क्रांति का मूर्तिमान रुप : मादाम भीकाजी कामा
मादाम भीकाजी कामा भारत की स्वतंत्रता को समर्पित उस हस्ती का नाम जो लन्दन ,पेरिस ,जेनेवा ,वियेना और बर्लिन जैसी यूरोपीय देशो की राजधानियों में भारत की आज़ादी के लिए विश्व -जनमत बढ़ाने के लिए आवाज़ उठाती रही |भीकाजी की आवाज़ ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को आतंकित और अशक्त करने के लिए पर्याप्त थी |भीकाजी कामा का जन्म 24 सितम्बर ,1861 को बम्बई में हुआ था |एक सम्पन्न पारसी परिवार में वह सोहराबजी पटेल की 9 संतानों में एक थी |उन्होंने एलेग्जेंर्डिया गर्ल्स स्कूल से शिक्षा प्राप्त की |यद्धपि उस समय किसी स्त्री का और वह भी अमीर स्त्री का घर से निकलकर समाज सेवा के कार्य से लगना आश्चर्य की बात थी ,पर यह संवेदनशील ,तीव्र बुद्धि और प्रतिभाशाली लडकी अपने चारो ओर के भारतीय जीवन से निर्लिप्त नही रह सकती थी |गरीबी और अपमान से भरा भारतीयों का जीवन उसके लिए असह्य था |स्कूली जीवन में ही वे वाद -विवाद प्रतियोगिताओं में प्रथम पुरूस्कार पाती रही थी |बचपन में उन्होंने कई भाषाए सीख ली थी |अंग्रेजो के प्रति उनके विचारो में क्रांति क़ी गंध रहती थी |
1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई , भीकाजी में आशा जगी कि उनका स्वतंत्रता का स्वप्न अब पूरा होने वाला हैं |इसलिए कांग्रेस की स्थापना से ही वे उसके प्रति समर्पित हो गयी |कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन के समय उनकी आयु 24 वर्ष की थी |उन्होंने सभी वर्गो की स्त्रियों और स्त्री -सस्थाओं के सगठन का बीड़ा उठाया | उनकी सामाजिक -राजनितिक गतिविधियों से चिंतित होकर उनके पिता सोहराबजी पटेल ने उनका विवाह बम्बई के ही एक प्रसिद्ध वकील रुस्तमजी कामा के साथ कर दिया |श्री रुस्तमजी कामा एक विद्वान् और सम्पन्न पिता के पुत्र थे |उनका परिवार अंग्रेजी राज्य व् सभ्यता का प्रशंसक था , जबकि श्रीमती कामा के विचार इससे नितांत भिन्न थे |वे कांग्रेस की सभाओं में जाना विशेष रूप से पसंद करती थी |रुस्तम जी ने अपनी पत्नी को समझाया कि वे अंग्रेजी राज्य विरोधी गतिविधियों में भाग न लें ,परन्तु वे अपने देश के लिए समर्पित थी |तीव्र बुद्धिमती थी ,अपने स्वतंत्र विचार रखती थी |इसी मतभेद के कारणउनका वैवाहिक जीवन सफल न हो सका |दोनों लोगो में बोलचाल भी बंद हो गयी |इसी समय बम्बई में प्लेग की भयंकर बीमारी फैली |भारी संख्या में लोग मरने लगे व् घर बार छोडकर भागने लगे |मादाम भीकाजी कामा सेवा करने के लिए जुट गयी |असाध्य और छूत के रोगियों की रात -दिन की सेवा से उनके कोमल मातृत्व ह्रदय का परिचय मिलता हैं |इस सेवा से अन्तत वे भी प्लेग ग्रस्त हुई और उनका आमाशय सदा के लिए कमजोर हो गया |उनके पीटीआई और परिवार के लोग उनके उपचार के लिए उन्हें यूरोप भेज दिया |उसके पीछे एक भाव यह भी था की शायद देश से बाहर रहने पर उनके मन में समाजसेवा और अंग्रेजी शासन विरोधी कार्यो के प्रति शिथिलता आ जाए |अत: अपनी इच्छा के बिना ७ अप्रैल ,१९०१ को वे पेरिस पहुंची |वंहा से स्वस्थ होकर वे जर्मनी ,स्काटलैंड ,आदि देशो में घूमी |१९०५ में वे लन्दन पहुंची |लन्दन में उन दिनों दादाभाई नौरोजी थे |डेढ़ वर्ष तक उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष दादाभाई नौरोजी के निजी सचिव के रूप में कार्य किया |यही उनकी भेट प्रवासी क्रांतिकारियों से हुई |
