1857 में जब अंग्रेज़ों का दिल्ली पर फिर कब्ज़ा हो गया तो कैप्टन विलियम हॉडसन क़रीब 100 सैनिकों के साथ बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र को पकड़ने शहर से बाहर निकले.
जब हॉडसन ने हुमायूं के मकबरे का रुख़ किया तो उनके दल पर अभी भी दिल्ली की सड़कों पर मौजूद विद्रोहियों में से किसी ने फ़ायर नहीं किया.
हॉडसन को ज़रूर इस बात की फ़िक्र थी कि पता नहीं हुमायूं के मकबरे पर मौजूद लोग उनके साथ कैसा सलूक करें, इसलिए उन्होंने अपने आप को पहले मकबरे के पास मौजूद खंडहरों में छिपा लिया.
हाल ही में 1857 के विद्रोह पर किताब ‘द सीज ऑफ़ डेल्ही’ लिखने वाले और इस समय लंदन में रह रहे अमरपाल सिंह बताते हैं, ‘हॉडसन ने मकबरे के मुख्यद्वार से महारानी ज़ीनत महल से मिलने और बादशाह को आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार करने के लिए अपने दो नुमाइंदों मौलवी रजब अली और मिर्ज़ा इलाही बख़्श को भेजा.
बादशाह ज़फ़र अभी तक हथियार डालने के बारे में मन नहीं बना पाए थे. दो घंटों तक कुछ भी नहीं हुआ.छोड़कर और ये भी पढ़ें आगे बढ़ेंऔर ये भी पढ़ें
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हॉडसन यहाँ तक सोचने लगे थे कि शायद उनके नुमाएंदों की मकबरे के अंदर हत्या कर दी गई है लेकिन तभी हॉडसन के नुमाइंदे इस संदेश के साथ बाहर आए कि ज़फ़र सिर्फ़ हॉडसन के सामने ही आत्मसमर्पण करेंगे और वो भी तब जब हॉडसन खुद जनरल आर्चडेल विल्सन द्वारा दिए गए वादे को उनके सामने दोहराएंगे कि उनके जीवन को बख़्श दिया जाएगा.’
![द सीज़ ऑफ़ डेल्ही किताब](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/2294/production/_123225880_whatsappimage2022-02-11at2.44.47pm.jpg)
बादशाह ने पहले पुराने क़िले में शरण ली
अंग्रेज़ी ख़ेमे में इस बात पर शुरू से उलझन थी कि किसने और कब बहादुरशाह ज़फ़र को उनकी ज़िदगी बख़्श देने का वादा किया था?
इस बारे में गवर्नर जनरल के आदेश शुरू से ही साफ़ थे कि विद्रोही चाहे कितने ही बड़े या छोटे हों, अगर वो आत्मसमर्पण करना चाह रहे हों तो उनके सामने कोई शर्त या सीमा नहीं रखी जाए.
शुरू में जब अंग्रेज़ दिल्ली में घुसे तो बादशाह ने किले के अंदर अपने महल में ही रहने का फ़ैसला किया.
16 सितंबर, 1857 को ख़बर आई कि अंग्रेज़ सेना ने किले से कुछ सौ गज़ दूर विद्रोही ठिकाने पर कब्ज़ा कर लिया है और वो सिर्फ़ इसलिए किले में प्रवेश नहीं कर रहे रहे हैं क्योंकि उनके पास बहुत कम संख्या में सैनिक हैं.
![बहादुर शाह ज़फ़र](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/49A4/production/_123225881_whatsappimage2022-02-11at2.44.54pm_2.jpg)
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19 सिंतंबर को बादशाह ने अपने पूरे परिवार और अमले के साथ महल छोड़कर अज़मेरी गेट के रास्ते पुराने क़िले जाने का फ़ैसला किया.
20 सितंबर को अंग्रेज़ों को ख़ुफ़िया सूत्रों से ख़बर मिली कि ज़फ़र पुराना क़िला छोड़ कर हुमायूं के मकबरे में पहुँच गए हैं.
मैंने अमरपाल सिंह से पूछा कि एक तरफ़ तो अंग्रेज़ विद्रोहियों को बेरहमी से सरेआम फाँसी पर चढ़ा रहे थे, लेकिन वो बादशाह की ज़िंदगी बख़्शने के लिए तैयार थे.
