संस्मरण
अतीत के झरोखो में – आजमगढ़ – vol -1
कल बड़े भाई साहब के घाट कार्यक्रम के अवसर पर गौरीशंकर घाट जाना हुआ , वो घाट मेरे लिए स्मृतियों का पन्ना है , वहाँ पर पीपल की छाँव के नीचे बैठकर पंडित जी द्वारा वैदिक कार्यो को देखता रहा और स्मृतियों में खो गया , मैं अक्सर डा शान्ति स्वरूप जी से मिलने जाता रहता था कला के क्षेत्र में नई जानकारियाँ लेने के सन्दर्भ में एक बार मैंने उनसे पूछा कुछ इस शहर के बारे में बताये तो उन्होंने चर्चा के दौरान बताया कि एक बार मेरे मारीशस के चित्रकार मित्र ‘ तुलसी ‘ जी मेरे पास आये वे लैंड स्केप के एक सफल चित्रकार थे वे किला का दृश्य बनाना चाहते थे लेकिन उन्हें किले का चित्र बनाने की अनुमति नही मिली मगर किला घुमने की इजाजत मिल गयी | चर्चा आगे बढती है वे बताते है कि राजा आजमशाह ने अपने दोनों सेनापतियो को अपनी छत्रछाया में ही बसाया था | आज उन मुहल्लों का नाम बाज बहादुर एवं जालंधरी है | किले के अगल बगल को कोट मुहल्ला कहा जाने लगा बाद में यह भी एक मुहल्ले में परिवर्तित हो गया | किला बन जाने और जागीर का मुख्यालय बनने के बाद स्वाभाविक था कि यहाँ बस्ती फिर बाजार बसने थे | आजमशाह ने किला के सामने के पुल का विचार त्याग दिया लेकिन पश्चिम तरफ एक बड़ी मस्जिद और उसके बगल में घाट सहृदयता से बनवाया | मस्जिद शाही मस्जिद कही जाती थी , बाद में इसे दलालघाट की मस्जिद कहा जाने लगा | घाट के किनारे शंकर जी का मंदिर बनवाया गया और पुरोहित गौरीशंकर पाण्डेय के नाम पर इसे गौरीशंकर घाट कहा जाने लगा | सीताराम सेठ किला निर्माण के दौरान राशन की सप्लाई करते थे बाद में उनकी सेवाओं को देखते हुए राजकर्मचारी का दर्जा दिया गया वहाँ वे भंडार अधिकारी जीवन पर्यंत बने रहे | उन्ही की कृषि भूमि और निवास के आधार पर यह बाद में मुहल्ला सीताराम हुआ , जो आज भी है | मुंशी अन्नत प्रसाद मुल्त: फतेहपुर के कायस्थ थे , उनके पुरखे यहाँ मुंशीगिरी में आये थे | वे राज के खर्चा का लेखा जोखा रखते थे , उन्हें अनन्तपुरा मुहल्ले में निवास के साथ जमीन दी गयी थी | राजा के सलाहकार गुरु पंडित बलदेव मिश्र को गुरुटोला में निवास हेतु भूमि दी गयी थी | गुरुघाट और वहाँ के मंदिर जो अजमतशाह के समय में बने उनके लिए बनवाये गये थे |पंडित दयाशंकर मिश्र ने कुछ पुराने लोगो के आधार पर पता लगाया था और भौगोलिक पर्यवेक्षण से भी कुछ तथ्य सामने आई कि तीन चार सौ वर्ष पहले तमसा का घाट पश्चिम में बिहारी जी के मदिर तक था | गौरीशंकर घाट के शिव मंदिर के पुजारी शुरू से ही गिरी लोगो के हाथो में रहा | मच्छरहट्टा के पास शिव कुमार गिरी के घर तक तमसा बहती थी | सारा कालीनगंज एलवल जलमय था वेस्ली स्कुल आज भी उंचाई पर है , तब भी उंचाई पर था ; उससे पश्चिम ही बस्ती थी , बाद में नदी पूरब को गहरी होती गयी और ये जमीन रिहाइशी हो गयी | मुख्य बस्ती बदरका से मातबरगंज तक थी | बीच में बच्छराज खत्री एक बड़े व्यापारी थे उन्होंने कई पक्के कुंए खुदवाए और सदाव्रत चलाते थे | इस आधार पर इस मुहल्ले को सदावर्ती कहा गया उन्होने बाजार बसाने की दृष्टि से व्यापारियों को सुविधाओं का एलान किया फलत: पश्चिम से बहुत मारवाड़ी और अग्रवाल लोग यहाँ आकर अपना व्यापार करने लगे | मिश्र जी के अनुसार ये लोग दूकान नही बल्कि खेती का व्यापर करते थे | आजमशाह के ही समय में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के रहने तथा भरण पोषण के लिए उत्तरी हिस्से में जमीन दी गयी उस समय के प्रचलन के अनुसार वे ”गुलाम ” कहे जाते थे और उनके गाँव को गुलामी का पूरा नाम दिया गया | राजा आजमशाह एक आदर्श राजा थे विचार उदार तथा हृदय विशाल उनके समन्वयवादी स्वभाव के नाते हिन्दू – मुसलमान सभी