इससे पहले निकाय चुनावों में राष्ट्रीय पार्टियों और उनके बडे़ नेताओं को जी-जान से प्रचार करते नहीं देखा गया था। अमूमन यह माना जाता रहा है कि जिस दल की सरकार जिन राज्यों में होती है वही निकाय चुनाव जीतते हैं ।पहले तो भारी मात्रा में निर्दलीय ही निकाय चुनाव जीतते थे लेकिन जैसे-जैसे निकायों का बजट बढता गया और सभासदों और चेयरमैनों ,मेयरों का रूतबा बढता गया वैसे-वैसे बडी़ पार्टियों का अपने -अपने कार्यकर्ताओं को लडा़ने और उन्हे जीताने की इच्छा भी बडें नेताओं की बढती ग ई और ऐसा लगता है आने वाले समय में धीरे-धीरे निर्दलीय प्रत्याशियों के जीतने का प्रतिशत कम होता जायेगा । अब करोडो़ं का बजट नगर निकायों में आने लगा है और पार्टी प्रत्याशी होने की हनक दूसरी होती है अगर प्रत्याशी सत्ताधारी दल का होता है तो उसकी हनक और ही होती है। दर असल यही हनक ,पैसा, पावर की लालसा में और सत्ता पर नीचे तक अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए पार्टियां अब अपने कार्यकर्ताओं को लडा़ती हैं और जीताने की जिम्मेदारी स्थानीय नेतृत्व को दिया जाता है और स्थानीय नेतृत्व शीर्ष नेताओं की नजर में अपना नम्बर बढाने की लालसा में पूरी मेहनत करता है, स्वयंम प्रदेश नेतृत्व भी जनसभाएं, रैलियां करने लगा है ।यहनगरीय निकाय को मिनी सचिवालय भी कहा जाने लगा है।