संघनेहरूसरदार_पटेल। दस्तावेज
सबसे पहले ‘ब्लिट्स’ के संपादक पारसी पत्रकार
आर के करंजिया की वह बात की याद जो उन्होंने
नेहरू जी से कही थी, (बाद की सरकारों से भी ऐसा आग्रह अक्सर किया जाता रहा है):
‘अगर भारत एक सेक्युलर और समाजवादी देश है तो आपको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।’
नेहरू जी का जवाब लोकतंत्र में गहरी आस्था, और मौजूदा सरकारों की कारगुजारी को देखते हुए, शायद ‘प्रशासनिक कमजोरी’ की भी बेजोड़ मिसाल है। उन्होंने कहा था :
‘मैं किसी भी विचार पर प्रतिबंध के खिलाफ हूं। आप जब विचारों पर पाबंदी लगाते हैं तो वे जमींदोज हो जाते हैं। फिर वे किसी दूसरे तरीके से भड़ककर निकलते हैं। इसलिए जनतंत्र में विचारों की आज़ादी होनी चाहिए। हममें भी वह कूवत होनी चाहिए कि भयंकर से भयंकर विचारों का सामना हम विचारों से ही कर सकें। विचारों की ताकत की आज़माइश हम सत्ता की ताकत का सहारा लेकर न करें, क्योंकि वह एक तरह से विचार का दमन ही होगा। सवाल यह है कि क्या हम अपने विचार से लोगों को रज़ामंद कर सकते हैं ?’
अफसोस, संविधान की गवाही के बावजूद न तो अब यह देश ‘सेक्युलर और समाजवादी’ है और न ही वैचारिक लड़ाई विचार के स्तर पर लड़ती इस देश की सरकार वरना विरोध के बावजूद अनेकों विवादित
कानून वजूद में न आ गए होते !
नेहरू, गांधी तो हमेशा से ही संघ के निशाने पर रहे हैं और चरित्र हनन उनका आजमाया हुआ हथियार ! कभी शहीद भगत सिंह, कभी सरदार पटेल की तो कभी सुभाष चंद्र बोस की ओट से लगातार प्रहार करता रहा है संघ उन पर ! लेकिन इतिहास तो बेरहोता है, किसी पर भी कोई दया ममता नहीं दिखाता, शायद इसीलिए वह लगातार खिल्ली उड़ाता रहता है संघ के इन प्रयासों की !
सत्ता में आते ही संघ-भाजपा ने ढोल-ताशे बजा बजा कर घोषणा की थी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु रहस्य की बन्द फाइलों को खुलवा कर कांग्रेस की पोल खोलने की ! उन्हीं फाइलों में से जब संघ का घिनौना चेहरा झांकने लगा तो सबकी जुबान पर अलीगढ़ी ताले लग गए। आखिर कोई वजह होगी कि आजाद हिंद फौज में ‘रानी झांसी’ और ‘नेहरू ब्रिगेड’ तो बनी पर ‘सावरकर ब्रिगेड’ या ‘हैडगेवार ब्रिगेड’ नहीं बनी! सच तो यही है अंग्रेजों के तलुवे चाटने वाले लोग जंगे आजादी के सरफरोशों के ‘हीरो’ कभी नहीं हो सकते ! नेहरू पटेल में विरोध की बेबुनियाद ख बरो को हवा देने वालों की जानकारी के लिए बता दूं,
इतिहास गवाह है कि वंशवादी कह कर बदनाम किए गए नेहरू ने अपने जीते जी कभी इंदिरा गांधी को संसद में बैठने का अवसर नहीं दिया, जबकि पटेल की बेटी मणिबेन पटेल को लगातार संसद भेजा। इंदिरा गांधी अगर प्रधानमंत्री बनी तो खुद अपने ही दम पर !