इसकी क्या वजह थी तो उनका जवाब था, ‘एक तो बहादुरशाह बहुत बुज़ुर्ग थे और वो इस विद्रोह के सिर्फ़ नाममात्र के नेता थे. दूसरे अंग्रेज़ दिल्ली में दोबारा घुसने में सफल ज़रूर हो गए थे लेकिन उत्तरी भारत के दूसरे हिस्सों में लड़ाई अब भी जारी थी और अंग्रेज़ो को कहीं न कहीं डर था कि अगर बादशाह की जान ली गई तो विद्रोहियों की भावनाएं भड़क सकती हैं. इसलिए विल्सन इस बात पर राज़ी हो गए कि अगर बादशाह आत्मसमर्पण कर दें तो उनकी जान बख़्शी जा सकती है.’
![जनरल विल्सन](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/70B4/production/_123225882_whatsappimage2022-02-11at2.44.50pm.jpg)
बहादुरशाह ज़फ़र ने अपने हथियार हॉडसन को सौंपे
विलियम हॉडसन ने अपनी किताब ‘ट्वेल्व इयर्स ऑफ़ द सोलजर्स लाइफ़ इन इंडिया’ में एक प्रत्यक्षदर्शी ब्रिटिश अफ़सर द्वारा उनके भाई को लिखे पत्र के हवाले से लिखा, ‘मकबरे से बाहर आने वालों में सबसे आगे थीं महारानी ज़ीनत महल. उसके बाद पालकी में बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र चल रहे थे.”
![महारानी ज़ीनत महल](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/18422/production/_123226399_whatsappimage2022-02-11at5.52.17pm.jpg)
हॉडसन ने आगे बढ़कर बादशाह से हथियार डालने के लिए कहा.
ज़फ़र ने उनसे पूछा, क्या आप ही हॉडसन बहादुर हैं? क्या आप मुझसे किए गए वादे को मेरे सामने दोहराएंगे?
कैप्टेन हॉडसन ने जवाब दिया कि ‘जी हाँ. सरकार को आपको ये बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि अगर आपने हथियार डाल दिए तो आप, ज़ीनत महल और उनके बेटे के जीवन को बख़्श दिया जाएगा. लेकिन अगर आपको बचाने की कोशिश की गई तो मैं इसी जगह आपको कुत्ते की तरह गोली से उड़ा दूँगा.’
तब बुज़र्ग बादशाह ने अपने हथियार हॉडसन को सौंपे, जिसे उसने अपने अर्दली को थमा दिया.’
भारत को मुसलमान शासकों का ग़ुलाम बताना आख़िर कितना सही है?
![बहादुरशाह ज़फ़र विलियम हॉडसन के सामने आत्मसमर्पण करते हुए](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/BED4/production/_123225884_whatsappimage2022-02-11at2.44.54pm-1.jpg)
बहादुरशाह ज़फ़र की नज़रें ज़मीन पर गड़ी थीं
शहर में घुसने के बाद बादशाह ज़फ़र को पहले बेगम समरू के घर में रखा गया और HM 61st के 50 जवानों को उनकी निगरानी के लिए चुना गया.
कैप्टेन चार्ल्स ग्रिफ़िथ उन अफ़सरों में थे जिन्हें बहादुर शाह ज़फ़र की निगरानी की ज़िम्मेदारी दी गई थी.
बाद में उन्होंने अपनी किताब ‘द नरेटिव ऑफ़ द सीज ऑफ़ डेल्ही’ में लिखा, ‘मुग़ल राजवंश का आख़िरी प्रतिनिधि एक बरामदे में एक साधारण चारपाई पर बिछाए गए गद्दे पर पालथी मार कर बैठा हुआ था. उनके रूप में कुछ भी भव्य नहीं था सिवाए उनकी सफ़ेद दाढ़ी के जो उनके कमरबंद तक पहुंच रही थी.
मध्यम कद और 80 की उम्र पार कर चुके बादशाह सफ़ेद रंग की पोशाक पहने हुए थे और उसी कपड़े की एक पगड़ी उनके सिर पर थी. उनके पीछे उनके दो सेवक मोर के पंखों से बनाए गए पंखे से उन पर हवा कर रहे थे. उनके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा था. उनकी नज़रें ज़मीन पर गड़ी हुई थीं.
उनसे तीन फ़िट की दूरी पर एक दूसरी पलंग पर एक अंग्रेज़ अफ़सर बैठा हुआ था. उसके दोनों ओर संगीन लिए दो अंग्रेज़ सैनिक खड़े हुए थे. अफ़सर को निर्देश थे कि अगर बादशाह को बचाने की कोशिश होती है तो वो अपने हाथों से बादशाह को वहीं गोली से उड़ा दे.’
