Monday, December 23, 2024
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आजादी के लिए संघर्ष का शुरूवाती बिगुल फूंकने वाले -भाग-2(1757-1857)

भारत आजादी के लिए संघर्ष का शुरूआती बिगुल फूँकने वाले : भाग दो
— 1757 – 1857 —

सिराज – उद – दौला : उपनिवेशवाद को चुनौती देने वाला पहला शासक

1757 में अंग्रेजो को चुनौती देने वाला बंगाल का नवाब सिराज – उद – दौला देश का पहला शासक था जिसने अंग्रेजी शासन के विस्तार में निहित खतरे को महसूस किया और उसे शुरुआत से ही रोकने की कोशिश की | अंग्रेजो के द्वारा कलकत्ता की अतिरिक्त किलेबंदी ने ”नवाब के कोप को भड़काया ”|
उसने कलकत्ता की ओर कूच किया और 20 जून 1756 को फोर्ट विलियम पर कब्जा कर लिया | लेकिन अपने विश्वासघाती सेनापति मीर जाफर और बैंकर जगत सेठ के नेतृत्व में धनवान व्यापारियों के समूह द्वारा वह प्लासी के युद्ध में पराजित हुआ | फिर भी , सिराज – उद – दौला का नाम इतिहास के दस्तावेजो में ऐसे पहले शासक के रूप में दर्ज है , जिसने अंग्रेजो के विस्तारवादी मंसूबो को चुनौती दी | प्लासी के युद्ध के बाद नवाब मीर कासिम अंग्रेजो के खिलाफ वीरतापूर्ण लड़ा और बक्सर में 1764 में पराजित हुआ | इन लड़ाइयो में सफलता के चलते ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बंगाल , बिहार और उड़ीसा राज्यों को अपने कब्जे में ले लिया |

टीपू सुलतान : एक आदर्श उपनिवेशवाद विरोधी

मैसूर के काफी बड़े भूभाग के मुस्लिम शासक हैदर अली और उसके बेटे टीपू सुल्तान के साथ 18 वी सदी की लड़ाई में अंग्रेजो को अपनी ढेर सारी ताकत झोंकनी पड़ी | टीपू सुल्तान नवम्बर 1750 – 4 मई 1799 ने प्रभावी तरीके से देशी शासको को अंग्रेजी के साम्राज्यवादी मंसूबो के बारे में आगाह किया | वह चाहता था कि देशी शासक अपनी विनाशकारी अंदरूनी लड़ाइयो को त्याग दें और इसके बजाए ब्रिटिश उपनिवेशवाद के हमले से अपने देश की रक्षा करने के लिए एक जुट हो जाए | उसने अपने पिता हैदर अली द्वारा विदेशी शासको के खिलाफ शुरू किये गये संघर्ष को जारी रखा | उसने उपनिवेशवादी शासको की असलियत और देश को हडप लेने की उनकी सुनियोजित योजनाओं को स्पष्ट करते हुए देशी शासको को पत्र लिखे | दो मोर्चो , एक देशी देशद्रोहियों और दूसरे उपनिवेशवादी सत्ता के खिलाफ संघर्ष करते हुए 4 मई 1799 को टीपू सुल्तान शहीद हो गया | वह इस देश से सच्चा प्यार करता था और उसने राष्ट्रीय आजादी के ध्येय को हासिल करने के लिए शहादत दी | यह आखरी घटना थी जिसमे भारतीय बादशाह ने समय की धार को शक्तिशाली अंग्रेजो के खिलाफ मोड़ दिया था | मैसूर की चौथी लड़ाई के मैदान में टीपू के वीरगति प्राप्त करने के बाद अंग्रेज सेनापति आर्थर वेल्सले का कथन था : ”अगर देशी शासको ने टीपू सुल्तान को पूरा सहयोग दिया होता तो हम शासक के रूप में बने नही रह पाते ”|
( होलम्स, प्रोफेसर रिचर्ड बेलिग़टन ( 2002 ) ; दि आयरन ड्यूक , लन्दन : प्रकाशक . हापर्र एंड कोलिस
ब्रिटिश संसद ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की टिकाऊ नीव रखने के लिए वेल्सले की सराहना की थी |
यह टीपू के प्रतिरोध और अंतरदृष्टि की महत्ता को दर्शाता है | केवल टीपू की मृत्यु के बाद ही ब्रिटिश सैन्य अधिकारी , जनरल हैरिस यह घोषणा कर सका कि अब से भारत हमारा है | टीपू सुल्तान की मौत के बाद आधी सदी तक ऐसा दूसरा कोई भी नायक नही था जिसने अंग्रेजो को चुनौती दी हो “”|
टीपू भारत के सर्वाधिक शौर्यवान और प्रबुद्ध शासको में से एक था | अपनी मातृभूमि से ब्रिटिश घुसपैठियों को खदेड़ना उसकी एक मात्र चाहत थी | हालाकि ”टीपू सुल्तान साम्राज्यवादियों की स्मृति में कुख्यात खलनायक के रूप में बना रहा .. लेकिन अपने समय के पैमाने पर वह आधुनिकता और प्रगति की अपनी खोज में नेपोलियन था | वह अपनी हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही प्रजा में लोकप्रिय था और राष्ट्रवादियो की बाद की पीढियों के लिए नायक था “| उन्नीसवी सदी में जब साम्राज्य ने इसाई इजीलवाद ( ईसा चरित ) को समर्थन देना शुरू किया तो भारत में अंग्रेजो के खिलाफ इस्लामी प्रतिरोध अपने चरम पर पहुँच गया |इसके बाद मुल्ला या इस्लामी आदिवासियों को अंग्रेजो के खिलाफ फिर से ताकत जुटाने में मुश्किल से साल भर लगा होगा |

