Monday, December 23, 2024
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द मिथ आफ सिसिफस -अलबर्ट कामू

दि मिथ आफ सिसिफस- अलबर्ट कामू

सिसिफस की कहानी एक ग्रीक पौराणिक कथा है जिसमे सिसिफस एक शकतीशाली व चालक राजा था | उसका आमना – सामना अक्सर देवताओं के साथ होता रहता था , और वह ह प्रयास करता रहता कि छल से उनकी श्कतियो का हरण कर लें या उन्हें कमजोर कर दें | कथा के अनुसार जब मृत्यु का देवता थानाटोस उसे मृत्युलोक ले जाने के लिए आया तो उसने थानाटोस को चालाकी से बंदी बना लिया | अब थानाटोस के बंदी बन जाने से पृथ्वी पर मृत्यु होनी समाप्त हो गयी | यह देवताओं के लिए बड़ी चिंता का विषय था | अंतत: देवताओं ने एक योजना बनाई और थानाटोस को मुक्त करवाया | मुक्त होने के बाद थानाटोस सबसे पहले सिसिफस को ही मृत्युलोक लेकर गया | मृत्युलोक में देवराज ज्यूस ने सिसिफस को कहा कि यदि वह एक बड़ी चट्टान को धकेलता हुआ पर्वत की छोटी तक ले जाकर उसे वहाँ स्थापित कर देगा तो वह मृत्युलोक से मुक्त हो जाएगा | सिसिफस को यह आदेश देने से पहले ज्यूस ने इस चट्टान को अभिमंत्रित कर दिया था ताकि पर्वत के शिखर पर पहुचते ही वह वापिस नीचे की ओर लुढकने लगे |सिसिफस ने चट्टान को शिखर की ओर धकेलना शुरू किया और जब कड़े श्रम के बाद वह शिखर तक चट्टान वापस नीचे लुढक गयी | वह फिर नीचे आया और फिर एक लम्बे श्रम के बाद उसने चट्टान को शिखर तक पहुचाया — जहां से वह फिर नीचे लुढक गयी | कहा कहती है कितब से सिसिफस इसी में ही लगा हुआ है – अपनी सूझ से ज्यूस ने उसे अनन्त काल के लिए अभिशापित कर दिया | पाश्चात्य सभ्यताओं में सिसिफस का मिथक किसी भी ऐसे प्रयास के लिए एक उदाहरण बन गया है जो अर्थहीन हो | जैसे की राजनीति – आप श्रम से शिखर तक पहुच तो सकते , लेकिन वहाँ से नीचे लुढकना भी अपरिहार्य है | अर्थहीन प्रयास के लिए अंग्रेजी भाषा ने एक शब्द भी गढा है — सिसिफियन |
अल्बर्ट कामू ने भी सिसिफस के मिथक का उपयोग अपनी इस पुस्तक में किया है , लेकिन उसे एक बिलकुल नया अर्थ देते हुए | यह पुस्तक दरअसल अस्तित्ववाद के फलसफे पर एक लंबा निबन्ध है — अस्तित्ववाद , जो कि इस अस्तित्व को एबसर्ड कहता है , बेतुका कहता है , एक सुनियोजित अराजकता कहता है | अस्तित्व की यह एब्सर्डडीटी , यह बेतुकापन ही दि मिथ आफ सिसिफस का केंद्र बिंदु है | कामू का कहना है कि इस जगत से हम जो कुछ भी चाहते है और जो इस जगत में पाते है , उन दोनों के बीच एक आधारभूत संघर्ष है | हम चाहते है कि जीवन में जो हो रहा है उसका कोई अर्थ हो , उसमे कोई तर्कबद्धता हो , एक निश्चितता हो — लेकिन पाते है एक अराजकता | जीवन के बेतुकेपन को देखते हुए जब यह समझ ही नही आता कि जो हो रहा है वह आखिरकार किस तर्क के आधार पर हो रहा है , तो व्यक्ति या तो इस जगत के पार किसी ईश्वर में आपनी आशाये न्यस्त कर देता है , कि जो हो रहा है उसे उस ईश्वर की कृपा से बदला जा सकता है , या व्यक्ति इस निष्कर्ष पर पहुच जाता है कि जीवन अर्थहीन है |
कामू अपनी इस पुस्तक की शुरुआत इस प्रश्न से करते है कि यदि व्यक्ति दुसरे निष्कर्ष पर पहुच जाए कि जीवन अर्थहीन है , तो क्या आत्मघात ही एक उपाय बचता है ? यदि जीवन में कोई अर्थ नही है , तो क्या जीवन जीने योग्य भी नही है ? कामू कहते है कि यदि ऐसा ही हो , तो हमारे पास धर्म को मानने या आत्महत्या के अतिरिक्त और कोई विकल्प ही नही बचता है | कामू इस पुस्तक में एक तीसरे विकल्प को खोजना चाहते है : हम स्वीकार करे कि जगत का न कोई अर्थ है और न प्रयोजन है , और जीवन को जिए | कामू के अनुसार जगत का बेतुकापन एक ऐसा विरोधाभास है जिसका कोई समायोजन नही किया जा सकता , और अस्तित्व की विस्ग्तियो में किसी भी तरह की संगति बिठाने का कोई प्रयास बस उसके सत्य से भागने का प्रयास है | सोरेन कीर्कगार्द, जेस्पर्स, और चेस्तोव जैसे अस्तित्ववादी दार्शनिको का उदाहरण देते हुए कामू कहते है की प्रारम्भिक अस्तित्ववाद अस्तित्व में किसी अर्थ और प्रयोजन के तहत हुआ कुछ नही पाता, तो किसी प्रकार के छिपे अर्थ को खोजने का प्रयास करने लगता है |