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![बेगम समरू का घर जहां बहादुरशाह ज़फ़र को गिरफ़्तार करने के बाद रखा गया था](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/E5E4/production/_123225885_whatsappimage2022-02-11at2.44.54pm.jpg)
हॉडसन शहज़ादों की पहचान के लिए शाही परिवार के सदस्यों को ले गए
उधर बादशाह को पकड़े जाने के एक दिन बाद 22 सितंबर तक जनरल आर्चडेल विल्सन ये तय नहीं कर पाए थे कि उस समय तक जीवित शहज़ादों का क्या किया जाए जो अभी भी हुमांयू के मक़बरे के अंदर मौजूद थे.
कैप्टेन हॉडसन का मानना था कि इससे पहले कि वो भागने की कोशिश करें उन्हें हिरासत में ले लिया जाए.
इन शहज़ादों में शामिल थे विद्रोही सेना के प्रमुख मिर्ज़ा मुग़ल, मिर्ज़ा ख़िज़्र सुल्तान और मिर्ज़ा मुग़ल के बेटे मिर्ज़ा अबूबक्र.
जनरल विल्सन की सहमति से हॉडसन ने 100 सैनिकों का एक गिरफ़्तारी दल बनाया जिसमें उनकी मदद कर रहे थे लेफ़्टिनेंट मेकडॉवल.
ये पूरा दल घोड़ों पर धीरे धीरे चलते हुए हुमायूं के मक़बरे के लिए रवाना हुआ.
हॉडसन ने अपने साथ शाही परिवार के एक सदस्य और बादशाह के भतीजे को ले जाने की एहतियात बरती थी. उससे वादा किया गया था कि अगर वो उनके प्रतिनिधि के तौर पर काम करे और शहज़ादों को हथियार डालने के लिए राज़ी करवा ले तो उसकी जान बख़्श दी जाएगी.
उसको शहज़ादों को पहचानने का काम भी दिया गया था क्योंकि हॉडसन ख़ुद किसी शहज़ादे को पहचानते नहीं थे.
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![बहादुर शाह ज़फ़र](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/4F26/production/_123226202_whatsappimage2022-02-11at2.44.49pm-2.jpg)
काफ़ी मशक्कत के बाद शहज़ादे हथियार डालने के लिए हुए राज़ी
हॉडसन मकबरे से आधा मील पहले ही रुक गए. उन्होंने बादशाह के भतीजे और अपने मुख्य ख़ुफ़िया अधिकारी रजब अली को इस संदेश के साथ शहज़ादों के पास भेजा कि वो बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दें वरना परिणाम झेलने के लिए तैयार रहें.
हॉडसन अपनी किताब में लिखते हैं कि उनके नुमाएदों को शहज़ादों को हथियार डालने के लिए मनाने में काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी.
![कैप्टन विलियम हॉडसन](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/7636/production/_123226203_whatsappimage2022-02-11at2.44.50pm-1.jpg)
आधे घंटे बाद शहज़ादों ने हॉडसन को संदेश भेजकर पूछा कि क्या वो उन्हें न मारने का वादा करते हैं?
हॉडसन ने इस तरह का कोई वादा करने से इनकार कर दिया और उनके बिना शर्त आत्मसमर्पण करने की बात दोहराई.
इसके बाद हॉडसन ने शहज़ादों को उन तक लाने के लिए दस सैनिकों का एक दल भेजा.
बाद में लेफ़्टिनेंट मेक्डॉवेल ने लिखा, ‘थोड़ी देर बाद तीनों शहज़ादे बैलों द्वारा खींचे जा रहे एक छोटे रथ पर सवार हो कर बाहर आए. उनके दोनों तरफ़ पाँच सैनिक चल रहे थे. उनके ठीक पीछे दो से तीन हज़ार लोगों का हुजूम था.
उन्हें देखते ही मैं और हॉडसन अपने सैनिकों को पीछे छोड़ कर उनसे मिलने अपने घोड़ों पर आगे बढ़े. उन्होंने हॉडसन के सामने सिर झुकाया. हॉडसन ने भी सिर झुका कर जवाब दिया और रथ चालकों से कहा कि वो आगे बढ़ते चले आएं. उनके पीछे भीड़ ने भी आने की कोशिश की लेकिन हॉडसन ने अपना हाथ दिखा कर उन्हें रोक दिया. मैंने अपने सैनिकों की तरफ़ इशारा किया और क्षण भर में उन्होंने भीड़ और रथ के बीच पोज़ीशन ले ली.’
