Sunday, December 22, 2024
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कृषि विधेयक का समर्थन और विरोध

कृषि विधेयक तथा उसका समर्थन एवं विरोध

(मामला केवल कृषि विधेयक और उसके समर्थन व विरोध का ही नहीं, बल्कि कृषि व किसानों की पहले से चली आ रही नीतियों एवं स्थितियों का भी है। कृषि व किसानों में लगातार बढ़ते रहे संकटों का भी है।)

सरकार ने बीते संसदीय सत्र में नए कृषि विधेयकों को पारित किया है। तब से लेकर विपक्षी राजनीतिक पार्टियों, प्रचार माध्यमों तथा किसानों में विरोध का स्वर उठता रहा। इसे कृषि व किसानों को बर्बाद करने वाला, उनको व्यापारियों एवं पूंजीपतियों का गुलाम बनाने वाला विधेयक बताते हुए 25 सितंबर को भारत बंद का भी आह्वान किया गया था। खासकर हरियाणा एवं पंजाब के किसानों में तथा पंजाब की दलगत राजनीति में यह विरोध खासा मुखर रहा। विधेयक के विरोध में भाजपा सरकार के सहयोगी अकाली दल द्वारा भी केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटने के बाद केंद्र सरकार से इस विधेयक को वापस लेने की मांग की जाती रही। पंजाब के किसान अभी भी आंदोलित हैं। हालांकि वह आंदोलन अब धीमा पड़ गया है।
देश के बाकी क्षेत्रों में तो वह आंदोलन समाप्त सा हो गया है, उसके विरोध में लगे विभिन्न पार्टियों के राजनेताओं एवं प्रचार माध्यमों को अब सरकार के विरोध के दूसरे मुद्दे (उदाहरणार्थ - हाथरस कांड, बिहार चुनाव आदि) मिल जाने के बाद उन्होंने इसे बासी मुद्दा मानकर हाथ खींच लिया है।
विपक्षी पार्टियों एवं उनके समर्थक प्रचार तंत्र के विपरीत सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ता एवं उनका समर्थक प्रचार तंत्र इन विधेयकों को, किसानों को स्वतंत्रता देने वाला, किसानों की आय को दोगुना करने वाला और उन्हें बिचैलियों से मुक्ति दिलाने वाला विधेयक बताते व प्रचारित करते रहे हैं। कृषि विधेयकों के विरोध एवं समर्थन की तथा उससे किसान की दशा दिशा पर चर्चा से पहले मौजूदा कृषि विधेयकों को देख लेना जरूरी है।-
इसमें पहला विधेयक कृषि उपज, व्यापार और वाणिज्य के संवर्धन एवं सुविधा के नाम से प्रस्तुत विधेयक है। यह कृषि उत्पादों के बाजार एवं व्यापार को बढ़ावा एवं सुविधा प्रदान करने से संबंधित है। इसके अंतर्गत किसानों को मुख्य रूप से अपनी उपज कृषि मंडी से बाहर कहीं भी बेचने की छूट या स्वतंत्रता दी गई है। दूसरा विधेयक कृषक सशक्तिकरण और संरक्षण के साथ कीमत और कृषि सेवा पर करार से संबंधित है। इसके अंतर्गत किसानों को बिना किसी बिचैलिए के फसल से पूर्व किसी व्यक्ति, संस्था या कंपनी से सहमति एवं करार के जरिए मूल्य पाने, अपनी खेती को कांट्रेक्ट पर देने से संबंधित है।
विपक्षी पार्टियों एवं किसान संगठनों का प्रमुख विरोध पहले विधेयक को लेकर है। इस विधेयक के बारे में सरकार एवं उसके समर्थकों का कहना है कि यह विधेयक किसानों को सरकारी मंडियों से इतर निजी व्यापारियों को अपना उत्पाद बेचने और देश में कहीं भी बेचने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। किसान चाहे तो अपना उत्पाद स्थानीय सरकारी मंडी में बेचे या फिर वह बेहतर लाभ के लिए उसे देश में किसी भी जगह के निजी व्यापारी को बेचे। उनको प्रत्यक्ष रूप में बेचे या फिर डिजिटल माध्यम से बेचे।
इस पर विपक्षी पार्टियों और उनके समर्थकों तथा किसान संगठनों का कहना है कि सरकार निजी व्यापारियों को सरकारी मंडी से इतर छूट दे कर सरकारी मंडियों और उसमें किसानों को मिलने वाले संरक्षण को समाप्त कर देना चाहती है। दूसरे वह सरकारी मंडियों में सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की उपज की खरीद की अब तक की प्रणाली को भी समाप्त कर देना चाहती है। यह किसानों को अपनी उपज की लाभकारी बिक्री की स्वतंत्रता देना नहीं, बल्कि सरकारी मंडी से मिलते रहे लाभ व स्वतंत्रता को समाप्त कर देना है।
