वैसे तो कहने के लिए कांग्रेस का प्रदर्शन इस लोकसभा चुनाव में अच्छा हुआ है, लेकिन दर असल उतना अच्छा भी नहीं हुआ है, आज हम उन 13 राज्यों की बात करते हैं जहां कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला है साथ ही कांग्रेस के उन बडे़ नेताओं की भी बात करेंगे जो बडे़ नाम वाले हैं लेकिन जनाधार विहीन हैं और सिर्फ चाटुकारिता के बल पर आला कमान की आंखों के तारे बने।हुए हैं और जनाधार वाले नेताओं के पर कतरने के लिए कांग्रेस आला कमान के कान भरते रहते हैं पहले तो उन राज्यों की बात करते हैं जहां कांग्रेस को एक भी सीट लोकसभा की नहीं मिली है वे राज्य हैं अण्डमान निकोबार, दादर नागर हवेली, दमन एण्ड द्वीप, दिल्ली, आंध्र प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश, हिमांचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर , मध्य प्रदेश, सिक्किम, मिजोरम, लद्दाख, त्रिपुरा और उत्तराखंड । इसमें दिल्ली, आंध्र प्रदेश, हिमांचल, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर में एक भी सीट न जीत पाना विशेषकर चिंतनीय बात है क्योंकि हिमाचल में कांग्रेस की सरकार है, जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेस के साथ गठबंधन था। दिल्ली में आम आदमी पार्टी से विवादित और अमर्यादित गठबंधन था । चुनाव बाद लद्दाख से जीते निर्दलीय विधायक ने कांग्रेस का साथ दे दिया है, अलग बात है । सबसे चिंतनीय मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश में कांग्रेस का एक भी सीट न जीत पाना । इसके अलावा गुजरात में 1 सीट मात्र जीत पाना । अब कांग्रेस के उन स्वयंमभू नेताओं की बात करना बेहद जरूरी है जिनके कारण कांग्रेस की दुर्गति हो रही है जिनमें सबसे प्रमुख मध्य प्रदेश के दिग्विजय सिंह, हरियाणा के रणदीप सिंह सूरजेवाला, मणीशंकर अय्यर और अब कमलनाथ और अशोक गहलौत तथा प्रमुख हैं दिग्विजय सिंह तीन लोकसभा चुनाव लडे़ और करारी हार का सामना करना पडा़ और उनके षडयंत्र के कारण ही ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस छोड़ना पडा़ ,अन्यथा वो अगर मध्य प्रदेश के कमलनाथ के साथ मिलकर षडयंत्र न करते तो शायद आज भी मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार रही होती , पता नही कौन सी पट्टी राहुल गांधी को पढा कर अपने तो राज्यसभा में गये ही जिद करके विवेक तंखा को भी राज्यसभा का टिकट दिला दिया आजतक उनकी उपयोगिता समझ में नहीं आई ,वहीं कमलनाथ ने अखिलेश यादव को विधानसभा चुनाव में एक टिकट भी देने से मनाकर उनके बारे में अनाप-शनाप बोला उन्ही अखिलेश यादव ने यूपी में लोकसभा चुनाव में बडा़ दिल दिखाते हुए कांग्रेस की नैया के खेवनहार बने । अब अशोक गहलौत की बात करें तो जब सचिन पायलट के प्रदेश अध्यक्ष रहते विधान सभा चुनावों में कांग्रेस ने जीत हासिल की थी तो तिकड़म कर अशोक गहलौत ने सचिन को मुख्यमंत्री नही बनने दिया और स्वयम मुख्यमंत्री बन गये नतीजा 6 महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की बुरी हार हुई। अब बात करते हैं मणीशंकर अय्यर की तो लगता है उन्हे हर चुनाव में कुछ ऐसी बात जानबूझ कर बोल देते हैं जिसका लाभ भाजपा को मिल जाता है।रणदीप सुरजेवाला जनाधार विहीन नेता हैं लेकिन चापलूसी में माहिर हैं ।ऐसे ही एक बड़बोले नेता नवजोत सिंह सिद्धू हैं जिनके बारे में यह कहावत मशहूर है कि जिस पेड़ की डाल पर बैठते हैं उसी को काट देते हैं पहले राहुल गांधी के कान भर कर कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटवाया फिर चरनजीत सिंह चन्नी की नाक में दम कर दिया और पूरी कांग्रेस क ई खेमो में बंट गयी और पंजाब की सत्ता से हाथ धो बैठी ।अब बात राजीव शुक्ला और अधीर रंजन चौधरी की भी करते हैं जिस तरह पंजाब में लोकसभा चुनाव के समय सिद्धू कांग्रेस के प्रचार के बजाय आईपी एल में कमेंट्री कर रहे थे , अ च्छा हुआ जो उन्होने नाराजगी के कारण प्रचार नही किया अन्यथा पार्टी को नुक्सान ही होता । उसी तरह हिमांचल क्राइसस के समय राजीव शुक्ला का कहीं अता-पता नहीं था, जबकि वो हिमांचल के प्रभारी हैं । उनके सम्बंध भाजपा के क ई शीर्ष नेताओं से भी काफी मधुर हैं वो राजनीति से ज्यादा क्रिकेट में अपना समय बीताते हैं सम्भवतः बडे़ बिजनेसमैन होने के नाते शौकिया राजनीति करते हैं और राज्यसभा में हमेशा पडे़ रहते हैं जनता से इनका कोई सरोकार नहीं रहता है ऐसे निठ्ठले आदमी को किसी राज्य का प्रभारी कैसे बनाया जाता है इसे कांग्रेस आला कमान ही समझ सकता है अधीर रंजन पूरे लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ एक शब्द भी न बोल कर ममता बनर्जी के प्रति बेहद आक्रामक रहे जबकि ममता बनर्जी इंडिया गठबंधन का घटक दल है, यह सही है कि ममता बनर्जी का रवैया कांग्रेस के प्रति सदैव से विरोध का रहा है लेकिन अधीर रंजन ने बंगाल कांग्रेस का अध्यक्ष रहते एक बार भी ममता बनर्जी के खिलाफ पश्चिम बंगाल में एक भी बडा़ आंदोलन या प्रदर्शन नही कर सके बस दिल्ली में बैठकर बयान बाजी करते रहे जबकि पिछले दस वर्षों से अधिक समय से वो पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर जमे हुए हैं बस अपनी और एक अन्य सीट पर जीत से मतलब रखते रहे अच्छा हुआ मल्लिकार्जुन खड़गे ने उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया, लेकिन यह कार्य पांच वर्ष पहले हो जाना चाहिए था इस लोकसभा चुनावों में उनकी अनाप-शनाप बयानबाजी ने भी कांग्रेस को बहुत नुक्सान पहुंचाया जैसे राष्ट्रपति को राष्ट्रपत्नी शब्द का प्रयोग, हालांकि बाद में माफी का कोई मतलब नही रहा , जितना नुक्सान पहुंचना था पहुंच चुका था । जबतक ऐसे कांग्रेसी शीर्ष नेतृत्व के इर्दगिर्द गलत सही राय देते रहेंगे अच्छे कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और नेताओं का उभरना मुश्किल होगा । सम्भवतः राहुल गांधी को अपनी पार्टी के कमजोर संगठन का अनुमान है इसीलिये वो प्रति पक्ष का नेता बनने की बजाय कांग्रेस संगठन को मजबूत करने पर ध्यान देने पर ज्यादा फोकस करना चाहते हैं – सम्पादकीय -News51.in