कहावत पुरानी है पर, है सौ फीसद खरी, जब तक कमजोर हो तब तक साथ-साथ हैं और जरा भी हमसे आगे हुए तो फूटी आंख नहीं सुहाते। ये कहानी है वर्तमानकाल में विपक्षी दलों की, सभी कांग्रेस के कमजोर पड़ते ही मुख्य विपक्षी पार्टी बनने की होड़ में लगे हैं। जबकि सच्चाई आज भी यही है कि आज भी कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है और अभी सम्भवतः बिना कांग्रेस विपक्षी एकता दूर की कौड़ी है। इसकी शुरूआत ममता बनर्जी की पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की भारी जीत से शुरू हुई ममता बनर्जी की कांग्रेस पार्टी के प्रति कटुता और उनकी महत्वकांक्षा किसी से छिपी नहीं है उन्होंने ही कांग्रेस विहीन तीसरे मोर्चे की कवायद शुरू की और तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, केजरीवाल से मिलकर एक फ्रंट तैयार करना चाहा, उधर पंजाब में आम आदमी पार्टी की भारी जीत के बाद केजरीवाल की अपनी महत्वकांक्षा भी अब हिलोरें मारने लगी और यूपी चुनाव में सपा की हार के बाद ममता बनर्जी के अरमानों पर पानी फिर गया। वह कांग्रेस को चिढाने के लिए यूपी चुनाव में सपा गठबंधन के पक्ष में प्रचार करने भी यूपी पहुंची थीं ,उन्हें लग रहा था कि यूपी में इस बार सपा गठबंधन की सरकार बनेगी हालांकि लोग और वो स्वयंम जानती थी कि एक वोट भी उनके प्रचार से नहीं मिलना है लेकिन उन्हें तो कांग्रेस को चिढाना था, सो उन्होंने किया। सबसे बड़ी बात तो यह रही कि सभी दलों ने केजरीवाल की पार्टी की पंजाब में भारी जीत पर बधाई दी लेकिन ममता बनर्जी ने एक शब्द नहीं कहा और अंदरखाने अपने स्वभाव के मुताबिक केजरीवाल को भी अपनी राह का रोड़ा समझने लगी हैं। ममता बनर्जी और मायावती दोनों एक स्वभाव ( महत्वा कांक्षी और किसी को आगे बढते न देख पाने वाली) वाली राजनेता हैं ।इसका नजारा शुक्रवार को भी लोकसभा में देखने को मिला जहाँ दिल्ली के तीनों नगर निगमों को एक करने सम्बन्धी विधेयक पेश किया गया। मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस समेत सभी दलों ने इस विधेयक को भारत के संघीय ढांचे पर कुठाराघात बताते हुए विरोध किया वहीं ममता बनर्जी की पार्टी जो भाजपा हर बात का विरोध करने में आगे रहती थी इस विधेयक पर विरोध तक नहीं दर्ज कराया। सम्पादकीय -News 51.in