दूसरे विधेयक पर सरकार व उसके समर्थकों का कहना है कि किसान अपने बेहतर लाभ के लिए फसलों का चुनाव कर उसके उत्पादन एवम् उत्पादों के व्यापार के लिए किसी व्यक्ति, संस्था या कम्पनी से अनुबंध कर सकते हैं। फसल पूर्व ही उत्पाद के मूल्य व बिक्री का भी समझौता कर सकते हैं। या फिर अपने खेतो को उन्हें कांट्रैक्ट पर दे सकते है। लेकिन किसी भी स्थिति में वे संस्थाएं या कंपनियां किसानों के खेत का मालिकाना नहीं ले सकतीं। विपक्षी पार्टियों और उनके समर्थकों का कहना है कि इस विधेयक के जरिए कंपनियों को अपने लाभ की दृष्टि से फसलों की किस्में बदलने, विभिन्न प्रकार की फसलों की खेती करवाने के साथ-साथ, किसानों के खेत व खेती में दखलअंदाजी करने का अवसर एवं अधिकार मिल जाएंगे। किसान के हाथ से उसकी अपनी जरूरत के हिसाब से फसल के उत्पादन का और फिर उसकी जमीन का अधिकार छिनता जाएगा।
तीसरा विधेयक, आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक है। इसमें सरकार ने अनाज, दाल और चीनी को आवश्यक वस्तुओं के दायरे से बाहर कर दिया है। यानी अब इन उत्पादों का निजी व्यापारियों द्वारा असीमित संग्रहण, भंडारण और परिवहन किया जा सकता है। अभी तक इन आवश्यक वस्तुओं की खरीद, भंडारण एवं आवश्यकतानुसार वितरण मुख्यतः फूड कारपोरेशन द्वारा किया जाता रहा है। सरकार इसके लिए राजकोष से सब्सिडी भी देती रही है। विपक्षी पार्टियों व उनके समर्थकों का कहना है कि सरकार इस विधेयक के जरिए जमाखोरी व कालाबाजारी के व्यापारियों के भ्रष्टाचारी लाभ को बढ़ावा देने जा रही है। इसका परिणाम उपभोक्ताओं पर आवश्यक वस्तुओं के अभाव एवं महंगाई के रूप में जरूर आएगा। यह गलत भी नहीं है। फिलहाल आवश्यक वस्तु अधिनियम संशोधन का विधेयक चूंकि कृषि व किसान से प्रत्यक्षतः जुड़ा हुआ नहीं है। इसलिए इस लेख में उस पर चर्चा नहीं की जा रही है।
पहले दूसरे विधेयकों के संदर्भ में चर्चा से पहले यह देखना आवश्यक है कि इन विधेयकों के संबंध में अर्थात कृषि उत्पादन, मंडी एवं समर्थन मूल्य की तथा कांट्रैक्ट खेती की अब तक की स्थितियां कैसी रही हैं? उनकी दशा-दिशा क्या रही है? कृषि उत्पादन के संदर्भ में सबसे बुनियादी मामला बीजों का है। 1995 में डंकल प्रस्ताव स्वीकार किए जाने के बाद से अब किसानों का अपना उत्पाद बीज के रूप में अनुत्पादक हो चुका है। अब हर फसल के लिए सरकारी एवं निजी बीज कंपनियों से महंगे बीज खरीदना कृषि व किसान की बाध्यता बन चुकी है। स्पष्ट है कि 1995 के बाद केंद्रीय व प्रांतीय सत्ता सरकारों में बैठती पार्टियों ने तथा राज्य के अन्य कार्यकारी हिस्सों ने कृषि के बीज पर किसानों के अपने पहले के अधिकार को छीन कर उसे अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय बीज कंपनियों/संस्थाओं के हवाले कर दिया है।
खेती की सिंचाई, जुताई, कटाई व मड़ाई आदि के तमाम छोटे-बड़े साधनों को पहले से ही अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय कंपनियों के हवाले किया जाता रहा है। सार्वजनिक सिंचाई को लगातार घटाते हुए किसानों को डीजल/बिजली के पम्प-सेटों तथा मोटरों वाले अपने निजी संसाधनों के जरिए औद्योगिक कंपनियों के अधीन किया जाता रहा है। साफ बात है कि अब कृषि उत्पादन के समूचे क्षेत्र पर किसानों के अधिकार को कृषि बीजों, रासायनिक खादों, दवाओं तथा लागत के अन्य सामानों, औजारों, मशीनों की मालिक अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय कंपनियों को सौंपा जा रहा है। देश-प्रदेश की सरकारें इस क्षेत्र में किसानों को देती रही सार्वजनिक सहायता-सहयोग से छुट्टी लेती जा रही हैं। किसानों को आधुनिक बीजों एवं आधुनिक साधनों के मालिकों पर निर्भर बनाने के साथ उनके द्वारा निर्धारित अधिकतम एवं अनियंत्रित मूल्य के लूट का शिकार बनाने का भी काम करती जा रही हैं।
कृषि उत्पादों का बिक्री बाजार तो पहले से ही व्यापक तौर पर किसानों एवं छोटे-बड़े गल्ला व्यापारियों के बीच ही चलता रहा है। कृषि मंडियों में तो आज भी बहुत कम ही किसान जा पाते हैं। सूचनाओं के अनुसार पूरे देश में अभी तक 7000 