वेल्लूर में उभार —

जुलाई 1806 में , वेल्लूर स्थित अंग्रेजो की गढ़ी में मुस्लिम सिपाहियों ने जबरदस्त बगावत कर दी | नए नियमो के तहत सिपाहियों को ”चुस्त – दुरुस्त ” बनने , बालियाँ पहनना बंद करने , दाढ़ी मुड्वाने और नयी तरह की पगड़ी ”जो कि हैट से काफी कुछ मिलती जुलती थी ‘ को धारण करने का आदेश दिया गया | सिपाहियों को भय था कि अगर उन्होंने हैट पहनने के अंग्रेजो के रिवाज को अपनाया तो जल्दी ही उन्हें मुस्लिम से जबरन ईसाई बना दिया जाएगा | ‘ इसके बाद हमे दूर देश से आये काफिर अंग्रेजो के साथ खाने – पीने , विवाह में अपनी बेटियों को देने , उनके साथ एकाकार होने और उनके धर्म को अपनाने के लिए अभिशप्त होना पडेगा ‘|
जब मद्रास पैदल सेना की एक कम्पनी ने मई 1806 में नयी पगड़ी धारण करने से इन्कार कर दिया तो उन्हें गिरफ्तार करके मुकदमे के लिए मद्रास भेज दिया गया | उनके दो नेताओं को नियम विरुद्ध आचरण करने का दोषी पाया गया और उन्हें नौ सौ कोड़ो की सजा दी गयी | शेष सिपाहियों ने मन में गुस्सा पाले रखा और अपने अपमान का बदला लेने की योजना बनाई | दो महीने बाद 10 जुलाई को सुबह 3.00 बजे सिपाहियों की समूची सेना ने बगावत कर दी और सौ यूरोपीय सैनिको और दर्जन भर अंग्रेज अधिकारियों को मार डाला | विद्रोहियों ने टीपू के एक बेटे को नया सुल्तान घोषित किया और थोड़े समय के लिए मैसूर के झंडे को किले की दीवारों पर लहराया गया | अंग्रेजो ने जल्दी ही बगावत का दमन करने के लिए अतिरिक्त सेना मँगवा लिया |
आगे दो दशक बाद 1828 में इसी प्रकार का टकराव हुआ | ‘निजाम के घोड़े ” के रूप में प्रसिद्ध इकाई के एक सरगर्म अंग्रेज लेफ्टीनेंट ने अपने मुस्लिम सिपाहियों को अपनी दाढ़ियाँ मुड्वाने का आदेश देकर वेल्लूर की गलती दोहराई | अपनी दाढ़ियों को सिर्फ छोटा करने का उनका समझौता लेफ्टिनेट के लिए काफी न था | उसने दो लोगो को परेड के समय जबरन सर झुकाकर दाढ़ी बनाने का आदेश दिया | सिपाहियों ने बगावत कर दी , वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारी को गोली मार दी और मस्जिद में जाकर छिप गये | लेफ्टिनेंट ने उनके छिपने के स्थान पर धावा बोला और वहाँ शरण लिए हुए सभी लोगो की हत्या कर दी “|
”वेल्लूर और निजाम के घोड़े ‘ का उभार आधी सदी बाद में चलकर 1857 में भारतीय विद्रोह के लिए रिहर्सल बना | 10 मैं 1857 को समस्त समुदायों ने साथ मिलकर समूचे उप – महाद्दीप में बगावत की | इस तरह , जिसकी शुरुआत बंगाल सेना की बगावत के रूप में हुई थी , वह शीघ्र ही अंग्रेजो को खदेड़ने के लिए समूचे भारत में आम जनता के विद्रोह में बदल गया |

प्रस्तुती — सुनील दत्ता – स्वतंत्र पत्रकार – समीक्षक

पुस्तक – स्वाधीनता संग्राम में मुस्लिम भागीदारी

लेखक – डा पृथ्वी राज कालिया – अनुवाद – कामता प्रसाद

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