प्रेमचंद :साहित्य में समाज का दर्द छिपा हुआ है
उपन्यास सम्राट के तौर पर विख्यात मुंशी प्रेमचंद आज भी हिन्दी साहित्य में पढ़े जाने वाले साहित्यकार है | इतने लम्बे समय तक लोगो के बीच लोकप्रियता का कारण उनका स्वंय का यथार्थवादी लेखन है | वह अपनी रचनाओं में सिर्फ समस्याओं को उभारने का काम नही करते बल्कि उनसे कैसे निपटा जाए उसे भी बखूबी बताते है \ वह भावनाओं को सीचने वाले ऐसे साहित्यकार थे जो आम जीवन के सरोकारों को लिखते थे |मुंशी जी सिर्फ संघर्ष की ही बात नही करते थे बल्कि सृजनात्मक और सौहार्द पर भी उतना ही जोर देते थे | प्रेमचन्द्र ने अपनी रचनाओं में जिन समस्याओं और चुनौतियों को उभारा है , वह आज भी इस समाज में मौजूद है | प्रेमचन्द्र की कहानिया आज भी इसीलिए प्रासंगिक है क्योंकि उन्होंने भावी परिस्थितियों को एक संदर्भ के रूप में देखा था | वर्तमान में जो साहित्यकार है वो संघर्ष और समस्याओं की बात तो करते है , लेकिन उनका समाधान कैसे और क्या हो वह नही बता सकते है | आज भी उनकी कहानिया हर वर्ग को आंदोलित करती है |
31 जुलाई 1880 को वाराणसी के लमही गाँव में पैदा होने वाले मुंशी प्रेमचन्द्र 1894 में अपने पिता के साथ गोरखपुर आ गये और यहाँ नार्मल स्थित एक पाठशाला में उन्होंने शिक्षा ग्रहण किया | बाद में दूसरी बार वह गोरखपुर व बस्ती जिले में उनका पदार्पण अध्यापक के रूप में हुआ | इस प्रकार प्रेमचन्द्र 1911 में बस्ती आये और उन्ही दिनों उनकी मुलाक़ात डुमरियागंज तहसील में तहसीलदार मनन दिवेदी गजपुरी से हुई | श्री द्दिवेदी से उनकी साहित्य के विषयों पर खूब चर्चा होती थी | गोरखपुर में एक अध्यापक के रूप में उनकी नियुक्ति हुई और यहाँ उर्दू के सम्पादक दशरथ प्रसाद जी से उनकी मुलाक़ात हुई | इसके बाद उनकी रूचि साहित्य के प्रति बढती गयी | गोरखपुर में रहने के दौरान ही उनकी मुलाक़ात महावीर प्रसाद पोद्दार से हुई और कहने पर ही प्रेमचन्द्र ने ” सेवा सदन ” जैसा उपन्यास लिखा | गोरखपुर में नार्मल स्कूल के करीब एक मकान में रहते थे जहा एक पुरानी ईदगाह थी और ईदगाह के बगल में एक मजार थी जहा ईद पर मेला लगता था | आज यह मजार मुबारक खा शहीद कहलाती है | प्रेमचन्द्र जहा रहते थे उस स्थान को अब प्रेम चन्द्र पार्क बना दिया गया है | यही रहते हुए 1920 में गांधी जी के असहयोग आन्दोलन के दौरान जब गांधी यहाँ स्थित बाले के मैदान में आये तो प्रेमचन्द्र ने उनके भाषण को सुना और फिर चार दिन बाद सरकारी सेवा से त्यागपत्र देकर स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बन गये | बाद में वह पोद्दार जी के साथ उनके गाँव चले गये जहा चरखा कातते और गांधी जी के असहयोग आन्दोलन पर केन्द्रित कहानिया और उपन्यास लिखते थे | मुंशी प्रेमचन्द्र में पूर्वांचल में गरीबी . किसानो का उत्पीडन , जमीदारो का शोषण , महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार बेमेल विवाह व कर्ज लेकर जीवन यापन करने वालो लोगो के जिन्दगी को करीब से देखा था | इसीलिए पूर्वांचल का यही दबा कुचला वर्ग प्रेमचन्द्र की उपन्यासों में और इनकी कहानियों में अनेक स्वरूपों में मौजूद है | 8 अक्तूबर 1936 में कलम का यह सिपाही हमेशा के लिए सो गया , लेकिन उनकी प्रासंगिकता आज भी कायम है | उन्होंने पहली बार साहित्य को जनता की आवाज बनाई | उनकी कहानियो और उपन्यासों में किसानो , मजदूरों और वर्ग में बटे हुए समाज का दर्द छिपा हुआ था और यही दर्द आज भी मुंशी प्रेमचन्द्र को दूसरे लेखको से कही अलग बड़ा बनाती है | बीसवी सदी की भारतीय पीड़ा त्रासदी और संघर्ष के महान साहित्यिक प्रवक्ता | हिन्दी और उर्दू दोनों में समान अधिकार रहने वाले कथा साहित्य की रचना | बाल विधवा से विवाह 1908 में सोजेवतन का प्रकाशन , यह राष्ट्रभक्ति के स्वर के कारण सरकार द्वारा जब्त | 1921 में सरकारी नौकरी से इस्तीफा | अलवर नरेश का निमंत्रण अस्वीकार करना और ” माधुरी और ‘ हंस का सम्पादन करना लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन ( 1936 ) की अध्यक्षता करना | 300 सेअधिक कहानिया और विभिन्न विषयों पर लिखना उनके बस की बात थी | उनके महत्वपूर्ण उपन्यासों में सेवा सदन , प्रेमाश्रम , रंगभूमि , गबन , कर्मभूमि और गोदान है |
इस देश के महान साहित्यकार को मेरा शत-शत नमन !
- प्रस्तुति सुनील कबीर