उन्हें अपूर्व आदर करते थे | वे सचमुच प्राचीन राजाओं की तरह पूज्यनीय थे | वे कानून सुरक्षा एवं न्याय के पर्याय थे | यदि कोई विवाद होता तो स्वंय त्वरीत फैसला कर देते थे | अठठेसी का विद्रोह भी मद्धिम पड़ गया कयोकि बहुत से ठाकुरों का दल उन्हें आदर करने लगा | उनकी न्यायप्रियता जौनपुर गोरखपुर फैजाबाद तक प्रसिद्ध हो गयी थी ,यह प्रसिद्धि दिल्ली तक पहुची बादशाह औरंगजेब तकउसने आजमशाह को बुला भेजा और महत्वपूर्ण सलाहकार मंडल का सदस्य बनाया मिर्जा राजा जयसिंह से संधि प्रस्ताव के दल में आजमशाह को भी शिवाजी के पास भेजा गया – इस संधि के बाद आजमशाह को संदेह ही नही विशवास भी हो गया कि धोखे से शिवाजी को कैद कर लिया जाएगा | इन्साफ पसंद आजमशाह को यह बात बुरी लगी वे कन्नौज में ही रुक गये – इस बात से औरंगजेब सशंकित हो उठा | इसके पहले कि औरंगजेब आजमशाह को सफाई देने के लिए बुलाता शिवाजी अपने बुद्धिबल से फरार हो गये इस पर औरंगजेब और कुंठित हो गया | उसने कन्नौज में ही आजमशाह को कैद करा लिया जहाँ उन्हें भीषण यातनाये दी गयी | अपनी जन्मभूमि और राजभूमि से बहुत दूर आजमशाह एकांत में घुट घुट कर दिन काटते रहे यातना गृह में ही उनकी मृत्यु हो गयी | बाद में उनका शव यहाँ लाया गया और जनता ने पुरे सम्मान के साथ राजघाट से उस पार बाग़ लाखरांव में उनको दफन कर दिया | भाग्य में जो लिखा रहता है वही होता है | आदमी वक्त के हाथो का खिलौना भर है |आजमगढ़ की स्थापना के साथ ही सुरक्षा की दृष्टि से आजमशाह – अजमत शाह ने औरंगजेब से सहमती लेकर अपने क्षेत्र बाट लिए थे | आजमशाह ने पूर्वी हिस्से में अपनी देख रेख बनाया और अजमत शाह ने पश्चिमी | इसकी वजह कुंडलाकार तमसा नदी है | बिरली नदियों में इतनी कुंडली मिलती है | नगर को उसने बाहुपाश में ऐसे जकड़ रखा है जैसे कोई सर्पनी अपनी नागमणि को | नगर के चौक पर खड़े हो जाइए उत्तर को छोड़कर आप किसी भी दिशा पूरब पश्चिम दक्षिण में भागे तो यह नदी आपको रोक लेगी | नदी पार कर इन तीनो दिशाओं से आप आकर अपराध कर भाग भी सकते है यदि तैरना जानते हो तो नरौली रोड पर गिरजाघर मोड़ पर पूरब पश्चिम मार्ग का मिलन बिंदु है | यही स्थिति कदाचित सत्रहवी शताब्दी के मध्य में भी थी तभी आजमशाह मुख्य सड़क जो शेरशाह ने बनवाई थी से पूरब हिस्से में देखभाल करते थे | पश्चिम में नदी कोदर क्म्हैनपुर से दक्षिण वर्तमान ज्योति स्कुल से आगे जाकर कोल पाण्डेय गुरुटोला होती नगरपालिका कचहरी होते रैदोपुर कालोनी होती नदी की मुख्य धारा आकर पूर्व धारा से मिल जाती थी | इसलिए बीच के पश्चिमी हिस्से के देखरेख के लिए अजमत शाह ने कोडर में अपना निवास बनवाया इसे आज अजमतपुर कोडर कहते है | अजमत शाह ने भी कुछ महत्वपूर्ण कार्य किये उन्होंने नदी के किनारे घाट और आवागमन के लिए फेरी बनवाया | इसे राजघाट कहा गया | बाद में यहाँ एक मंदिर बनवाया गया लेकिन अजमत शाह के जमाने में नही | उन्होंने तो राजघाट से पश्चिम एक मंदिर बनवाने की स्वीकृति दी थी | यह राज मन्दिर खा जाता है इसमें विष्णु की मूर्ति थी इसे विशुनपुर राजमंदिर कहा जाने लगा इस क्षेत्र के लीलाधर उपाध्याय महावत खा के समय 1703 इ में बहादुर सेनापति थे जिन्होंने मिर्जा शेरवां को हराया था तब से इस गाँव का नाम लीलाप[उर प्रसिद्ध हो गया \ राजघाट लम्बे समय तक उपेक्षित पड़ा रहा 1750 इ के करीब गुलाल साहब यहाँ आये तो राजघाट में रुके तबसे यह उदासीन सम्प्रदाय के लोगो का एक प्रमुख मठ हो गया इसकी पुरानी शैली पर और अपित सुरंगे आज भी मौजूद है |
प्रस्तुती — सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार – समीक्षक
सन्दर्भ — आजमगढ़ का इतिहास – राम प्रकश शुक्ल निर्मोही
सन्दर्भ आज़मगढ़ का इतिहास हरी लाल शाह