो के 60 सिपाही मारे गए. यह एक बड़ी पराजय थी, किंतु अर्नेस्टो का हौसला बना रहा. बचे हुए 22 सैनिकों के साथ वह नए सिरे से संगठित होने के प्रयास में जुट गया. सीएरा मिस्ट्रा की पहाड़ियों में वह छापामार लड़ाई की तैयारी करता रहा. मलेरिया, मच्छर, भूख-प्यास से भरे उन दिनों को उसने ‘युद्ध के सबसे दर्दनाक दिन’ के रूप में याद किया है. उन दिनों वह एक छापामार सैनिक अथवा सैन्यदल का नेता मात्र नहीं था. हथियारों की कमी को पूरा करने के लिए उसने ग्रेनेड बनाने के कारखाने लगाए. अपने संघर्ष से जनसाधारण को परचाने के लिए उसने लोगों को पढ़ाना आरंभ किया. सैनिक अपवाह का शिकार न हों, इसके लिए वह नियमित रूप से समाचारपत्र पढ़ता और पढ़वाता. स्थानीय किसानों को साम्राज्यवादी अमेरिका के मंसूबों तथा उसकी शोषणकारी नीतियों के बारे में समझाता. कास्त्रो का दिमाग आमने-सामने की लड़ाई में दुश्मन को मात देने के लिए बना था. उसका संगठन-सामथ्र्य चामत्कारिक था. लेकिन जमीनी स्तर पर युद्ध की तैयारी करना, अपने विचारों और संघर्ष के लिए जनता की सहानुभूति बटोरने का काम अर्नेस्टो का था. असल में वह कलम और बंदूक दोनों का सिपाही था. यही कारण था जिससे उसके अभियान को स्थानीय जनता का सहयोग मिलता था. ‘टाइम पत्रिका’ ने उसको ‘कास्त्रो का दिमाग’ कहा है. वह अति की सीमा तक अनुशासनप्रिय था. अपनी सैन्य टुकड़ी को एकजुट और सुरक्षित रखने के लिए वह कुछ भी कर सकता था. युद्ध के दौरान पीठ दिखाना उसको नापसंद था. उसकी सेना में—
‘भगोड़ों को विश्वासघाती माना जाता था. बिना पूर्वसूचना के अवकाश पर जाने, युद्धक्षेत्र में पीठ दिखाने वाले सैनिकों को मृत्युदंड देने के लिए चे उनके पीछे सैनिक छोड़ देता था.’
अर्नेस्टो का मानना था कि भगोड़े सैनिक दुश्मन के हाथों में पड़कर संगठन के बारे में आवश्यक जानकारियां उन्हें दे सकते हैं. इससे क्रांति का लक्ष्य पीछे खिसक सकता है. ऐसे सैनिकों को वह स्वयं भी दंडित कर सकता था. यूटीमियो ग्वेरा इसका सटीक उदाहरण था, जिसने कास्त्रो से बदला लेने की मंशा से निकले एक सुरक्षाकर्मी का नेतृत्व किया था. यूटीमियो को क्यूबा की राष्ट्रवादी सेना ने गिरफ्तार कर लिया था. बाद में उसको इस शर्त पर छोड़ दिया गया था कि वह कास्त्रो के ठिकानों के बारे में सूचना देगा. यूटीमियो ने जो सूचना क्यूबा सरकार को भेजी उसके आधार पर क्यूबा सैनिकों ने विद्रोहियों के ठिकाने पर हमला बोल दिया. उसमें चे के अनेक क्रांतिकारी सैनिक मारे गए. जब यूटोमियो के विश्वासघात की सूचना चे तक पहुंची तो वह चुप हो गया. उसका क्या किया जाए इसका समाधान सिर्फ चे के दिमाग में था. यूटोमियो को मृत्युदंड दिया गया. बहुत दिन तक रहस्य बना रहा कि उसको गोली किसने मारी थी. चे की निजी डायरी में उसका उल्लेख मिलता है. यूटोमियो के साथ जो हुआ उससे चे की अनुशासनप्रियता तथा सख्त गुरिल्ला योद्धा की छवि का पता चलता है. चे ने लिखा है कि—
‘यूटीमियो के साथ-साथ बाकी सब लोग परेशान थे. इसलिए मैंने समस्या को ही खत्म कर करना उचित समझा. मैंने अपनी 0.32 बोर की केलीबर पिस्तौल निकाली तथा उसके मस्तिष्क के दाहिनी ओर से गोली दाग दी. क्षण-भर में गोली खोपड़ी के पार निकल गई. वह कुछ पल तड़फा और मर गया….’