लाला हरदयाल ,श्याम जी कृष्ण वर्मा विनायक दामोदर सावरकर से भी उनकी भेट हुई |इन प्रवासियों क्रांतिकारियों से मिलने के पश्चात उन्होंने अपने भारत लौटने के निर्णय को बदल दिया |वे श्याम जी वर्मा के “इंडियन सोशीयालाजिस्ट ” पत्र की एक लेखिका भी थी |इन्ही प्रवासी क्रांतिकारियों द्वारा स्थापित होम रुल सोसायटी का भी कार्य इन्होने किया |श्याम जी आदि लोगो के साथ वे हाइड पार्क में खड़े होकर अपने ओजस्वी भाषणों से स्वतंत्रता का नारा बुलंद करने लगी |अंग्रेज आश्चर्यचकित थे की भारत जैसे गुलाम और पिछड़े देश की महिला इतनी निर्भीकता से शासको के देश में ही इस तरह खुला विद्रोही प्रचार कर रही है |उन्होंने उनसे भारत लौटने को कहा कड़ी कार्यवाही किए जाने की धमकी भी दी |वे स्वातंत्र्य सैनिको को साहित्य और खिलौनों के पार्सल में भेट के नाम पर हथियार भेजने का भी प्रबंध करती थी जब लन्दन में रहना कठिन हो गया तो भीकाजी कामा भी पेरिस आ गयी |इस प्रकार पेरिस ही अब क्रांतिकारियों का गढ़ हो गया \१८ अगस्त ,१९०७ में जर्मनी के स्टुटगार्ड नगर में जो अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन हुआ , उसमे भारतीयों की ओर से भीकाजी कामा ने भी प्रतिनिधित्व किया |सम्मेलन के मंच पर आते ही उन्होंने अपने बैग से एक झंडा निकाला ,स्टैंड सहित टेबल पर रखा और कहना प्रारम्भ किया; “मेरा नियम है मैं अपने देश का झंडा फहराकर ही बोलना आरम्भ करती हूँ |मेरे सम्मुख बैठे हुए संसार के सभी स्वाधीनता प्रेमी सदस्यों से मैं यह निवेदन करती हूँ की आप लोग झंडे के सम्मान के लिए खड़े हो और अभिवादन करे |”भीकाजी कामा के व्यक्तित्व और वाणी का प्रभाव था कि सारी सभा लहराकर उठी और टोपिया उतारकर झंडे का अभिवादन किया |
भीकाजी ने कहना शुरु किया , मैं आप को यह बताना चाहती हूँ की भारत ,जंहा विश्व की पंचमांश जनसख्या निवास करती हैं ,ब्रिटिश साम्राज्य वाद की चक्की में पीसकर कराह रहा है |भारत के समस्त आर्थिक साधनों का दोहन कर ब्रिटेन ने भारतीयों को दाने -दाने का मोहताज़ बना दिया है |क्या साम्राज्य वाद और समाजवाद एक साथ रह सकते है ?मेरा प्रस्ताव है की संसार की सभी स्वाधीनता प्रेमी जनता को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त होने और समता और समाजवाद के पथ पर अग्रसर होने के प्रत्यनमें सहयोग दें |
ब्रिटेन के प्रतिनिधियों को छोड़ कर सभी ने प्रस्ताव का समर्थन किया , ब्रिटेन के उदारवादी सदस्य हिडमैंन ने भी उनके प्रस्ताव का समर्थन किया था |नियमानुसार कोई प्रस्ताव सर्वसम्मती से ही पारित हो सकता है | अत; ब्रिटेन के विरोध के कारण प्रस्ताव पारित तो नही हुआ पर संसार भर के समाजवादी देशो के सामने उन्होंने ब्रिटेन को बेनकाब कर दिया |उनकी साम्राज्यवादी लिप्सा औए शोषक मनोवृत्ति उजागर हुई |भीकाजी कामा का यह झंडा किसी भी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर फहराया जाने वाला प्रथम भारतीय झंडा था |उस भारतीय झंडे की डिजाइन कामाजी और विनायक सावरकर तथा कुछ साथियों ने तैयार की थी | उसमें तीन पट्टिया थी |हरे रंग की पट्टी भारत की धन -धान्यपूर्ण हरीतिमा की प्रतीक थी ,जिस पर आठ कमल थे |भारत उस समय आठ प्रान्तों में बँटा हुआ था |झंडे के बीच की पट्टी केसरिया रंग की थी |इस पर वन्देमातरम अंकित था |सबसे नीचे की पट्टी लाल रंग की थी इस पर सूर्य