Friday, October 18, 2024
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ईश्वर चंद्र विद्या सागर सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध जिंदगी भर आवाज उठाते रहे

अनोखा व्यक्तित्व

ईश्वरचंद्रविद्यासागरऔर_मैकाले

(ईश्वरचंद्र विद्यासागर कै जन्मदिन पर विशेष)

पिछले बरस इन्हीं दिनों चुनाव के आखिरी दौर से गुजर रहे प.बंगाल में ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मूर्ति की तोड़-फोड़ के साथ सियासत तो गर्मा ही गई थी, उसी के साथ ही जिस तरह ईश्वर चंद्र विद्यासागर के चरित्रहनन का अभियान भी शुरू हो गया था, वह संघ-भाजपा की कार्यशैली के सशक्त हस्ताक्षर होने की गवाही देता है ! एक कामयाब अस्त्र की तरह इसका इसका इस्तेमाल किया जाता रहा है ! नेहरू तो आज तक उसी का शिकार बने हुए हैं ! जीवित लोगों के खिलाफ तो होता ही इसका इस्तेमाल, अपना मतलब साधने के लिए वे मृतकों के खिलाफ भी इस्तेमाल करने से बाज नहीं आते जो आत्मरक्षा में कुछ कह भी नहीं पाते !

विद्यासागर भी उसी का शिकार बनाए गए ! अनायास ही नहीं है कि भाजपा के रोड़ शो में हंगामे और तोड़-फोड़ के बाद विद्यासागर रातों-रात सबसे बड़ा मुद्दा बन गए । चुनाव आयोग की तत्परता भी देखने लायक रही है। फौरन कार्रवाई करते हुए उसने गुरुवार को ही रात दस बजे के बाद पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार अभियान ख़त्म करने का फ़ैसला कर लिया । 21 दंगाइयों की गिरफ्तारी के बावजूद, उसने एडीजी पुलिस और प्रधान सचिव को भी पद से हटा दिया गया।

मेरे एक पत्रकार मित्र दीपक शर्मा अटल ने किसी सज्जन की पोस्ट को शेयर करते हुए हमें भी टैग किया था। पोस्ट में उस सज्जन ने विद्यासागर को एक कायस्थ के रूप में उकेरते हुए कहा था कि सतीप्रथा तो उनकी जाति विशेष (कायस्थ) की समस्या थी, देश की नहीं । हद हो गई भैया‌ यह तो भांग का गोला खा कर पत्रकारिता करने की ! जिस सतीप्रथा के निशान भारत के लगभग हर गांव कस्बे में आज भी मौजूद है, वह सतीप्रथा केवल बंगाली कायस्थों की समस्या ? कितनी ही कुलदेवियों के रूप में आज भी उनकी पूजा अर्चना होती है !
इस पर तो कोई टिप्पणी करते भी अजीब लगता है ! फिर भी
एक कड़ी टिप्पणी तो हमने कर ही दी थी उस पर। आजकल टीवी के खबरी चैनल कम ही देखता हूं, इसलिए टिप्पणी के समय तक बंगाल की खबरों से भी अनजान था। जानकारी मिलते ही समस्या के कई आयाम खुद ही साफ होते गए !

समाज सुधारक, शिक्षा शास्त्री और स्वाधीनता सेनानी के तौर पर मशहूर ईश्वर चंद्र ने 1839 में कानून की पढ़ाई पूरी की और सिर्फ 21 साल की कम उम्र में ही 1841 में अंग्रेज़ी शिक्षा नीति की सबसे बड़ी और पहली प्रयोगशाला, कलकत्ता के फॉर्ट विलियम कॉलेज में संस्कृत विभाग के प्रमुख के तौर पर काम करना आरंभ किया था ! स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने के साथ उन्होंने सती प्रथा के ख़िलाफ़ और विधवा विवाह के समर्थन में भी आवाज़ उठाई।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे लोगों की तरह ही सोच के नए क्षितिज खोल कर वास्तव में भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान और आजादी की भूमिका तैयार करने वाला व्यक्ति था अक्सर गरियाया जाने वाला लार्ड मैकाले जो 1834 से 1838 तक वह भारत की सुप्रीम काउंसिल में लॉ मेंबर तथा लॉ कमिशन का प्रधान रहा। किंचित संशोधन के साथ लगभग मूल रूप में आज तक चले आ रहे “द इंडियन पीनल कोड” की पांडुलिपि भी इसी व्यक्ति ने तैयार की थी। अंग्रेजी को भारत की सरकारी भाषा तथा शिक्षा का माध्यम और यूरोपीय साहित्य, दर्शन तथा विज्ञान को भारतीय शिक्षा का लक्ष्य बनाने में इसका बहुत बड़ा हाथ था। #ओशो ने तो मैकाले को ‘देश की आजादी का पिता’ तक कह डाला है !