कामू सुझाव देते है कि हम बेतुकेपन को जिए | हम जाने कि जीवन का स्वभाव बेतुका होना है < और विरोधाभासो को समायोजित करने का संघर्ष छोड़ दें तो जीवन को उसकी पूर्णता में जिया जा सकता है |
बेतुके जीवन को परिपूर्णता में जीने के लिए कामू तीन गुणों को रेखांकित करते है | पहला विद्रोह – अस्तित्व की अराजकता और बेतुकेपन में कोई अर्थ बिठाने के लिए दिए गये किन्ही भी उत्तरों को हम स्वीकार न करें |दुसरा स्वतंत्रता – हम जैसा भी सोचना या व्यवहार करना चाहे , उसके चुनाव के लिए हम पूरी तरह स्वतंत है | तीसरा , जूनून – हम जीवन को इस जूनून से जिए कि जो हमे विविध अनुभवो से समृद्ध कर सके | पुस्तक के अंत में कामू सिसिफस के मिथक का उल्लेख करते है , जिसमे यह जगत सिसिफस की परिस्थिति जैसा है है — चट्टान को पर्वत के शिखर पर ले जाना , उसका वहाँ से वापस लुढकना , और फिर से सिसिफस की मशकत का शुरू होना | कामू कहते है कि सिसिफस यदि यह स्वीकार कर लें कि यही उसके जीवन का तथ्य है , तो वह इस बेतुके संघर्ष में भी सुख खोज लेगा | पुस्तक में कामू के अंतिम शब्द है , मैं सिसिफस को पर्वत की तलहटी पर छोड़ देता हूँ | अपना – अपना बोझ हर व्यक्ति फिर से खोज लेता है | लेकिन सिसिफसअपने बोझ के प्रति एक उच्च प्रकार की निष्ठा प्रदर्शित करता है , वह देवताओं को नकारता हुआ अपनी चट्टान को फिर से उठाता | उसका निष्कर्ष यह है कि जब तक वह चट्टान को ढकेलने की सामर्थ्य रखता है तब तक सब ठीक है | बिना किसी स्वामी का यह जगत न तो उसे बाँझ लगता है , न व्यर्थ | उस चट्टान के हर अणु और अपने भीतर घन अँधेरे को संजोये उस पर्वत के हर खनिज की परत से ही उसका जगत बना है | इस जगत में उसे जो करना है , उससे वह इनकार नही करता | चट्टान को पर्वत शिखर तक पहुचाने का उसका संघर्ष ही उसके ह्रदय को आह्लादित कर देता है | हमे सिसिफसकी परिकल्पना एक सुखी मनुष्य की तरह करनी चाहिए |
कामू जब सिसिफसके मिथक का उसके अभिशापित होने तक का पहला हिस्सा पोंछ देते है और उसकी कहानी को पर्वत की तलहटी से शुरू करते है तो वह अंग्रेजी भाषा के सिसिफयन शब्द का पूरा अर्थ बदलकर रख देते है | इसके बाद यह शब्द आध्यात्मिक कलेवर ले लेता है और उसका एक सिरा कृष्ण के निष्काम – कर्म से जाकर मिलता है , दुसरा सिरा ओशो के कार्य ध्यान से | अस्तित्ववाद के अन्य सभी घटक – सात्र , कीर्कगार्द, जेस्पर , काफ्का , नीत्शे, विलियम जेम्स व अन्य — की तरह कामू भी ओशो के कार्य के अग्रदूत है | ये सभी घटक वह भूमि तैयार करते है जहां जगत के व्यवहार पर विचार करते हुए विचार की हर पुरानी धारणा को तोड़ दिया जता है , ईश्वर और दैवीय शक्तियों का हर पुराना सहारा छीन लिया जाता है ||
ओशो कहते है कामू और सात्र जैसे लोगो के साथ विचार ले आया आखरी कगार पर | अब लौटने का कोई उपाय नही है | जीवन के सारे खिलौने टूट गये है | जीवन की साड़ी मान्यताये उखड गयी है | अब किताबो में भरोसा नही है आदमी को | अब ध्यान की तलाश शुरू होगी | पश्चिम में आदमी ध्यान की तलाश में निकला है | भारत अभी इतना दरिद्र है कि विचार भी नही कर पाया ध्यान कैसे करे ? अभी विचार में भी हिन् है | अभी तो भारत अपनी मान्यताओं में ही डूबा है ||

प्रस्तुती सुनील दत्ता – स्वतंत्र पत्रकार – समीक्षक
आभार — यैस ओशो पत्रिका से

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