Monday, December 23, 2024
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हिन्दी -उर्दू शायरी के अजीम फनकार -निंदा फाजली

मेरे तेरे नाम नये हैं, दर्द पुराना है
यह दर्द पुराना है………………………निदा फ़ाज़ली

हिन्दी – उर्दू शायरी के अजीम फनकार निदा फ़ाज़ली की शायरी एक कोलाज़ के समान है| इसके कई रंग और अनेको रूप हैं| किसी एक रुख से इसकी शिनाख्त मुमकिन नहीं है| निदा फ़ाज़ली ने अपनी ज़िंदगी के साथ कई दिशाओं में सफर किया है| उनकी कविता इसी सफर की मुकमल दास्तान है| जिसमें कहीं धूप है, कहीं छांव है — कही गाँव है… और वो बोल पड़ते हैं

ये ज़िन्दगी
आज जो तुम्हारे
बदन की छोटी-बड़ी नसों में
मचल रही है
तुम्हारे पैरों से
चल रही है
तुम्हारी आवाज़ में गले से
निकल रही है
तुम्हारे लफ़्ज़ों में
ढल रही है|

इसमें घर, रिश्ते, प्रकृति और वक्त सब अलग — अलग किरदारों के रूप में एक ही कहानी सुनाते हैं ………………… निदा एक ऐसे बंजारा मिजाज शख्स की कहानी — जो देश के विभाजन से अब तक अपनी ही तलाश में भटक रहा है| बंटी हुई सरहदों में जुड़े हुए आदमी की यह तलाश निदा फाजली का निजी दर्द भी है और यही उनकी शायरी की ताकत भी है ”मैं रोया परदेश में भीगा माँ का प्यार, दुःख ने दुःख से बात की , बिन चिट्ठी बिन तार”

ये निदा फाजली है — उर्दू की जदीद शायरी का अहम नाम जिनके जिक्र के बगैर उर्दू की नई शायरी का कोई भी तजकरा अधूरा होगा या कोई भी तनकीदी मजमून एक तरफा होकर अपना तवाजुन खो देगा| कुछ मायने में तो वे उर्दू के उन बिरले जदीद शायरों में से हैं जिन्होंने न सिर्फ विभाजन की तकलीफे देखीं और सही है बल्कि बहुत बेलाग ढंग से उसे जबान दी है, जो इससे पहले लगभग गूँगी थी|
निदा का असली नाम मुकतदा हसन है| उनका जन्म 12 अक्तूबर 1939 को हुआ था| उनके पिता खुद भी शायर थे और उन्ही के नक्शे — कदम पर चलकर मुकतदा ने शायरी का ककहरा सीखा| शायरी की दुनिया में कदम रखने के बाद मुकतदा ने बीते दौर के तमाम शायरों की तर्ज पर अपना नाम निदा फाजली रख लिया| निदा का अर्थ ”आवाज़” या “स्वर” है और फाजिला कश्मीर के इलाके का नाम है, जहाँ से उनके पूर्वज दिल्ली आकर बसे थे| बाद में शायरी की दुनिया में उनका यही नाम मकबूल हो गया| निदा फाजली ने फिल्मों के लिए लिखने की बदौलत ही इतनी आसान जुबान हासिल की| यही आसान जुबान और अलहदा अंदाज़ ही बाद में निदा फाजली की ग़ज़लों की खासियत साबित हुई और उन्हें शायरी की दुनिया में बुलन्दियो तक पहुंचाने में कारगर बनी| दिल्ली विश्व विद्यालय के उर्दू विभाग के प्रोफेसर अब्बास अहमद ने लिखा है निदा फाजली की शायरी की पहचान ही आसान जुबान है| उन्होंने लिखा है कि वह अवाम से जुड़े शायर हैं और यही वजह है कि वह आसानी से आवाम की समझ में आने वाली भाषा का इस्तेमाल करते हैं| अब्बास का कहना है की निदा ने बहुत पहले से फिल्मो में गीत लिखने शुरू कर दिये थे| चूँकि फिल्मो को वृहत्तर समाज के लिए बनाया जाता है, इसीलिए उसमें ऐसी भाषा का प्रयोग होता है, जिसे आसानी से समझा जा सके| निदा ने 1983 में सबसे पहले ”रजिया सुलतान” के गीत लिखे थे| निदा, ग़ालिब और मीर के बाद के शायर नजीर अकबराबादी को बहुत बहुत दिनों तक उनकी आसान जुबान के कारण तवज्जो नहीं दी गयी थी| उस दौर के शायरों ने उन्हें यह कहकर खारिज कर दिया था कि उनकी शायरी की जुबान बहुत आम है| हालाँकि बाद में उनकी आसान जुबान उनकी शायरी की खासियत मानी गयी| आखरी मुगल बादशाह ज़फर और दुष्यंत कुमार की रवायत को आगे बढ़ाने वाले उर्दू की नई शायरी की सबसे बड़ी और पहली शिनाख्त यही है कि उसने फ़ारसी की अलामतों से अपना पीछा छुड़ाकर अपने आसपास को देखा, अपने इर्द — गिर्द की आवाजें सुनीं और अपनी ही ज़मीन से उखड़ती जड़ों को फिर से जगह देकर मीर, मीराजी, अख्तरुल ईमान, जाँनिसार अख्तर, जैसे कवियों से नया नाता जोड़ा| उसने ग़ालिब का बेदार झन, मीर की सादालौही और जाँनिसार अख्तर की बेराहरवी ली और बिलकुल अपनी आवाज में अपने वक्त की इबारत लिखी —- ऐसी इबारत, जिसमें आने वाले कल वक्तो की धमक तक सुनाई देती है| यह संयोग की बात नहीं है कि उर्दू के कुछ जदीद शायरों ने तो हिन्दी और उर्दू की दीवार ही ढहाकर रख दी और ऐसे जदीदियों में निदा फाजली का नाम सबसे पहले लिया जाएगा |
यही वह सच है जिसे अपने वक्त का हर सही रचनाकार अपने अनुभव की रोशनी में ही देखना और परखना चाहता है जैसा खुद निदा फाजली का ही एक दोहा है ………

वो सूफी का कौल हो या पण्डित का ज्ञान,
जितना बीते आप पर उतना ही सच मान

सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार दस्तावेजी छायाकार

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