कृषि मंडियां हैं जबकि कम से कम 42000 मंडियों की आवश्यकता है। ये कृषि मंडियां अभी देश के हर क्षेत्र में समरूप में मौजूद नहीं है। उनकी संख्या पंजाब, हरियाणा और गुजरात में ज्यादा है। अन्य क्षेत्रों में उनके मुकाबले कम या बहुत कम है।
स्वाभाविक है कि किसानों की बहुसंख्या प्रत्यक्ष रूप में मंडियों से न तो जुड़ी है और न ही जुड़ सकती है। वह मुख्यतः गांव, क्षेत्र या कस्बे के गल्ला व्यापारियों से जुड़ी है और फिर यह छोटे-बड़े व्यापारी मंडी से जुड़े हैं। मंडी के इर्द-गिर्द के गांवों तथा क्षेत्र के थोड़े बड़े काश्तकारों के अलावा आम किसानों के लिए मंडी पहुंचकर अपने उत्पादों को बेच पाना आम तौर पर संभव नहीं है।
जहां तक न्यूनतम समर्थन मूल्य का मामला है तो उसके बारे में दो बातें जगजाहिर हैं। एक तो यह कि सरकारों द्वारा सभी फसलों के समर्थन मूल्य की हर साल घोषणा होने के बावजूद मुख्यतः धान गेहूं की ही उस सरकारी रेट से बिक्री होती रही है। और उसमें से अधिकतम 10-15ः किसान ही उन्हें सरकारी क्रय केंद्रों में घोषित सरकारी मूल्यों पर बेच पाते हैं। बाकी तमाम छोटे किसान उन्हें छोटे-बड़े निजी गल्ला व्यापारियों को, बाजार भाव पर ही बेचने के लिए बाध्य रहते हैं।
सूचनाओं के अनुसार पंजाब, हरियाणा में किसानों का 80ः हिस्सा अपने
कृषि उत्पादों की बिक्री मंडी व सरकारी क्रय केंद्रों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बिक्री करने में सफल रहता है। यह भी एक बड़ा कारण है कि मौजूदा विधेयक के विरोध में पंजाब हरियाणा तथा एक हद तक पश्चिमी यूपी के किसान व्यापक रूप से आंदोलित रहे।
जहां तक कंटैªक्ट खेती की बात है तो कई तरह की व्यवसायिक फसलों (मेंथा, मूसली, तुलसी आदि) से जुड़ी कंपनियां किसानों से उनकी जमीन कई वर्षों के लिए पट्टे पर लेकर व्यावसायिक उपयोग के लिए इन फसलों का उत्पादन कराती रही हैं। हां, मौजूद विधेयक ने किसानों की आय दोगुनी करने के नाम पर अनुबंध खेती की दशा-दिशा को और ज्यादा आगे बढ़ा दिया है। उसे सुनिश्चित एवं राष्ट्रव्यापी स्वरूप प्रदान कर दिया है। स्वाभाविक है कि इस खेती से किसान द्वारा अपने उपयोग एवं उपभोग की दृष्टि से फसलों के चुनाव की स्वतंत्रता और उसी हिसाब से अपने खेतों की तैयारी व रख-रखाव का स्वाधिकार जाता रहेगा। उस पर और उसकी खेती पर अनुबंधित खेती के मालिकों संचालकों का प्रभुत्व बढ़ता रहेगा।
कृषि उत्पादन , बिक्री एवं अनुबंध खेती की पिछले 20-25 सालों से चलती रही दशा-दिशा से यह बात तो निश्चित है कि इन दोनों विधेयकों के प्रावधान एवं प्रक्रियाएं पहले से ही चलती रही हैं। इसे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में लागू रखने अर्थात कृषि उत्पादन को बीज कंपनियों तथा अन्य औद्योगिक कंपनियों के अधिकार में देने, मंडियों का विस्तार न करने, उसे अत्यंत सीमित रखने, न्यूनतम समर्थन मूल्य को कम-से-कम किसानों को देने, आढ़तियों, व्यापारियों को किसानों से बाजार भाव पर अनाज खरीदने की छूट देते रहने का काम सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों की केंद्रीय व प्रांतीय सरकारों ने किया है। कृषि व किसान के उत्पादन, बिक्री बाजार को बाजार के अर्थात कंपनियों, व्यापारियों, आढ़तियों के हवाले करने का काम किया है।
इसी तरह से कृषि के ढांचागत विकास को धीमा करने या रोकने, उसके लिए सार्वजनिक निवेश घटाने और उसका भार स्वयं किसानों पर डालने का भी काम सभी पार्टियों की सरकारों ने किया है। कृषि क्षेत्र के सर्वाधिक आवश्यक ढांचागत विकास में सार्वजनिक सिंचाई को उपेक्षित करना इसका सबसे ज्वलंत सबूत है। कृषि को उद्योग, वाणिज्य व्यापार के आढ़तियो एवं व्यापारियों के तथा आयातकों, निर्यातकों के लाभ एवं स्वार्थी हितों के अंतर्गत लाने और बहुसंख्यक श्रमजीवी किसानों के हितों को उपेक्षित कर, उसे औद्योगिक एवं व्यापारिक क्षेत्र के धनाढ्य मालिकों के शोषण लूट का शिकार बनाते जाने का काम सभी पार्टियों की सरकारों ने, राज्य के सभी प्रमुख अंगों ने किया है।…..
