Thursday, December 26, 2024
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अखिलेश यादव क्या वास्तव में परिपक्व राजनीतिझ हैं?

मुलायम सिंह यादव ने जब अपने लक्ष्मण जैसे छोटे भाई के स्थान पर अपने पुत्र अखिलेश यादव को समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष बनाया था तब सभी को ऐसा लग रहा था कि एक ऐसा पढा लिखा युवा नेता मुलायम सिंह यादव की पुरानी सोच से पार्टी को निकाल कर एक नया और जोश से भरा चेहरा पार्टी को आगे ले जाएगा। सरकार बनने के बाद मुख्य मंत्री बने अखिलेश यादव ने शुरूआत भी काफी अच्छे ढंग से की। अपराधी और दबंग और दागदार छवि के नेताओं से दूरी बना कर उन्होंने अपनी छवि को जनता में और चमकाया। आगरा हाईवे, लखन ऊ में मेट्रो, और लोहिया पार्क आदि कामों से खूब सुर्खियां बटोरी और जनता के दिल में जगह बनाई।

इस बीच 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में राम मंदिर निर्माण, और कांग्रेस के तथाकथित भ्रष्टाचार, और महंगाई तथा मोदी के लुभावने भाषणों ने ऐसा समां बांधा मानो पूरे देश में हर गलती के लिए कांग्रेस जिम्मेदार हो।2014 के चुनाव में कांग्रेस पूरे देश में साफ हो गई। चूंकि बात यहां उत्तर प्रदेश के राजनीति की हो रही है। 80 सीट वाले उत्तर प्रदेश में 2सीट पर कांग्रेस और 5सीट पर समाजवादी पार्टी जीती।मायावती की पार्टी का खाता तक नहीं खुला। इस सबके बीच चाचा शिवपाल यादव को मंत्रीपद से हटा कर और क ई मौकों पर समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं के और मुलायम सिंह यादव के सामने दोनों में माईक की छीना-झपटी से लेकर निम्नस्तरीय जुबानी जंग और कार्य कर्ताओं के दो फाड़ होने और जिंदाबाद, मुर्दाबाद के नारे लगाने जैसी बातें खुलकर होने लगी। मुलायम सिंह यादव का ढुलमुल रवैया ,कभी शिवपाल यादव की तरफ, कभी अखिलेश यादव की तरफ दिखना भी पार्टी के कार्यकर्ताओं को दिशाभ्रमित करता रहा। अखिलेश यादव ने कुछ अच्छे काम किए थे जिसके कारण उन्हें यह लग रहा था कि शिवपाल यादव मेरा कुछ नहीं कर पाएंगे। भाजपा का सहारा पाकर शिवपाल यादव ने अपनी अलग पार्टी “प्रगति शील समाजवादी पार्टी लोहिया “का गठन किया और भाजपा से खादपानी पाकर अखिलेश यादव से रुठे और उपेक्षित मजबूत यादव, मुस्लिम तथा अन्य नेताओं का शिवपाल यादव ने खुले दिल से स्वागत किया। उन्होंने अकेले उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही प्रशांत किशोर की देखरेख में कांग्रेस से तालमेल कर लिया। दो युवा लडको के जोश में खुश हुई कांग्रेस ने एकबार फिर समाजवादी पार्टी से तालमेल कर लिया। नतीजा मोदी लहर ने एक बार फिर इस गठबंधन का सफाया कर दिया और उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी।