और चन्द्र अंकित थे जो हिन्दू -मुस्लिम एकता के प्रतीक थे \यह भारत का प्रथम राष्ट्रीय झंडा था |इस सम्मेलन में भीकाजी कामा की भेट कई रुसी क्रांतिकारियों ,विशेष रूप से शताब्दी के महान नेताओं में से एक लेलिन से हुई सम्मेलन के पश्चात वे अमेरिका पहुंची |अमेरिका में भीका जी की कीर्ति पहले हि पहुंच चुकी थी |वंहा के लोगो ने उनके द्वारा बताई गयी भारत की दुदर्शा व् ब्रिटिश अत्याचारों की कहानी को सुना |क्रांति कारी मौलवी बरकतुल्ला उस समय अमेरिका में ही थे |भीकाजी अमेरिका प्रवास के दौरान वे उन्ही के साथ रहे |न्यूयार्क प्रेस के लोगो ने भीकाजी की बुद्धिमत्ता ,साहस ,लग्न और उत्कृष्ट देशप्रेम की सराहना की |
अपने एक भाषण में कहा :आप रुसी संघर्षके बारे में जानते है , भारत के बारे में नही |इसका कारण स्पष्ट है कि ग्रेट ब्रिटेन ने हमारे रक्त की बूँद-बूँद चूसकर यह प्रचारित किया है कि भारत हमारे राज्य में सुखी है ,वह स्वाधीनता नही चाहता |” उन्होंने अपील की-कि हर सम्भव स्वाधीन देश का कर्तव्य है की हमारे स्वाधीनता संघर्ष में मदद करे |राजनितिक क्षेत्र में पराधीन भारत के स्वाधीन होने की आकक्षा को विदेशो में सबसे ज्यादा प्रचारित किया |वे जीवन के हर क्षण आज़ादी के लिए प्रयत्नशील थी |अमेरिका प्रवास के पश्चात वे फिर लन्दन चली गयी | सका कारण था कि भारत के बड़े -बड़े कांग्रेसी नेता लन्दन पहुंच रहे थे वे उनसे भारत कि सही स्थिति जानना चाहती थी |भावी स्वतंत्रता संग्राम के बारे में विचार -विमर्श करना चाहती थी |उन्होंने लन्दन में भारतीयों का एक सम्मेलन आयोजित किया |
लाला लाजपत राय ,विपिन चन्द्र पाल , गोकुलचन्द्र नारंग आदि के भाषण हुए थे |लेकिन उनके सुधारवादी राष्ट्रवादी विचारो से वे असहमत थी |वे सशत्र क्रांति के पक्ष में थी | वे सारे संसार कि एकता चाहती थी |उन्होंने एक भाषण में कहा था कि “वह कितना ख़ुशी का दिन होगा ,जब मैं यह कह सकूंगी कि सारा संसार मेरा देश हैं ,और इसमें रहने वाले सब लोग मेरे सम्बन्धी है |किन्तु उस शुभ दिन के आने से पहले स्वतंत्र राष्ट्रों का निर्माण आवश्यक हैं “|न केवल भारत अपितु संसार के सभी देशो के क्रांतिकारियों के प्रति भीकाजी कामा कि सहानभूति थी |आयरलैंड ,रूस व् जर्मनी के क्रांतिकारियों केसाथ उनका निरंतर सम्पर्क था |अंग्रेज उनकी कीर्ति से चिंतित थे |उन्होंने अपने जासूस भीकाजी कामा के पीछे छाया की भांति लगा रखे थे |भारत में अंग्रेजो ने उन्हें फरार घोषित करके उनकी लाखो कि सम्म्पति जब्त कर ली थी | सन १९०७ में जब विनायक दामोदर सावरकर कि प्रेरणा से लन्दन के इंडिया हॉउस में प्रथम स्वाधीनता संग्राम कि अर्द्ध शताब्दी समारोह मनाया गया ,तो भीकाजी ने अपने संदेश के साथ युद्ध -कोश धन भी भेजा था |”सावरकर लिखित प्रथम स्वाधीनता संग्राम का इतिहास को गोपनीय ढग से प्रकाशित कराकर उसे यूरोपीय देशो में वितरित करने में कामा जी का भरपूर योगदान था |लन्दन से पेरिस लौटने पर उन्होंने “वन्दे मातरम् “पत्र प्रकाशित किया |लाला हरदयाल को इसका सम्पादन सौपा |उसके वितरण में बहुत श्रम करना पड़ता था |”वन्दे मातरम् ” कि लोकप्रियता तथा उग्र विचारो को देखकर पेरिस में भी उसे बंद करने कि आज्ञा हुई फिर उसे जनेवा और फिर हालैंड से प्रकाशित किया गया |कामा जी भारतीय स्वाधीनता के लिए अथक परिश्रम कररही थी ,वे चाहती थी कि प्रत्येक देश कि महिलाए