Monday, December 23, 2024
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आजमगढ- अतीत के झरोखों से भाग- 7

आजमगढ़ अतीत के झरोखो से – vol – 7

रानी धर्मभ्रष्ट नही हुई थी , ऐसा उसने शायद अपनी माँ से भी नही बताया (जिससे बुढिया पर आंच न आये ) लोगो ने भी उसे इस आधार पर क्षमा कर दिया होगा कि जानबूझकर तो रानी ने कुछ किया नही , हाँ हरिबंश सिंह उसे धर्मभ्रष्ट समझते रहे | गम्भीर सिंह सचमुच धीर गंभीर एवं बहादुर थे , उन्होंने थोड़ी दूर पश्चिम हटकर अस्थायी निवास बनाया | हरिबंश सिंह के नाते ठाकुर लोग उनके विरुद्ध थे | पूरी तरह से मुसलमानी पैट्रन के बावजूद गम्भीर सिंह ने अपना न धर्म बदला न नाम | वे शान से अपने को गौतम ठाकुर कहते थे , यह ठाकुरों को पसंद नही था | गम्भीर सिंह बहुत जिद्दी थे – ठाकुरों को चिढाने की प्रतिक्रिया स्वरूप उन्होंने धन – जमीन की लालच देकर बड़ी संख्या में हिन्दुओ को मुस्लिम बनाने का अभियान चलाया , इस पर कई बार लड़ाई – मारपीट हुई थी | मीरा शाह और निजामुद्दीनशाह के ही समान मेहनगर क्षेत्र में पहुचे सूफी संत फतेह बहादुर साहब कलंदर रहते थे , उनका क्षेत्र में बहुत आदर था ( कलंदरपुर गाँव आज भी है ) मुग़ल शहजादा मुराद ( इलाहाबाद का सूबेदार ) उन्हें अपना गुरु मानता था उनसे मिलने वह कलन्दरपुर आया जहाँ अपार जन समूह उमड़ा | गम्भीर सिंह ने मौक़ा ताककर पूर्वी हिस्से में सिंहपुर की तरफ रुख किया और वहाँ जबरन लोगो को मुसलमान बनाने का अभियान चलाने लग गये | वहाँ के ठाकुरों को यह बात बहुत बुरी लगी , वे विरोध करने मौके पर पहुचे और गम्भीरसिंह को घेर लिया , ठाकुरों ने हथियार छुपा रखा था | उसी भीड़ में से किसी ने कटार घोप कर गम्भीर सिंह की हत्या कर दी | जब तक मेहनगर से लाव लश्कर आये तब तक वे पलायित हो गये , न भीड़ की शिनाख्त हुई न हत्यारे की |
गम्भीर सिंह वही दफनाये गये , इस ”कब्र को सिंह जी की कब्र” कहा जाता रहा है | प्रजा हरिबंश सिंह को देखना नही चाहती थी | गम्भीर सिंह की हत्या और ज्योति का चले जाना उनके टूट जाने का कारण बना | अब तक वे बहुत अच्छा बुरा कर चुके थे | वे स्वंय गये और ज्योति कुवर को मनाया | हिन्दू स्त्री पति को गगाधर मानती है | उसमे नालियों – नालो से गंदगी मिल जाए पर फिर भी वह ग्राह्य होता है | कहने को राजा अब भी हरिबंश सिंह ही थे पर सारा राज – काज धरणीधर सिंह देखते थे | ज्योति कुवर के सानिध्य के नाते प्रजा उनको आदर देती थी मगर उनमे वह वीरता नही थी जो राज्य की सुरक्षा कर सकती | उन्होंने झगड़ा झन्झट से बचते हुए खुद को मेहनगर में समेट लिया – उनकी सिधाई का फायदा उठाकर पश्चिमोत्तर के ठाकुरों ने बेलौस भूमि पर कब्जा जमाना प्रारम्भ कर दिया घुसते – घुसते वे भवरनाथ हीरापट्टी तक फ़ैल गये | इन लोगो में घनी एकता थी सेना कमजोर थी | हरिबंश के लिए उन्होंने राज के मध्य में एक किला बनवाने की बात सोचा | मेहनगर किला हरिबंश सिंह ने ही बनवाया था और इसका उन्हें अच्छा अनुभव था | निरीक्षण के दृष्टिकोण से वे आजमगढ़ आये | अस्थायी रूप से उन्होंने तमसा के दक्षिणी किनारे पर अपना अस्थायी डेरा बनाया और किला निर्माण के लिये भूमि चुनाव करने लगे | सबसे बड़ी बाधा तमसा नदी थी जो नागिन की तरह कुंडली मारे थी पुल केवल एक था शेरशाह सूरी निर्मित | गहन पड़ताल के लिए समय अपेक्षित था अत: तमसा – किनारे एक उँचे टीले पर उन्होंने एक मिनी किला बनवाया ( आज जिलाधिकारी निवास ) इस क्षेत्र का नाम आज भी हरिबंशपुर है | मेहनगर में राजकाज देख रहे धरणीधर सिंह के तीनो पुत्र विक्रमादित्य ( विक्रमाजीत ) नारायणदत्त रुद्रप्रताप सिंह बड़े हो गये थे , उनकी भी आपस में नही पटती थे , वे बारी – बारी आकर बाबा से शिकायत करते थे और बाट-बखरा का जोर लगाते इनमे बड़े विक्रमादित्य परम उदण्ड थे वे अपने बाबा हरिबंश सिंह पर गये थे – वही अकड जिद और हथलपकी | अपने मन की न होने पर आक्रामक रवैया अपना कर वह किसी की इज्जत नोच सकते थे | उन्होंने हरिबंश सिंह की नाक में चुना भर दिया कि अपने रहते तीनो भाइयो की अलगाव और व्यवस्था कर दीजिये | नियमानुसार तो हरिबंश ही राजा थे और धरणीधर घरेलू वैकल्पिक व्यवस्था के अंतर्गत राज चला रहे थे , इसीलिए मजबूर होकर हरिबंश सिंह को किला परियोजना छोड़कर मेहनगर लौट जाना पडा विक्रमादित्य को परम्परागत उत्तराधिकार नियम के कारण मेहनगर में ही रहने दिया नारायणदत्त को उन्होंने अमकर ह्नुवा की और रुद्रप्रताप को बछवल की उप जागीरदारी सौपी | तीनो भाई अलग अलग रहने लगे नारायणदत्त और रुद्रप्रताप के विचार आपस में मिलते थे और दोनों ही अन्दर अन्दर विक्रमादित्य के दुश्मन थे , इन्हें लगता था कि जिस दिन विक्रमादित्य को राज पाट मिलेगा उनका जीना मुश्किल हो जाएगा |
सन्दर्भ – आजमगढ़ का इतिहास – राम प्रकाश शुक्ल निर्मोही
विस्मृत आजमगढ़ इतिहास के पन्नो पर – हरिलाल शाह
प्रस्तुती सुनील दत्ता – स्वतंत पत्रकार – समीक्षक

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