Thursday, November 14, 2024
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क्या बालश्रम कानून भारत में एक मजाक बनकर रह गया है?

[11/23, 11:41] सुनील दत्ता: बालश्रम कानून मजाक है

कागजी और कागजी

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे —

अदम की यह पक्तिया सही साबित हो रही है जो डलहौजी नही कर सका इस देश के नेतृत्वो ने कर दिया कहने को बहुत है पर आज ले चलते है उन नौनिहालों की की तरफ जिनका कोई पुरसा – हाल नही कहने को तो पिछले साल किसी महापुरुषों को नौनिहालों के उद्दार के लिए शायद अंतर्राष्ट्रीय पुरुष्कार मिला बड़ा विवाद रहा मुझे उनमे नही फसना हमारा संविधान हमे यह बताता है कि आम आदमी की जरूरते सरकार द्वारा मुहैया होंगे पर यहाँ तो सब उलटा – पलता है जो आम आदमी को मिलना चाहिए वो नेता – अफसर – व धनाढ्य लोग डकार जा रहे है और कागजो में आम आदमी के नाम पर वो उपलब्धिया चढ़ रही है बेह्हाई की हद तब हो जाति है जब अखबारों में विज्ञापन देकर सत्ता और प्रशासन अपनी पीठ खुद ठोकते नजर आते है ||

आज बात करते है बाल श्रम की पुरे भारत में कोई ऐसी जगह नही जहा बाल श्रमिक न हो कुछ तो हालात के मारे है कुछ तो घर से भाग कर आते है और कुछ जबरदस्ती लाए जाते है उन नौनिहालों का हर जगह शोषण होता है और सरकारे खामोश रहती है | अब चलते है अपने जिले को देखते है , इस जिले में बचपन पूरी तरह कराह रहा है |

नौकरशाही हो या शासन सत्ता में बैठे लोग | कोई भी इस बात के लिए लेशमात्र भी फिक्रमंद नही है कि कचरे में भटकती हुई जिन्दगी को सवारा कैसे जाए | प्रतिफल यह है कि हजारो मासूमो ने कचरे को ही अपनी जिन्दगी मन लिया है | वह पुरे दिन शहर हो या गाँव के एक छोर से दुसरे छोर तक घूमते – फिरते कचरे में अपना और अपने परिवार का जेवण तलाशते है यह कही भी आसानी से देखे जा सकते है | कुछ बच्चे तो बेबस है \ निश्चित रूप से कचरा बीनने वाले तमाम बच्चे ऐसे है जिनके सर पर माँ – बाप का साया नही है | या फिर उनके माता – पिता शारीरिक रूप से इतना अशक्त है कि इन बच्चो के पास कचरा बीने के सिवाए और कोई विकल्प नही है |
बात केवल कचरा बीनने तक ही नही है स्थितिया यह है की राज्य सरकार और केंद्र सरकारे इन बच्चो के उत्थान के लिए जो धन देती है वह आखिर जाता कहा है ? यह बच्चे यह नही जान पाते कि बचपन होता कैसा है ? कारण यह है कि वह ठीक से चलना भी नही सिख पाते पाते उनके कन्धो पर जिम्मेदारियों का बोझ आ गिरता है | शहर से लेकर छोटे कस्बो तक कोई भी ऐसा होटल नही होगा जहा मासूम बच्चे कप – प्लेट या बर्तन धोते नजर ना आते हो | ऐसा भजी नही कि इन बच्चो की यह हसरत नही होती कि स्कुल न जाए | कम करने वाले यह बाल मजदूर भी स्कुल जाने वाले बच्चो को काफी हसरत भरी निगाहों से देखते है और उनके मन में कही – न – कही यह तमन्ना जरुर होती है कि काश उन्हें भी ऐसे ही स्कुल जाने का मौक़ा मिला होता | इन बच्चो को स्कुल जाने का मौका भले ही नही मिला है मगर इनका नाम किसी न ही सरकारी स्कुल में जरुर चलता रहता है | यह नाम चलते है सरकारी ओहदेदार |
इनको यह जो साबित करना है कि उनके जिले में न तो कोई बच्चा स्कुल जाने से वंचित रह गया है | स्कुल चलो अभियान के दौरान सारी कवायदे पूरी कर ली जाती है | बल श्रम विभाग भी सिर्फ हाथी के दांत की तरह दिखने के लिए है | इसने जिले में कभी कोई कार्यवाही नही की | यह कहना गलत ना होगा कि यह विभाग विभिन्न सरकारी योजनाओं का कमीशन अपनी जेब में भरने तक ही सिमटा हुआ है | सब मिलाकर सब कुछ सिर्फ और सिर्फ कागजी और कागजी है |
[11/23, 11:42] सुनील दत्ता: सुनील दत्ता कबीर स्वतंत्र पत्रकार दस्तावेजी प्रेस छायाकार

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