कहावत है बुरे दौर में ही आदमी के असल कौशल, बुद्धि और विवेक का इम्तहान होता है। अखिलेश यादव को लगा कि कांग्रेस से गठबंधन करना उत्तर प्रदेश में लाभकारी नहीं है। कुछ उपचुनावों में समाजवादी पार्टी को मायावती की पार्टी ने समर्थन किया था जिससे समाजवादी ने विजय हासिल किया था उन उपचुनावों में जीत से मानो सपा-बसपा को एक जीत का मंत्र मिल गया और दोनो अखिलेश और मायावती को लगा कि हम दोनों मिलकर उत्तर प्रदेश में क्लीन स्वीप कर लेंगे। बस यहीं पर अखिलेश यादव ने अपने स्तर से नीचे जाकर मायावती से मुलाकात करना और अपने आप को पूरी तरह मायावती के सामने नतमस्तक हो जाना उनके खास समर्थक कार्य कर्ताओं को भी नहीं पच रहा था अगर थोड़ा भी मायावती पर दबाव बना कर 8-10 सीटें कांग्रेस को दिलाने के लिए अडे होते तो शायद यह बेहतर रणनीति होती। लेकिन वह तो जैसे पूरी तरह मायावती के सामने नतमस्तक हो चुके थे और चुनाव प्रचार में कांग्रेस की बुराई मायावती को खुश करने के लिए करते रहे। मान लीजिए मायावती 30-32 सीट जीत कर प्रधान मंत्री बनने का सपना देखने लगी थीं लेकिन अखिलेश यादव को तो यह सोचना चाहिए था कि बिना कांग्रेस या भाजपा के साथ हुए केंद्र की सत्ता नहीं पा सकते। बार -बार काठ की हाँडी (तीसरा मोर्चा का सत्ता में आना) नहीं चढती । दूसरे मायावती और अखिलेश दोनों ने रायबरेली, अमेठी में अपना प्रत्याशी नहीं खडा किया किंतु खुलकर समर्थन भी नहीं किया। मायावती ने तो अंदर- अंदर उन दोनों सीटों पर कांग्रेस को हराने का खेल भी खेला। कांग्रेस अमेठी हारी किंतु गठबंधन को क ई सीटों पर कांग्रेस के कारण हारना भी पड़ा। यह पता ही नहीं चल रहा था कि गठबंधन चुनाव भाजपा के खिलाफ लड रहा है कि कांग्रेस के खिलाफ। पूरे चुनाव प्रचार में मायावती कांग्रेस के खिलाफ ज्यादा और भाजपा के खिलाफ कम बोली। अखिलेश यादव और डिम्पल की स्थिति पूरे प्रचार में मायावती के पिछलग्गू जैसी रही। मायावती के आवास पर अखिलेश यादव मिलने बार-बार जाते रहे मायावती एक बार भी अखिलेश यादव के आवास पर नहीं गयीं ।अजीत सिंह की स्थिति तो बेहद हास्यास्पद रही। जबकि हर लिहाज से समाजवादी पार्टी बसपा से हर मायने में श्रेष्ठ है।

तीसरी बड़ी गलती अखिलेश यादव से यह हुई जहाँ सपा के नेताओं ने विधानसभा चुनाव की तैयारीयां अपने -अपने क्षेत्रों में की थी और वह क्षेत्र बसपा के खाते में गया वहाँ के सपा नेताओं ने बसपा का विरोध किया क ई कद्दावर नेताओं ने कांग्रेस और क ई ने भाजपा का दामन थाम लिया। वहां सपा कार्यकर्ताओं ने बेमन से गठबंधन का साथ दिया।

अब भी मायावती की आंख नहीं खुली है अभी भी वह अपनी बिरादरी के लोगों को भेडबकरी समझ रही हैं जबकि जमीनी हकीकत उससे अलग है। उन्होंने प्रेस कांफ़्रेंस कर हार का ठीकरा यादव बिरादरी पर फोड़ा है और उत्तर प्रदेश में 11 उपचुनाव पर अकेले अपने प्रत्याशी उतारने का एलान कर कहा है कि अखिलेश यादव अगर अपने लोगों को समझाने में कामयाब होंगे तो आगे गठबंधन पर विचार करेंगे। यानि अभी भी मायावती अपने को सबसे उपर मान कर अखिलेश यादव को सही और अच्छे से काम करने की हिदायत दे रही हैं। वह तो भला हो राम गोपाल यादव का, जिन्होंने साफ कहा है कि अगर सपा के लोग उन्हें वोट नहीं देते तो पूर्वांचल की सीटें बसपा कभी नहीं जीत पाती। अखिलेश यादव की गलती के कारण ही बसपा 10 सीट और सपा 5 सीट पाई। यानि पिछली बार 0 से मायावती 10 पर पहुंची और सपा पिछली बार की तरह 5 पर ही रह गयी। मायावती का एक और दिलचस्प रिकार्ड यह रहा है कि जो उनसे दब कर रहेगा वह उसी के साथ गठबंधन करती हैं और जिस पार्टी के साथ गठबंधन करती हैं वह तो कमजोर हो जाता है और मायावती उभर जाती है उदाहरण भाजपा, कांग्रेस और मुलायम सिंह यादव तीनों सामने हैं भाजपा ने बसपा से पिंड छुडाया तब जाकर मजबूत हुई। कांग्रेस बसपा और सपा से गठबंधन कर आज तक नहीं खडी हो पाई। अब अखिलेश यादव को भी सम्भलने में काफी समय लगेगा। बशर्ते अब बेहद समझदारी से कदम उठाऐंगे, तब अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब यही यादव समाज अखिलेश यादव की गलत चाल से छिटक कर कांग्रेस और भाजपा में चली जाय। ज्यादा मुफिद ठिकाना उनके लिए कांग्रेस ही रहेगी। मुझे न जाने क्यों बार -बार ऐसा लग रहा है कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सपा से छिटके दिग्गज यादव नेताओं को कांग्रेस संगठन में बड़ी जिम्मेदारी मिलने वाली है। अगर मेरी यह सोच सही होती है तो शायद उसके पीछे अखिलेश यादव की आगे की होने वाली गलतीयां ही मुख्य कारक होंगी

सम्पादकीय —

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