…..इसी को बढ़ावा देने वाली विश्वीकरणवादी एवं निजीकरणवादी नीतियों तथा डंकल प्रस्ताव के प्रावधानों द्वारा कृषि के अंतर्राष्ट्रीयकरण को लगातार बढ़ाने का काम किया है। इसमें देश-विदेश की सत्ता सरकारों से कहीं ज्यादा भूमिका साम्राज्यी देशों के धनकुबेरों की और उनके साथ सांठगांठ करते रहे भारतीय औद्योगिक, वाणिज्यिक धनाढ्य वर्गों की रही है। यह सभी हिस्से कृषि क्षेत्र में आधुनिक साधनों, तकनीको एवं बीज आदि के जरिए अपना अप्रत्यक्ष मालिकाना व संचालन नियंत्रण बढ़ाने के साथ कृषि व किसानों के अधिकाधिक शोषण-दोहन एवं लूट में लगे रहे हैं। अपने लाभों एवं पूंजियों को बेतहाशा बढ़ाते रहे हैं। इसीलिए इनके और व्यापक श्रमजीवी किसानों के हित एक-दूसरे के नितांत विरोधी बने हुए हैं। सभी पार्टियों की सरकारें और राज्य के अन्य हिस्से किसानों के विरोध में और अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय धनाढ्यों के पक्ष में खड़े रहे हैं।
अतः कृषि विधेयकों के वर्तमान स्वरूप पर और इस पर पहले से होते आ रहे हमले पर भाजपा नेतृत्व की केंद्रीय सरकार का किसानों के समर्थन का प्रचार या फिर कांग्रेस व अन्य विपक्षी पार्टियों द्वारा भाजपा के किसान विरोधी और अपने को किसान समर्थक बताने का प्रचार निहायत झूठा एवं इस्तेमाली प्रचार है। किसानों का समर्थन एवं चुनावी वोट लेने वाला इस्तेमाली प्रयास है।
यह बात किसी और से ज्यादा किसानों एवं उनके वास्तविक समर्थकों को जानने की जरूरत है। उन्हें इन विधेयकों को तथा व्यावहारिक रूप से लागू रही पहले की प्रक्रियाओं को, कृषि व किसानों को देश-विदेश के धनाढ्यों के शोषण-लूट के संबंधों में लगातार बांधने वाली नीतियों प्रस्तावों को मोटे तौर पर जानने समझने की जरूरत है।
इन नीतियों के विरोध में, इन्हें बढ़ावा देने वाली वर्तमान एवं पूर्ववर्ती सरकारों के विरोध में तथा देश-दुनिया के उद्योग, वाणिज्य, व्यापार के धनाढ्य मालिकों के विरोध में, आम किसानों को संगठित होने की आवश्यकता है। धर्म, जाति, क्षेत्र की पहचानों से ऊपर उठ कर मुख्यतः किसान की पहचान के साथ एकजुट एवं आंदोलित होने की आवश्यकता है। ऐसे किसान संगठन एवं उनके आंदोलन ही न केवल उनके वास्तविक एवं इस्तेमाली समर्थकों के असली चरित्र को उजागर कर सकेंगे अपितु वह किसानों की समस्याओं के तात्कालिक एवं दूरगामी समाधान का रास्ता भी प्रशस्त करेंगे । लेेेखक- डा0 बी0 एन0 गौड़

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