जागृत होकर अपने -अपने देश के लिए कार्य करे |मिस्र कि राष्ट्रीय सभा में महिलाओं कि अनुपस्थिति पर उन्होंने प्रश्न उपस्थित किया था | वे क्रांतिकारियों को पुत्रवत मानती थी सावरकर और मदनलाल धिगरा ऐसे ही क्रन्तिकारी थे |बीमारी के दिनों में उन्होंने सावरकर की ख़ूब सेवा भी की |उनके सम्वेदनशील व कोमल ह्रदय का परिचय मदनलाल धिगरा के प्रति उनके प्रेम से मिलता है |मदन लाल धिगरा को फांसी होने पर वह कुछ दिन विक्षिप्त -सी रही |जब भी उसकी बात निकलती ,कामा जी कहती “मेरे प्यारे बच्चे को उन दुष्टों ने मार दिया “| उनका ह्रदय वज्र की तरह कठोर और पुष्प की तरह कोमल था |उसकी याद में उन्होंने “मदनसस्वार्ड “
(मदन की तलवार ) नामक अखबार निकाला |वह बर्लिन से प्रकाशित होता था |प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजो ने भारत से हिन्दुस्तानी फौजे भेजी |यें फौजे फ़्रांस के बन्दरगाह पर उतरती थी |वे स्वंय बन्दरगाह पर जाकर या बाजारों में सैनिको टोलियों के मिलने पर समझाना आरम्भ कर देती ,मेरे वीर बच्चो ,तुम लोग उस देश कि तरफ से लड़ने जा रहे हो ,जिसने हमारी भारत माता को कैद कर रखा है |यदि अंग्रेजो की तरफ से लड़ोगे तो भारत माता के बंधन और दृढ होते चले जायेंगे |तुम्हे धोखे में रखकर मरने के लिए भेजा जा रहा हैं “| भीका जी के इस प्रचार से अंग्रेज तो क्रुद्ध हुए ही फ़्रांसिसी भी चिंतित हुए ,कयोकि दोनों मित्र देश थे |फ़्रांस की सरकार ने पहले कुछ पाबन्दिया लगाई ,फिर भी वे गुजराती “गदर “की प्रतियाँ संसार के सभी देशो को पहुंचाती रही |अंत में उन्हें विशी नामक स्थान पर पुराने किले में नजरबंद कर दिया गया |चार साल तक कई असुविधाओ के बीच नजरबंद रखा गया |युद्ध की समाप्ति पर भीकाजी को नजरबंदी से छोड़ा गया ताब उनका शरीर सूखकर कंकाल -मात्र रह गया था |नजरबंदी की यातनाओं के साथ -साथ गरीबी ने भी भीकाजी को झकझोर डाला था |फ़्रांस में अपने आखरी दिन उन्होंने अत्यधिक गरीबी में बिताये |अब वे एक गली के एक अँधेरे मकान में लम्बा -सा गाउन पहने रहती थी |उनकी बीमारी और वृद्धावस्था को देखते हुए शुभ चिंतको ने उन्हें भारत लौटने का परामर्श दिया |वे भारत लौटना नही चाहती थी ,कयोकि अंग्रेज उनसे लिखित क्षमा याचना के साथ भविष्य में राजनीति न करने की प्रतिज्ञा कराना चाहते थे |शुभचिंतको ने कहा कि “अब तो आप बहुत बूढी हो गयी ,ऐसा करने में क्या आपति है ? तो उन्होंने उत्तर दिया ,नही मैं राजनीति के लिए बूढी नही हूँ |मैं भारत में राजनितिक सभाओं में भाषण देकर जनता को जगाना चाहती हूँ |सत्तर वर्ष की वृद्धा होकर वे भारत लौटी थी |युवा अवस्था का एक -एक पल भारतमाता की स्वाधीनता के प्रयासों में ही व्यतीत किया था |आठ महीने अस्पताल में रहने के पश्चात १३ अगस्त १९३६ को उनका देहावसान हो गया |
भारत के स्वाधीनता -संग्राम में मादाम कामा का स्थान बहुत ऊँचा हैं |अपने उद्दात धेय्य के लिए परिवार का त्याग करने वाले पुरुषो के उदाहरण तो है ,परन्तु देश के लिए अपने परिवार और सम्पूर्ण जीवन की आहुति देने वाली स्त्रियों की जीवन – गाथाए अपरिचित -सी है |पिता और पति दोनों ही सम्पन्न थे और वे स्वंय अनिग्ध रूपसी थी |पेरिस जैसी फैशन नगरी में रहती थी |पर उन्होंने सारा जीवन सादगी में बिताया। ऐसी थी भीकाजी कामा
राजेन्द्र परोरिया द्वारा सम्पादित
पचास क्रांतिकारी “से साभार
प्रस्तुति: सुनील दत्ता