क्या समाज में अमीरी — गरीबी दैवीय प्रतिफल है ?
आधुनिक समाज में अमीरी की सीढियों पर लोगो को चढ़ते देखकर कोई भी समझ सकता है की यह न तो किसी दैवीय शक्ति का प्रतिफल है , न ही किसी धनाढ्य बने व्यक्ति के स्वंय के मेहनत — मशक्कत का परिणाम आम तौर पर लोग यह कहते हुए मिल जायेंगे की समाज में मौजूद अमीरी — गरीबी सदा से चली आ रही है और वह चलती रहेगी |वह कभी खत्म नही होगी | समाज में इस मान्यता को सदियों से स्थापित करने करनमें समाज के धनी — मानी लोगो और हुकुमतो के साथ — साथ धार्मिक गुरुओं ,विद्वानों व धार्मिक लीडरो का भी हाथ रहा है | क्योंकि दुनिया के सभी धर्मोमें समाज में किसी व्यक्ति या वर्ग के अमीर या साधन सम्पन्न होने तथा दूसरे व्यक्ति या वर्ग के गरीब व साधनहीन होने की धार्मिक मान्यता मिली हुईहै | यह धार्मिक मान्यता यह स्वीकार करती है कि , अमीरी — गरीबी ईश्वर की बनाई हुई है | वह जिसे चाहता है अमीर बना देता है , जिसे चाहता है गरीब बना देता है | हिन्दू धर्म में इसे ईश्वर द्वारा दिया गया पूर्व जन्म के कर्मो का सुफल या कुफल माना जाता है | तो इस्लाम में उसे खुदा की मर्जी का प्रतिफल मान जाता है | कमोवेश यही स्थिति बाकी धर्मो की है |
वर्तमान जनतांत्रिक समाज के विद्वान् , बुद्धिजीवी व अर्थशास्त्री आमतौर पर इन धार्मिक अवधारणाओ का खण्डन नही करते | लेकिन वे अर्थशास्त्रीय पाठो व प्रचारों में किसी के अमीर होने को उसके उद्यम , क्रियाशीलता और हिम्मत का परिणाम बताते रहते है | इन धार्मिक व अर्थशास्त्रीय अवधारणाओ के फलस्वरूप वर्तमान समाज में आमतौर पर अमीरी को भाग्य , कर्मठता और दूरदर्शिता आदि का परिणाम मानने के साथ — साथ गरीबी को भाग्यहीनता अकर्मण्यता अदुर्द्र्शिता आदि का परिणाम मान लिया जाता है | जनसाधारण में आधुनिक युग की बुनियाद आर्थिक गतिविधियों के बारे में आम तौर पर फैली अज्ञानता और उपर से धनाढ्य वर्गो द्वारा चलाए जाते रहे पाठ — प्रचार समाज में अमीरी — गरीबी के बटवारे को न्याय संगत तथा आवश्यक साबित करते रहते है | उदाहरण — ” अमीरी — गरीबी दोनों के बिना समाज की गाडी नही चल सकती ” दोनों एक दूसरे के विरोधी न होकर पूरक है , जैसे तमाम प्रचार आम समाज में चलते रहते है | लेकिन यह भी सच है की आधुनिक युग में ऐसे पाठो — प्रचारों को चलाने — बढाने का आधार समाज में पहले से ही मौजूद रहा है समाज में अमीरी — गरीबी को हमेशा से मौजूद रहने के साथ उसे दैवीय इच्छा का परिणाम या प्रतिफल माननेके रूप में यह आधार सदियों से मौजूद रहा है | यह बात एकदम सच है की मध्य
युग के धर्म गुरुओं व धार्मिक रहनुमाओं में विद्यमान यह अवधारणा उस युग की कही कम विकसित परिस्थितियों के अनुरूप थी | मध्य युग या उससे पहले के युगोंमें प्रकृति व समाज की हर घटना को आम तौर पर दैवीय इच्छा के प्रतिफल के रूप में ही माना व समझा जाता था | खासकर 16 वी शताब्दी से प्रकृति व समाज केविभिन्न क्षेत्रो में चल रही वैज्ञानिक खोजो , अनुसन्धानो ने सदियों पुरानी धार्मिक सामाजिक मान्यताओं को एक के बाद दूसरे क्षेत्र से हटाना शुरू किया | एक के बाद एक एक घटना को दैवीय मानने की जगह उसे प्राकृतिक व सामाजिक शक्तियों का प्रतिफल समझा व माना जाने लगा |