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![कैप्टन विलियम हॉडसन अपने सैनिकों के साथ](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/C456/production/_123226205_whatsappimage2022-02-11at2.44.51pm.jpg)
हॉडसन ने सिगरेट पीकर बेफ़िक्र होने का दिया आभास
शहज़ादों के साथ उनके हथियार और बादशाह के हाथी, घोड़े और वाहन भी बाहर लाए गए जो पिछले दिन बाहर नहीं आ पाए थे.
शहज़ादों ने एक बार फिर पूछा कि क्या उन्हें जीवनदान दिया जा रहा है?
हॉडसन लिखते हैं, ‘मैंने इसका जवाब दिया ‘बिल्कुल नहीं’ और उन्हें अपने सैनिकों की निगरानी में शहर की तरफ़ रवाना कर दिया. मैंने सोचा कि जब शहज़ादों ने आत्मसमर्पण कर ही दिया है तो क्यों न मकबरे की तलाशी ली जाए. वहाँ हमें छिपाई गईं करीब 500 तलवारें मिलीं. इसके अलावा वहाँ कई बंदूकें, घोड़े, बैल और रथ भी थे.
मेक्डॉवेल ने कहा कि उनका वहाँ रुकना अब ख़तरे से ख़ाली नहीं है. फिर भी हम वहाँ करीब दो घंटे रुके. इस बीच मैं लगातार सिगरेट पीता रहा ताकि उन लोगों को आभास मिले कि मैं ज़रा भी परेशान नहीं हूँ.’
थोड़ी देर में हॉडसन और मेक्डॉवेल अपने उन सैनिकों से जा मिले जो शहज़ादों को अपनी निगरानी में शहर की तरफ़ ले जा रहे थे.
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‘अली का मुक्का पड़ जाता तो मैं ज़िंदा नहीं रहता!’
![बहादुर शाह ज़फ़र](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/EB66/production/_123226206_whatsappimage2022-02-11at2.44.49pm.jpg)
हॉडसन ने तीनों शहज़ादों को दो–दो गोलियाँ मारीं
बाद में हॉडसन और मेक्डॉवेल दोनों ने लिखा कि जब वो शहर की तरफ़ लौट रहे थे तो उन्हें ख़तरा महसूस हुआ.
अमरपाल सिंह कहते हैं ‘जब वो दिल्ली से पाँच मील दूर थे हॉडसन ने मेक्डॉवेल से पूछा, इन शहज़ादों का क्या किया जाए? मेक्डॉवेल ने जवाब दिया ‘मैं समझता हूँ, हमें उन्हें यहीं मार देना चाहिए.’ हॉडसन ने उन रथों को वहीं रोकने का आदेश दिया. हॉडसन ने उन तीनों शहज़ादों को रथ से उतरने और अपने बाहरी कपड़े उतारने के लिए कहा.
कपड़े उतारने के बाद उन्हें फिर से रथ पर चढ़ा दिया गया. उनसे उनके ज़ेवर, अंगूठियाँ, बाज़ूबंद और रत्नों से जड़ी तलवारें भी ले ली गईं. हॉडसन ने रथ के दोनों तरफ़ पाँच पाँच सैनिक तैनात कर दिए. तभी हॉडसन अपने घोड़े से उतरे और अपनी कोल्ट रिवॉल्वर से हर शहज़ादे को दो दो गोलियाँ मारीं. उन सब की वहीं मौत हो गई.’
![द सीज़ ऑफ़ डेल्ही किताब के लेखक अमरपाल सिंह](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/13986/production/_123226208_whatsappimage2022-02-11at2.44.47pm-1.jpg)
शहज़ादों के शवों को सार्वजनिक जगह पर लिटाया गया
जब शहज़ादों से रथ से नीचे उतरने के लिए कहा गया तो वो बहुत आत्मविश्वास के साथ नीचे उतरे थे. उन्हें ये गुमान था कि हॉडसन सिर्फ़ अपने बल पर उन्हें मारने की जुर्रत नहीं कर सकते.
