Thursday, December 5, 2024
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1947-स्वतंत्रता की असलियत -भाग- 2

1947 — स्वतंत्रता की असलियत

भाग — 2 ————–

राष्ट्र की औपनिवेशिक गुलामी से स्वतंत्रता का बुनियादी सवाल वस्तुत: औपनिवेशिक सम्बन्धो से मुक्ति का सवाल है | बड़ी विडम्बना है कि इस सम्बन्धो को खासकर आर्थिक राजनितिक सम्बन्धो को प्रमुखता देकर उससे देश की स्वतंत्रता का प्रश्न पहले भी बहुत कम उठा था | इसे क्रान्तिकारियो ने खासकर भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियो ने इस रूप में जरुर उठाया था कि काग्रेस का उद्देश्य देश को औपनिवेशिक सम्बन्धो से मुक्त कराना नही बल्कि डोमिनियन राष्ट्र का दर्जा लेकर ब्रिटिश हुक्मरानों से समझौता कर जाना है | यही हुआ भी | लेकिन उनकी आवाज बाद के दौर में खासकर1935 के सवैधानिक सुधारों के जरिये 1937 में काग्रेस व मुस्लिम लीग द्वारा प्रांतीय सरकारी की बागडोर सम्भालने के बाद समझौतावादी एवं सत्तावादी प्रचारों एवं प्रयासों द्वारा , कारगुजारियो द्वारा दबा दिया गया| फिर बाद के दौर में खासकर1947 के बाद के दौर में तो इसे और कम महत्व दिया गया या कहिये उपेक्षित ही कर दिया गया | राज प्राप्ति को ही स्वतंत्रता प्राप्ति का पर्याय बना दिया गया | जबकि इस बात में कही से कोई संदेह न तो था और न ही है कि ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने आर्थिक लाभ के लिए ही अर्थात इस देश की श्रम सम्पदा की लूट के लिए ही कम्पनी राज या ब्रिटिश राज की स्थापना किया था | देश को ब्रिटिश राज का गुलाम बना दिया था |

स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान इस आर्थिक लूट – पाट और उसके लिए कम्पनी द्वारा बनाये गये आर्थिक सम्बन्धो पर चर्चा तो होती रही , पर वह चर्चा आवश्यकता से बहुत कम हुई |
खासकर 20 वी शताब्दी की शुरुआत में काग्रेस के ब्योवृद्द नेता दादा भाई नौरोजी ने तो देश से धन की निकासी को लेकर महत्वपूर्ण पुस्तक भी लिखी | लेकिन , जैसे – जैसे भारतीय उद्योगपति का ब्रिटिश कम्पनियों के साथ ब्रिटिश पूंजी व तकनीकी के साथ समझौते बढ़ते रहे और जैसे – जैसे काग्रेस ( मुस्लिम लीग आदि ) को देश की शासन सत्ता पर चढने के अधिकारों में वृद्दि होती रही , वैसे – वैसे इन सम्बन्धो पर अर्थात विदेश द्वारा देश की औपनिवेशिक लूट के आर्थिक स्म्बव्न्धो पर चर्चा कमजोर पड़ती गयी |

क्योकि 1858 के बाद से खासकर 1900 के बाद से ही देश के धनाढ्य वर्गो का एवं उच्च पढ़े – लिखे तबको के एक हिस्से को ब्रिटिश राज द्वारा धन – पूंजी तथा शासन – प्रशासन की उंचाइयो पर चढने – बढने के अवसरों को बढ़ाया जाता रहा | नि:संदेह इन अवसरों को बढाने में राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए किये जाते रहे क्रांतिकारी एवं सुधारवादी संघर्षो आंदोलनों की भारी भूमिका भी जरूरी थी | उन आंदोलनों संघर्षो के फलस्वरूप देश के धनाढ्य हिस्सों को ब्रिटिश शोषण तथा अंग्रेजो द्वारा हिन्दुस्तानियों के प्रति अबराबरी व भेदभाव के व्यवहार से किसी हद तक मुक्ति भी मिलने लगी थी | उनके लिए अब देश के ससाधनो पर तथा सत्ता सचालन से लेकर अन्य सस्थाओं पर चढ़ते रहना ही देश की स्वतंत्रता का प्रमुख सवाल बन गया था | इसीलिए उन्होंने देश के नीचे के व्यापक शोषित – शासित आबादी को लूट व प्रभुत्व के सम्बन्धो से ब्रिटिश साम्राज्य के आर्थिक कुटनीतिक ,शैक्षणिक ,सांस्कृतिक सम्बन्धो से मुक्ति के सवाल को राष्ट्र की आजादी का प्रमुख सवाल नही बनाया |1947 में राजनितिक सत्ता प्राप्ति को पूर्ण स्वतंत्रता कहकर औपनिवेशिक लूट के बने व बचे रह गये सम्बन्धो पर पर्दा डाल दिया |