उदाहरण ——— 1789 में हुई फ्रांसीसी क्रान्ति ने किसी वस्तु व्यक्ति या संस्था आदि को आँख मुदकर मान्यता देने की जगह हर चीज को तर्क व प्रबुद्धता की कसौटी पर कसकर समझने व मानने की वैज्ञानिक अवधारणा खड़ी कर दी || फ्रांसीसी क्रान्ति ने राजा व उसके राज्य को ईश्वरीय सत्ता का अंग मानने की अवधारणा को ही खारिज कर दिया | साथ ही राजा को ईश्वर का दूत या पुत्र मानने से भी इनकार कर दिया | राजा के हितो तथा धर्म के वसूलो व नियमो के अनुसार राज्य की स्थापना व संचालन की मान्यता को बलपूर्वक रद्द कर दिया गया | राजशाही के साथ — साथ पुरोहित शाही का भी अन्त कर दिया गया | वास्तविक अर्थो में धर्म
— निरपेक्ष राज्य की स्थापना कर दी गयी | राज्य को राष्ट्र की समस्त जनताका प्रतिनिधि घोषित कर दिया गया | लेकिन राजा व सामन्ती प्रभुओं की सम्पत्ति का अन्त करते हुए भी इस दौर की क्रांतियो ने समाज में अमीरी — गरीबी के बटवारे को नकारा नही ,, उल्टे उसे नए रूपों में बढावा दिया | यूरोपीय देशो के जनतांत्रिक क्रांतियो के फलस्वरूप जंहा समाज में आधुनिक उद्योग व्यापार के धनाढ्य मालिको का सर्वाधिक साधन सम्पन्न अल्पसंख्यक वर्ग खड़ा होता गया वही दूसरी तरफ अपनी श्रमशक्ति बेचकर जीने वाले स्वतंत्रकिन्तु साधनहीन मजदूरों का बहुसंख्यक वर्ग समूह भी खड़ा होता गया | आधुनिकयुग में विश्व के हर देश में आधुनिक विकास के साथ यह प्रक्रिया निरंतरबढती जा रही है | इसलिए आधुनिक समाज के अगुवा बने धनी — धनाढ्य हिस्सों और उनके समर्थक राजनितिक व बौद्धिक हिस्सों से समाज में सदियों से विद्यमान अमीरी — गरीबी घटाने — मिटाने की कोई बात सुनना व करना एकदम बेमानी है | न ही उनसे समाज में अमीरी — गरीबी को दैवीय इच्छा का परिणाम या प्रतिफल होने की अवधारणा का खंडन किए जाने की कोई उम्मीद की जा सकती है | उल्टे उनसे अमीरी — गरीबी के शाश्वत होने और बने रहने की धार्मिक अवधारणाओ का समर्थन करने के साथ उन्हें पुष्ट करने के अर्थशास्त्रीय पाठो — प्रचारों को चलाने की ही उम्मीद की जा सकती है | यही काम वो कर रहे है | धनाढ्यो द्वारा धर्म के उपदेशो — प्रचारों को बढावा देने का यह एक प्रमुख उद्देश्य है की धर्म — भीरु जनसाधारण समाज अपनी गरीबी को अपने कर्मो का फल या ईश्वरीय इच्छा मान कर उसे चुपचाप बर्दाश्त करती रहे | पहले के युगों में गुलाम — मालिको के विरुद्ध गुलामो के संघर्ष से फिर राजशाही , पुरोहितशाही के विरुद्ध मदरसों रियाया तबको एवं अन्य प्रजाजनों के संघर्ष से प्रेरणा लेकर अपनी मुक्ति के लिए आधुनिक धनाढ्य वर्गो के विरुद्ध विद्रोह व संघर्ष न करे | न ही उनके स्वार्थ्साध्क व संरक्षक बने आधुनिक जनतांत्रिक या फिर सामन्ती व मिलिट्री तानाशाही वाले राज्य के विरुद्ध बगावत पर उतरे |