जहां तक सरदार पटेल की बात है वह तो हमेशा नेहरू के प्रति वफादार रहे। लेकिन वफादारी को राजभक्ति याने अंधभक्ति समझने वाले फासीवादी रुझान वाले लोगों को वफादारी की यह अवधारणा कभी समझ नहीं आ सकती ! राजनीतिक संघर्षों के गर्भ से तप कर निकले ये लोग, हर मसले पर अपनी अलग सोच और राय रखते थे, इसलिए उनमें अक़्सर वैचारिक टकराव भी हो जाया करता था। लेकिन सोच का यह टकराव आपसी टकराव तो नहीं होता ना !! गांधी जी के कत्ल के बाद खुद सरदार पटेल ने ही संघ पर बैन लगाया था ।
सरदार पटेल ने 18 जुलाई,1948 को संघ और हिंदू महासभा के नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी को पत्र लिखा था :
“इन दो (RSS और हिंदू महासभा) संगठनों की वजह से,और इसमें RSS की खास भूमिका है, इस देश में ऐसा माहौल बनाया गया, जिसके फलस्वरूप यह जघन्य त्रासदी (गांधी जी की हत्या) संभव हुई। मैं बिना किसी संदेह कह सकता हूं कि हिंदू महासभा गांधी जी की हत्या की साजिश में शामिल थी ! #RSS_राजद्रोह में शामिल है। RSS का वजूद देश की सरकार और राज्य के मूलभूत सिद्धांतों को चुनौती देता है।”
उनके इसी विश्वास के चलते संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। तत्कालीन संघ प्रमुख के बहुत रोने-गिडगिडाने पर सरदार पटेल ने निम्नलिखित #शर्तोंकेतहत इसे हटा लिया था। गृह मंत्रालय की फाइलों में आज भी मौजूद है यह पत्राचार ! वैसे भी रोना गाना तो स्वभाव है संघ का। दो सवालों का एक संवाद मशहूर है पंजाब में :
• बड़कें (दबंगई दिखाना) क्यों मारते हों?
• सांड जो होते हैं हम, जानते नहीं हो क्या ?
• तो फिर मोक क्यों मारते हो (पिछवाड़ा क्यों गीला रहता है ?
• अरे यार ! गाय के बेटे भी तो हैं !!
जनता के सामने बड़ी-बड़ी बातें और दफ्तर के अंदर बॉस के पांव पकड़ना, यही चरित्र रहा है स्वयंसेवकों का ! आपातकाल में भी तो यही सब दोहराया गया था जब संघ प्रमुख देवरस ने इंदिरा जी को बिना शर्त सहयोग का भरोसा दिला कर संघ को बैन न करने के लिए मनाया था !
खैर, बात तो प्रतिबंध हटाने की निम्न शर्तों की हो रही थी :
• संघ एक लिखित और प्रकाशित संविधान बना कर स्वीकार करेगा;
• यह संगठन खुद को सांस्कृतिक गतिविधियों तक ही सीमित रखेगा;
• किसी भी हालत में राजनीति में कोई दखलंदाजी नहीं करेगा;
• हिंसा और गोपनीयता से पूरी तरह किनारा करेगा ;
• भारतीय झंडे और संविधान के प्रति अपनी आस्था प्रकट करेगा;
• संगठन को जनवादी आधार प्रदान करेगा ।
आप में से कोई बता सकता है क्या इनमें से किसी शर्त का पालन किया है संघ ने? एक का भी नहीं ! वह तो अपने नापाक इरादों को पूरा करने का काम करता रहा है चुपचाप ! लेकिन अगर शर्तो का पालन नहीं हुआ, नहीं करवाया गया तो दोष किसका है? कांग्रेस का ही न !! तो क्या कांग्रेस ही परदे के पीछे से इसे बढ़ावा दे रही थी अपने दक्षिणपंथी समर्थकों के चलते ? इस सवाल की और अधिक उपेक्षा नहीं की जा सकती !
जैसे जैसे प्रतिमाओं का आकार बढ़ रहा है, आदमी बौना होता जा रहा है, अपनी ही छाया में खोने लगा है ! एक दौर था जब मुजस्समें भी अफसाना बन जाया करते थे (मुगले आज़म), आज यह भी एक दौर है जहां हकीकत भी अफसाना बन रही हैं और लोग इन्हीं अफसानों को सुन कर बच्चों की तरह गहरी नींद के आगोश में चले गए हैं ! नींद में रहते हुए उनका सब कुछ लुट चुका। सुनील दत्ता , कबीर, स्वतंत्र पत्रकार एवं दस्तावेजी फोटो जनर्लिस्ट