बात कुछ गले से नहीं उतरी न !! उतर भी नहीं सकती क्योंकि पाठ्यपुस्तकों में हमने जो पढ़ा है, अध्यापकों ने हमें जो पढ़ाया है, (आज भी पढ़ा रहे हैं) विद्वानों को शिक्षा पर चर्चा करते हुए जो सुना है, उसने हमारे दिमाग को एक खास ढांचे में फिट जो कर दिया है !! उस ढांचे से बाहर निकल कर हम सोच ही नहीं सकते ! लेकिन इस एक व्यक्ति के प्रयासों से चालू हुई अंग्रेज़ी शिक्षा के चलते एक पूरी पीढ़ी की सोच में क्रांतिकारी बदलाव आ गया! ईश्वरचंद्र विद्यासागर उसी की पहली फसल है जिसे खा कर जाने कितने लोगों के जीवन की दशा और दिशा बदल गई!

हमारी पारंपरिक शिक्षा पद्धति ने तो हमें वर्ण और जाति के बंधनों से कभी बाहर निकलने ही नहीं दिया ! आज भी हम उससे बाहर नहीं निकल पाए हैं ! फिर भी सोच के इस इस बदलाव की जननी थी अंग्रेज़ी शिक्षा और इस अंग्रेज़ी शिक्षा की बुनियाद रखने वाला था आज भी गरियाया जाने वाला यही मैकाले ! खाते पीते घरों के पढ़े लिखे तबके की सोच में यह बदलाव पंडित-पुरोहितों, वेद और उपनिषदों के ज्ञाताओं के चलते मुगलकाल के दौरान भी नहीं आया था। इसलिए हमारे पारंपरिक हिंदू को (आज इतनी नफरत के बावजूद) उससे कोई खतरा था ही नहीं ! हमारे सामाजिक ताने-बाने के साथ उसने कोई छेड़छाड़ जो नहीं की थी, इसलिए उसके खिलाफ कभी विद्रोह भी नहीं हुआ ! यह बदलाव तो उन लोगों के चलते आया जो पश्चिम से शिक्षा लेकर लौटे थे, जो वहां की आजाद हवा में खुल कर सांस ले कर लौटे थे और जिन्हें यहां के परिवेश में घुटन सी महसूस होने लगी थी !

नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने लिखा है कि ‘जब मैं पहली दफा यूरोप पहुंचा और एक अंग्रेज चमार ने मेरे जूतों पर पालिश किया तो मेरे आनंद का ठिकाना न रहा।’ शूमेकर होना वहां कोई शर्म की बात नहीं रही। आज भी दुनिया का नंबर वन मोटर रेस का जांबाज खिलाड़ी है ! इसलिए ऐसा अनुभव पा कर लौटे व्यक्ति से यह उम्मीद तो की नहीं जा सकती वह अंग्रेजों की बूट पालिश करेगा। हजारों साल से परेशान चले आ रहे थे शुद्र इस देश के विधि-विधान में, फिर भी चुपचाप सहन किए जा रहे थे वे क्योंकि अनपढ़ थे! कोई चूं तक भी नहीं कर पा रहा था ऐसी व्यवस्था के खिलाफ ! लेकिन जैसे ही डॉ.अांबेडकर जैसे व्यक्ति ने इंग्लैंड की मुक्त हवा में सांस ली वैसे ही उन लोगों में बगावत की आग सुलगने लगी !