सभी धर्मो के धनाढ्य धार्मिक नेता व धर्मगुरूओ का भी यहीलक्ष्य है | उन्हें मुख्यत: इसी लक्ष्य से समाज में अमीरी — गरीबी की मौजूदगी को शाश्वत बताने और ईश्वरीय इच्छा का प्रतिफल बताने का काम जरुर करना है | क्योंकि वे महज धर्म गुरु या धर्म के नेता ही नही अपितु धनाढ्य धर्मगुरु या धनाढ्य धार्मिक नेता व प्रवक्ता भी है | पहले के राज — पुरोहितो की तरह वे आधुनिक युग के धनाढ्य वर्गीय पुरोहित या धर्मगुरु है | जहा तक आम समाज के औसत गरीब धार्मिक नेताओं या धार्मिक प्रवक्ताओ द्वारा समाज में अमीरी — गरीबी को दैवीय इच्छा बताने का मामला है तो इसमें उनकी अपनी सोच समझ नही , बल्कि जान बुझकर अज्ञानी बने रहने की प्रकृति झलकती है | शायद उन्हें इस बात का डर लगा रहता है की इस अवधारणा का खंडन कर देने से — धर्म का तथा ईश्वर या खुदा का ही खण्डन हो जाएगा | उनका यही डर और धनाढ्यता के प्रति लगाव उन्हें सच कबूलने व बोलने से रोकती है | हालाकि यह बात आम धर्मवादियों को भी तथा धर्म भीरु जनसाधारण के लिए भी समझना कत्तई मुश्किल नही है की धार्मिक मान्यताओं के हिसाब से भी ईश्वर या खुदा ने ” आदम — हव्वा ” अथवा ” मनु — सतरूपा ” के साथ दास — दासियों को नही भेजा था | अर्थात अमीर व गरीब को उपर से नीचे नही उतारा था | इसलिए उन्हें मानव समाज बनने के धार्मिक कथानको को मानते हुए भी समाज में अमीरी व गरीबी के साधन सम्पन्नता व साधनहीनता के तथा मालिक व कमकर के बटवारे को उत्पादन व उसके साधनों के विकास के साथ — साथ होते रहे सामाजिक विकास का ही प्रतिफल मानना चाहिए न की उसे किसी दैवीय शक्ति के इच्छाओं का प्रतिफल माना चाहिए |
फिर इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है की आधुनिक समाज में अमीरी की सीढियों पर लोगो को चढ़ते देखकर कोई भी समझ सकता है की यह न तो किसी दैवीय शक्ति का प्रतिफल है न ही किसी धनाढ्य लोगो द्वारा बहुसंख्यक कमकर समुदाय के श्रमशक्ति के शोषण का अर्थात कमकरो की श्रमशक्ति से प्राप्त समस्त उत्पादन के एक हिस्से को मजदूरी या वेतन के रूप में देने के बाद शेष समस्त उत्पादन को अपने नाम करते रहने का परिणाम है | साथ ही उसकी धनाढ्यता दुसरो के संसाधनों व उत्पादनों के लूट का भी परिणाम है | इसी का परीलक्षण है की दुनिया के बहुसंख्यक मेहनतक्ष हिस्से दिन रात मेहनत करने के वावजूद अमीर नही बन पाते और अमीर या मालिक बने लोग श्रम नही करते | मालिकाना बढने के साथ — साथ वे स्वंय श्रम करने से बहुत दूर हो जाते है | साथ ही दुसरो के श्रम पर धनाढ्य एवं उच्च बनने के साथ — साथ समाज के कामचोर , हरामखोर , मुनाफाखोर वर्ग बनते जाते है | समाज में अमीरी के बनने बढने की यह प्रक्रिया केवल आधुनिक नही है | बल्कि प्राचीन एवं मध्ययुगीन भी है | इस प्रक्रिया के फलस्वरूप ही समाज का धनी व गरीब में बटवारा विभिन्न रूपों एवं चारित्रिक विशेषताओं के साथ बढ़ता रहा है | इसलिए गरीबी व साधनहीनता की दिशा में बढ़ते हुए जनसाधारण को तथा आम समाज में रह रहे साधारण धार्मिक गुरुओ धार्मिक नेताओं को कम से कम बात जरुर खारिज कर देना चाहिए की समाज का अमीरी — गरीबी का बटवारा किसी दैवीय शक्ति का प्रतिफल है | साथ ही उन्हें इस धार्मिक अवधारणा को धनाढ्यो की शोषण लूट से बढती रही धनाढ्यता को न्याय संगत बताने वाला एक पर्दा व हथकंडा भी घोषित कर देना चाहिए |
- सुनील दत्ता —— स्वतंत्र पत्रकार – समीक्षक