फरवरी 1957 अर्नेस्टो के लिए बहुत कष्टकारी सिद्ध हुआ. उस दिन उसका दमा उखड़ा हुआ था. सांस लेने में भी भारी तकलीफ हो रही थी. वह अपने साथियों के साथ घात लगाए बैठा था. तभी जबरदस्त धमाका सुनाई पड़ा. सनसनाती हुई गोलियां हवा को चीरने लगीं. मौत मैदान में नाचने लगी. अर्नेस्टो समझ गया, क्यूबा के सैनिक उसकी खोज में भटक रहे थे. विद्रोही सैनिकों के लिए वहां टिके रहना कठिन हो गया तो वे चाॅकलेट और दूध के पाउडर को उठाकर वहां से आगे बढ़ गए. लेकिन अर्नेस्टो की हालत आगे बढ़ने की न थी. उसको लगातार उल्टियां हो रही थीं. ऊपर से उसकी दवाइयां भी समाप्त हो चुकी थीं. अंततः एक स्थानीय किसान को दवा का इंतजाम करने के लिए भेजा गया. क्यूबा के सैनिक चप्पे-चप्पे पर छाए हुए थे. दवा लेने गया किसान दो दिन बाद लौटा, केवल एक खुराक दवा के साथ. इस अवधि में अर्नेस्टो केवल अपनी इच्छाशक्ति के बल पर बीमारी से जूझता हुआ, स्वयं को क्यूबाई सैनिकों से बचाता रहा. उधर क्यूबा का तानाशाह सम्राट कास्त्रो के मारे जाने और विद्रोह के कुचले जाने का ऐलान कर रहा था. ऐसे में ‘टाइम मैग्जीन’ ने फिदेल कास्त्रो के जीवित होने तथा उसको स्थानीय लोगों के समर्थन की खबर दी. फलस्वरूप दुनिया-भर के पत्रकार कास्त्रो का साक्षात्कार लेने, उसका समाचार प्रकाशित करने के लिए उमड़ पड़े. कास्त्रो और अर्नेस्टो रातो-रात ‘हीरो’ बन गए. सम्राट बतिस्ता के उत्पीड़न और भ्रष्टाचार से दुखी लोग परिवर्तन की आस करने लगे. यह विद्रोहियों की नैतिक विजय थी, जिसने क्रांति को हवा देने का काम किया. युद्ध का अगला मोर्चा उवेरो में बना. उसमें चे ने कमांडर के रूप में विद्रोहियों का नेतृत्व किया था. उस मोर्चे पर 80 विपल्वी 53 क्यूबाई सैनिकों के सामने थे. उस युद्ध में विद्रोही दुश्मन सेना पर भारी पड़े. लड़ाई में क्यूबा सेना के 14 सैनिक मारे गए, 19 हताहत हुए तथा 14 को कैद कर लिया गया. विद्रोही सैनिकों में से मात्र 6 हताहत हुए थे. उस युद्ध में चे की भूमिका की प्रशंसा करते हुए हैरी नाम के एक ग्रामीण ने कहा था—
‘वह एकमात्र सैनिक था जो लड़ाई में हमेशा आगे रहता था. वह दूसरों के लिए एक मिसाल था. उसने यह कभी नहीं कहा कि जाओ और जाकर लड़ो. बल्कि हमेशा यही कहता था, लड़ाई में मेरा पीछा करो.’