इस मुद्दे पर उस दौर के इतिहासकारों , राजनितिज्ञो एवं अन्य विद्वान् बुद्दिजीवियो में वस्तुत: कोई बुनियादी अंतर नही है | इसका सबसे बद्दा सबूत तो यही है कि इन सभी हिस्सों ने 1947 की स्वतंत्रता को ही पूर्ण स्वतंत्रता मानने व बताने का काम किया हुआ है | उन्होंने देश की स्वतंत्रता के सवाल को औपनिवेशिक दासता के आर्थिक , कुटनीतिक शैक्षिणक , सांस्कृतिक सम्बन्धो से मुक्ति के रूप में कोई महत्व नही दिया है | उस समय की कम्युनिस्ट पार्टी के लोगो द्वारा आजादी को नकली आजादी बताने का सवाल भी खुद कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा आगे नही बढ़ाया गया | और बाद में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा भी देश को विदेशी दासता से ( यानी दासता के सभी सम्बन्धो से ) से आजाद घोषित कर दिया गया | इसके अलावा जो वामपथी सगठन 1947 की स्वतंत्रता को राष्ट्र की आधी – अधूरी या साम्राज्यवाद के साथ सहयोग व सगठन बढाने वाली धनाढ्य वर्गीय स्वतंत्रता मानते हुए उनका विरोध करते रहे थे , उन्होंने भी इसे प्रमुखता देकर चर्चा का विषय नही बनाया |1947 में बने रह गये तथा 1980 के बाद से खुले रूप में बढाये जा रहे साम्राज्यी शोषण लूट एवं प्रभुत्व के सम्बन्धो से राष्ट्रमुक्ति के सवाल को अपना कार्यभार नही बनाया |

लेकिन किसी की उपेक्षा या उदासीनता से सच्चाई छुपने वाली नही है | राष्ट्र के परनिर्भरता एवं लूट- पाट के सम्बन्ध छिपने वाले नही है | उसका परिलक्षण विदेशी साम्राज्यी पूजी द्वारा विदेशी कम्पनियों द्वारा देश की श्रम सम्पदा के बढ़ते लूट के रूप में सामने आता भी जा रहा है | देश की धनाढ्य कम्पनियों एवं सरकारों द्वारा इसे चौतरफा बढ़ावा देने की भूमिकाये भी सामने आती जा रही है |

अत: अब राष्ट्र की परनिर्भरता के साथ बढ़ते परतंत्रता के आर्थिक राजनितिक सम्बन्धो से मुक्त कराने का दायित्व देश के जनसाधारण का ही बनता है |
अब देश के मजदूरो किसानो एवं अन्य मेहनतकश हिस्सों पर न केवल शोषण – उत्पीडन के सम्बन्धो से स्वंय मुक्त कराने का दायित्व है अपितु समूचे राष्ट्र को साम्राज्यी परतंत्रता के इन सम्बन्धो से मुक्त कराने का दायित्व भी है | सही बात तो यह है कि वह राष्ट्र को साम्राज्यी लूट और प्रभुत्व के सम्बन्धो से मुक्त कराए बिना देश का जनसाधारण अपने आपको शोषण उत्पीडन के सम्बन्धो से मुक्त नही करा सकता | इसलिए 1947 की स्वतंत्रता पर चर्चा करना उसकी जांच पड़ताल करना देश के जनसाधारण के लिए आवश्यक है |

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