Thursday, December 5, 2024
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आज पुण्यतिथि है साहिर का, इक दर्द भरा नगमा -साहिर लुधियानवी

आज पुण्यतिथि है साहिर का

एक दर्द भरा नगमा – साहिर लुधयानवी

ये दौलत के भूखे रिवाजो की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है |

साहिर का जन्म 8 मार्च सन 1921 को लुधियाना में हुआ था उनके पिता जमीदार थे पर माता पिता में पटरी न होने के कारण उनकी माँ उनसे अलग हो गयी तमाम मुश्किलों को झेलते हुए उनकी माँ ने साहिर की परवरिश की साहिर का असली नाम अब्दुल हई था बाद में उन्होंने अपना नाम बदल दिया वो साहिर के नाम से प्रसिद्ध हुए | साहिर का बचपन बहुत ही दर्द भरा था साहिर की शुरुआती शिक्षा खालसा स्कूल लुधियाना में हुई | उसके बाद साहिर उच्च शिक्षा के लिए लुधियाना में ही कालेज में दाखिला लिया | साहिर जब कालेज में आये तब उनकी शायरी परवान चढने लगी | मेरे सरकश तरानों की हक़ीक़त है तो इतनी है
कि जब मैं देखता हूँ भूख के मारे किसानों को
ग़रीबों को, मुफ़लिसों को, बेकसों को, बेसहारों को
सिसकती नाज़नीनों को, तड़पते नौजवानों को
हुकूमत के तशद्दुद को, अमारत के तकब्बुर को
किसी के चिथड़ों को और शहन्शाही ख़ज़ानों को
इसी दौरान साहिर लुधियाना छोड़कर पकिस्तान चले गये वह तंगहाली में अपना जीवन व्यतीत करते हुए अपने कलम का सफर जारी रखा | साहिर जब शायरी की दुनिया में आए तब इकबाल – जोश , फ़िराक गोरखपुरी जैसे नामी मशहूर शायरों के बीच अपनी जगह बनाना आसान नही था इसी दरमियान उनकी पहली गजल संग्रह छपी ‘’ तल्खिया ‘’ इस किताब ने उनको प्रगतिशील शायरों के बीच उन्हें स्थापित कर दिया |
अब न इन ऊंचे मकानों में क़दम रक्खूंगा
मैंने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी
अपनी नादार मोहब्बत की शिकस्तों के तुफ़ैल
ज़िन्दगी पहले भी शरमाई थी, झुंझलाई थी

देश के बटवारे के समय साहिर पकिस्तान में ही थे और उनकी कलम व्यवस्था के विरुद्ध चलती रही |

सदियों से इन्सान यह सुनता आया है
दुख की धूप के आगे सुख का साया है

हम को इन सस्ती ख़ुशियों का लोभ न दो
हम ने सोच समझ कर ग़म अपनाया है

झूठ तो कातिल ठहरा उसका क्या रोना
सच ने भी इन्सां का ख़ून बहाया है

पैदाइश के दिन से मौत की ज़द में हैं
इस मक़तल में कौन हमें ले आया है

इसपे वहा के हुक्मरान उनसे काफी नाराज हुए तब साहिर ने पकिस्तान छोड़ने का मन बना लिया |

लब पे पाबन्दी नहीं एहसास पे पहरा तो है
फिर भी अहल-ए-दिल को अहवाल-ए-बशर कहना तो है

अपनी ग़ैरत बेच डालें अपना मसलक़ छोड़ दें
रहनुमाओ में भी कुछ लोगों को ये मन्शा तो है

है जिन्हें सब से ज्यादा दावा-ए-हुब्ब-ए-वतन
आज उन की वजह से हुब्ब-ए-वतन रुस्वा तो है

आजादी के बाद वो दिल्ली चले आये पर उनका दिल वहां नही लगा सो कुछ महीनों के बाद वो माया नगरी बम्बई चले आये यहाँ पर आते ही साहिर को फिल्म ‘’आजादी की राह ‘ में गीत लिखने का अवसर मिला पर उनके गीत कोई खास कमल न कर सकी |
बदल रही है जिन्दगी
य उजड़ी – उजड़ी बस्तिया
ये लुट की निशानिया

1951 में फिल्म नौजवान में लिखे गीतों ने साहिर को माया नगरी में अपनी पहचान दी उसके बाद वो गुरुदत्त जी के साथ जुड़ गये फिल ‘’प्यासा “

ये तख्तो ये ताजो की दुनिया
ये इन्सा के दुश्मन ये समाजो की दुनिया
ये महलो ये तख्तो ये ताजो की दुनिया
ये दौलत के भूखे रिवाजो की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है |

साहिर की शायरी समाज के सामने बड़ा सवाल खड़ी करती नजर आई

जो साहिर के जीवन पर ही बनी इस फिल्म में शायर विजय एक ऐसा शायर जो व्यवस्था के विरुद्ध है और प्यार की बाजी भी हार गया है उस किरदार को निभाया स्वंय गुरुदत्त जी ने इस तरह साहिर की जिन्दगी को जाना पूरी दुनिया ने साहिर के उपर एक और फिल्म बनी ‘’ कभी कभी ‘

कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले,
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले ।
कल कोई मुझ को याद करे, क्यों कोई मुझ को याद करे
मसरुफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यों वक़्त अपना बरबाद करे ॥

मैं पल-दो-पल का शायर हूँ, पल-दो-पल मेरी कहानी है ।
पल-दो-पल मेरी हस्ती है, पल-दो-पल मेरी जवानी है ॥

साहिर का प्रेम अमृता के साथ रहा जो नाकाम रहा उसके बाद गायिका सुधा महलोत्रा के साथ भी उनका प्रेम असफल रहा |
साहिर अदबी शायर भी थे और फिल्मो के लिए भी लिखते थे | 25 अक्तूबर 1980 को साहिर इस दुनिया से रुखसती ली और अपने नज्मो से अपनी जिन्दगी बया कर गये उनका नाम उर्दू अदब और हिंदी सिनेमा में बड़े अदब से लिया जाएगा |

सुनील दत्ता ( कबीर ) स्वतंत्र पत्रकार – समीक्षक

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