इसके लिए उन्हें जनरल विल्सन से अनुमति लेनी होगी. उन्होंने अपने कपड़े भी ये सोचते हुए उतारे कि शायद अंग्रेज़ दिल्ली की सड़कों पर बिना कपड़ों के घुमा कर उनकी बेइज़्ज़ती करना चाहते हैं.
थोड़ी देर बाद बादशाह के एक किन्नर और एक दूसरे शख़्स ने जिस पर कई लोगों की हत्या का आरोप था, वहाँ से भागने की कोशिश की लेकिन मेक्डॉवेल और उनके घुड़सवारों ने उनका पीछा कर उन्हें मौत की नींद सुला दिया.
बाद में मेक्डॉवेल ने लिखा, ‘तब तक 4 बज चुके थे. हॉडसन इन शहज़ादों के शवों को रथ में रखे हुए शहर में घुसे. उन्हें एक सार्वजनिक जगह पर ले जा कर एक चबूतरे पर लिटा दिया गया ताकि आम लोग उनका हश्र देख सकें. उनके शरीर पर कोई कपड़े नहीं थे. सिर्फ़ कुछ चीथड़ों से उनके गुप्ताँगों को छिपा दिया गया था. उनके शव वहाँ पर 24 सितंबर तक पड़े रहे. चार महीने पहले इसी जगह पर उन्होंने हमारी महिलाओं की हत्या की थी.’
![युद्ध की एक तस्वीर](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/01CE/production/_123226400_whatsappimage2022-02-11at2.44.50pm-2.jpg)
हॉडसन ने पत्र लिख कर स्वीकारा कि उन्होंने ही शहज़ादों की हत्या की
बाद में हॉडसन ने अपने भाई को पत्र लिख कर बताया, ‘मैंने भीड़ से कहा कि ये वही लोग हैं जिन्होंने हमारी मजबूर महिलाओं और बच्चों की हत्या की थी. सरकार ने उन्हें उनके काम की सज़ा दी है.
मैंने खुद एक के बाद एक उनको गोली मारी और आदेश दिया कि उनके शवों को चाँदनी चौक में कोतवाली के सामने के चबूतरे पर फेंक दिया जाए. मैं निर्दयी नहीं हूँ लेकिन मैं मानता हूँ कि मुझे इन लोगों को जान से मारने में बहुत आनंद आया.’
![साल 1857 का चांदनी चौक जहां शहजादों के शवों को रखा गया था](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/04EE/production/_123226210_whatsappimage2022-02-11at2.44.52pm.jpg)
बाद में रेवेरेंड जॉन रॉटेन ने अपनी किताब ‘द चैपलेन्स नेरेटिव ऑफ़ द सीज ऑफ़ डेल्ही’ में लिखा, ‘सबसे बड़े शहज़ादे की कदकाठी काफ़ी मज़बूत थी. दूसरा उससे उम्र में कुछ ही छोटा था. तीसरे शहज़ादे की उम्र बीस साल से अधिक नहीं रही होगी.
कोक राइफ़ल के एक गार्ड को उनके शवों की निगरानी के लिए लगाया गया था. उनके शव कोतवाली के बाहर तीन दिनों तक पड़े रहे. फिर उन्हें बहुत असम्मानजनक तरीके से कब्रिस्तान में दफ़ना दिया गया. शायद इसका कारण बदला रहा हो क्योंकि तीन महीने पहले विद्रोहियों ने अंग्रेज़ों के शवों को भी उसी जगह पर इन्हीं हालात में रखा था ताकि दिल्ली के लोग उन्हें देख सकें.’
![1857 के दौर की पुरानी दिल्ली](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/C0D2/production/_123226394_whatsappimage2022-02-11at2.44.51pm-1.jpg)
बाकी शहज़ादे भी पकड़े गए
27 सितंबर को ब्रिगेडियर शॉवर्स को दलबल के साथ बाकी ज़िंदा बचे शहज़ादों को पकड़ने के लिए भेजा गया.
उस दिन शॉवर्स ने तीन और शहज़ादों मिर्ज़ा बख़्तावर शाह, मिर्ज़ा मेंडू और मिर्ज़ा जवान बख़्त को हिरासत में लिया.
अक्तूबर के शुरू में बादशाह के दो और बेटों को पकड़ कर गोली से उड़ा दिया गया. उन दोनों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ विद्रोहियों की सेना का नेतृत्व किया था और उनपर अंग्रेज़ों का कत्लेआम करने के आरोप थे.