मुगल शासकों ने तो यहां के सामाजिक ताने-बाने में कोई भी दखलअंदाजी की ही नहीं थी इसलिए इस व्यवस्था की जनक ब्राह्मणी सोच को उनसे कभी कोई परेशानी नहीं हुई। उनका वर्चस्व तो पहले की तरह ही बना हुआ था। ‘अपने अपने देश’ के लिए मुगलों से लडने वाले राजे-रजवाडों को छोड़ दें तो अंग्रेजों के खिलाफ कोई सामूहिक प्रयास कभी हुआ ही नहीं ! यहां तक कि आरंभ में ब्राह्मण तो बढ़ चढ़ कर ‘कंपनी बहादुर’ की गौरांग सेना में भरती भी होते रहे !

लेकिन अंग्रेज तो एक अलग किस्म के परिवेश में पले बढ़े थे। उनके लिए छुआछात, सतीप्रथा, शिक्षा पर कुछ तबकों का एकाधिकार आदि असभ्यता का प्रदर्शन था। इसलिए ऐसी तमाम कुरीतियों को कानून खत्म करने का दौर शुरू हुआ जो दकियानुसी ब्राह्मणी सोच के समर्थकों को नागवार गुज़रा और यही कारण था कि 1857 में उन्होंने अंग्रेज़ी गुलामी से आजाद होने (दरअसल अपनी ‘संस्कृति’ को अंग्रेजों की ‘कुत्सित पहलकदमियों’ से बचाने) का एक गंभीर प्रयास किया था और इसी प्रयास का परिणाम थी अंग्रेजों को मिल कर उखाड़ फैंकने की असफल कोशिश !

दुनिया के सभी मुस्लिम देशों में ईरान ही एकमात्र ऐसा देश है जहां शिक्षा का व्यापक विस्तार हुआ है। सभी मुस्लिम देशों में समृद्ध और शिक्षित मुल्क है ईरान ! शिक्षित लोगों को तो राजशाही सुहाती नहीं, इसलिए ऐसे देशों में अक्सर तख्ता पलट हो जाता है। ईरान में भी वही हुआ। वह शिक्षित देश है, स्वतंत्र सोच रखता है इसीलिए वह अमरीका की आंख में भी खटकता रहता है। बिना बात हाल ही में लगे कच्चे तेल के निर्यात पर प्रतिबंध भी उसकी इसी हैंकड़ी का परिणाम हैं! इनका नतीजा न केवल ईरान बल्कि रीढ़हीन नेतृत्व के चलते हमें भी भुगतने पड़ रहे हैं। लेकिन दूसरे किसी मुसलमान देश में कोई बगावत नहीं होती क्योंकि लोग इतने गरीब हैं, इतने अशिक्षित हैं कि वे सोच भी नहीं सकते कि उनके हाथ में देश की बागडोर भी आ सकती है ! दुनिया के सबसे बड़े चौधरी अमरीका को ‘आंख के अंधे,गांठ के पूरे’ देश वाली यह स्थिति बहुत रास आती है, तभी तो साऊदी सामरिक भागीदार है अमरीका का, इजरायल के साथ बनी एक रणनीतिक धुरी में वह भी शामिल है !

ओशो के शब्दों में, ‘ब्राह्मणों ने मैकाले को इसलिए बदनाम किया क्योंकि मैकाले की शिक्षा पद्धति ने हजारों सालों से चली आ रही उनकी ब्राह्मणी शिक्षा पद्धति को ठेस पहुंचाई। मैकाले ने पहली बार दलितों, आदिवासियों के लिए शिक्षा के द्वार खोल दिये। ब्राह्मण तो यह चाहते ही नहीं, इसलिए आज भी मैकाले की शिक्षा पद्धति को कोसना सीखा रहे हैं।’ लेखक- विचारक और छायाकार सुनील कुमार दत्त

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