युद्ध समाप्त होने के साथ ही चे का सैनिक शांत होकर उसके भीतर सिमट जाता था. उसके तुरंत बाद उसका डाॅक्टर सक्रिय हो जाता. वह तन-मन से घायलों की सेवा-सुश्रुषा में जुट जाता. उवेरो में मिली विजय से क्यूबा का एक भू-भाग विद्रोही सैनिकों के कब्जे में आ चुका था. उस सफलता पर प्रसन्न होकर कास्त्रो ने चे को कमांडेट का पद सौंपा था. छापामार सेना का एकमात्र कमांडर स्वयं कास्त्रो था. अपनी सफलता पर खुश होने, जीत का जश्न मनाने के बजाय चे ने युद्ध के अन्य मोर्चों पर काम करना आरंभ कर दिया. बिना जनसमर्थन के क्रांति संभव नहीं, यह सोचकर चे ने समाचारपत्र निकालने की योजना बनाई. पत्र के माध्यम से उसका दूसरा लक्ष्य बतिस्ता सरकार की कारगुजारियों को दुनिया के सामने लाना था. अंततः क्यूबा से ही ‘अल क्यूबानो लिब्रे’ नामक समाचारपत्र का प्रकाशन आरंभ किया गया. उसी वर्ष विद्रोही सेना की ओर से एक रेडियो स्टेशन की स्थापना भी की गई. उसमें भी चे की प्रमुख भूमिका थी. क्यूबा में क्रांति की सफलता में रेडियो स्टेशन की बड़ी भूमिका रही.
लास मर्सिडिस की लड़ाई क्यूबा क्रांति का निर्णायक मोड़ बनी. 29 जुलाई से 8 अगस्त, 1958 तक चली इस लड़ाई में बतिस्ता सरकार की योजना विद्रोहियों को एक ही झटके में समाप्त कर देने की थी. कास्त्रो के छापामार सैनिकों को जाल में फंसाने के लिए क्यूबाई सेनापति ने एक चाल चली थी. जिस स्थान पर छापामार सैनिक जमा थे, उसको 1500 सैनिकों ने चारों ओर घेर लिया, लेकिन चे को उसकी भनक लग गई. वह क्यूबाई सेनापति को मुंहतोड़ जवाब देने की तैयारी करने लगा. इस बीच सेनापति केंटिलो की ओर से उसको समर्पण का संदेश मिला. चे ने विचार करने के लिए समय मांगा और युद्धविराम का प्रस्ताव रखा. इसको विद्रोही सैनिकों की हताशा मानते हुए केंटिलो ने उसको स्वीकार कर लिया. उधर युद्धविराम की अवधि का फायदा उठाते हुए विद्रोही सैनिक पहाड़ियों में समा गए. एक प्रकार से वह केंटिलो की सेना की विजय ही थी, जो उसने बिना सैनिकों का खून बहाए प्राप्त की थी. लेकिन सम्राट बतिस्ता ने इसका दूसरा ही अर्थ लिया. उसको अपने सेनापतियों की निष्ठा पर ही संदेह होने लगा. इसका प्रतिकूल प्रभाव सैनिकों के मनोबल पर पड़ा. कास्त्रो को ऐसे ही अवसर की प्रतिक्षा थी. उसने छापामार सैनिकों के साथ आक्रमण कर दिया. चे को सांता क्लारा को कब्जाने की जिम्मेदारी सौंपी गई. वह क्यूबा का चैथा सबसे बड़ा शहर था. लेकिन वहां बतिस्ता सरकार ने अपनी पूरी सैनिक ताकत झोंकी हुई थी. छह सप्ताह तक चारों ओर से दुश्मन सेनाओं से घिरा चे युद्ध करता रहा. कई बार लगा हार सुनिश्चित है. उसे बचाने के लिए चे ने बड़े ही कौशल से अपने छापामार सैनिकों का नेतृत्व किया. आखिर जीत उसके पक्ष में रही. 28 दिसंबर 1958 को चे ने अपने सैनिकों के साथ कैबीरियन तट से कमाजौनी तक विजय मार्च किया. स्थानीय जनता, विशेषकर किसान उसके सैनिकों का हर्षातिरेक के साथ स्वागत कर रहे थे. चे कितना कुशल सेनापति था, इसका संकेत उसकी डायरी में लिखे एक घटनाक्रम से मिलता है— सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार , दस्तावेजी प्रेस छायाकार