इस बीच एक अजीब सी घटना हुई. जब इन शहज़ादों को फ़ायरिंग स्कवाड द्वारा गोली मारी जा रही थी तो 60 राइफ़ल के जवानों और कुछ गोरखा सैनिकों की चलाई गई गोलियाँ इन शहज़ादों को या तो लगीं नहीं या सिर्फ़ उन्हें घायल भर कर पाईं.
लेकिन इसके बाद एक प्रोवोस्ट सार्जेंट ने इन शहज़ादों के सिर में गोली मार कर उनकी प्राणलीला समाप्त कर दी.
लेकिन कर्नल ई एल ओमनी ने अपनी डायरी में लिखा कि ‘गोरखा सैनिकों ने जानबूझ कर शहज़ादों के शरीर के निचले हिस्से में गोली चलाई ताकि उन्हें और तकलीफ़ हो और वो दर्दनाक मौत मरें.’
उस समय उन्हें गंदे कपड़े पहनने के लिए मजबूर किया गया था लेकिन उन्होंने अपनी मौत का सामना बहादुरी से किया.
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![1857 की जंग के बाद कश्मीरी गेट का हाल](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/10EF2/production/_123226396_73b9d450-d374-4860-91b1-765de30effff.jpg)
दो शहज़ादों को सिख रिसालदार ने बचाया
लेकिन बहादुर शाह ज़फ़र के दो बेटे मिर्ज़ा अब्दुल्लाह और मिर्ज़ा क्वैश अंग्रेज़ों के चंगुल से भाग निकलने में कामयाब हो गए.
दिल्ली की मौखिक कहानियों को जिन्हें उर्दू लेखक अर्श तैमूरी ने बीसवीं सदी के आरंभ में अपनी किताब ‘किला ए मुअल्ला की झलकियों’ में रिकॉर्ड किया था, में बताया गया था कि ‘दोनों मुग़ल शहज़ादों को एक सिख रिसालदार की देखरेख में हुमांयु के मकबरे में रखा गया था.
उस रिसालदार को इन शहज़ादों पर रहम आ गया. उसने उनसे पूछा कि तुम यहाँ क्यों खड़े हो? उन्होंने जवाब दिया कि साहिब ने हमें वहाँ खड़े होने के लिए कहा है.
उस सिख ने उन्हें घूरते हुए कहा अपनी ज़िदगी पर रहम खाओ. जब वो अंग्रेज़ लौटेगा तो तुम्हें पक्का मार डालेगा. तुम जिस दिशा में भाग सकते हो भागो और साँस लेने के लिए भी न रुको. ये कहकर उस रिसालदार ने अपनी पीठ उनकी तरफ़ कर ली.
दोनों शहज़ादे अलग अलग दिशाओं में दौड़ पड़े.’ बाद में मीर क्वाएश किसी तरह फ़कीर के भेष में उदयपुर पहुंचने में सफल हो गए जहाँ के महाराजा ने उन्हें संरक्षण देते हुए दो रुपए रोज़ के वेतन पर अपने यहाँ रख लिया. हॉडसन ने क्वाएश को ढ़ूढ़ने में एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया लेकिन उसे सफलता नहीं मिल सकी.
![बहादुर शाह ज़फ़र का दरबार](https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/13602/production/_123226397_whatsappimage2022-02-11at2.44.49pm-1.jpg)
बहादुर शाह ज़फ़र का दूसरा बेटा अब्दुल्ला भी अंग्रेज़ों के हाथ नहीं लगा और उसने अत्यंत ग़रीबी में अपनी पूरी ज़िदगी टोंक रियासत में बिताई. बहादुर शाह के बाकी बेटों को या तो फाँसी दे दी गई या काला पानी में लंबी सज़ा काटने के लिए भेज दिया गया.
कुछ शहज़ादों को आगरा. कानपुर और इलाहाबाद की जेलों में बहुत कठिन परिस्थितियों में रखा गया जहाँ दो वर्ष के भीतर ही इनमें से अधिक्तर की मौत हो गई. अंग्रेज़ों ने बहादुर शाह ज़फ़र को न मारने के अपने वादे को पूरा किया. उन्हें दिल्ली से बहुत दूर बर्मा भेज दिया गया जहाँ 7 नवंबर, 1862 की सुबह 5 बजे उन्होंने अंतिम साँस ली.
लेखक- रेहान फजल, बीबीसी, संवाददाता द्वारा अशोक श्री वास्तव, सम्पादक News 51.in