इतिहास के झरोखे से आजमगढ़ — vol – 4
आजमगढ़ के संस्थापक राजा आजमशाह जरुर थे , किन्तु इसका जन्मदाता शेरशाह सूरी था , उसी ने यहाँ नीव की ईट रखने का कार्य किया | उसके व्यक्तित्व का निखार जौनपुर में हुआ था इस कारण वह जौनपुर को बहुत प्यार करता था , तब आजमगढ़ जौनपुर राज्य के अधीन था और उजाड़ था , अविकसित बस्तिया थी , चारो और जंगल जैसा परिवेश था | चूँकि शेरशाह की पुत्री मानो बीबी मीरा शाह की मुरीद थी और घोसी के पास उनकी दरगाह में पवित्र जीवन जीते हुए खुदा ही इबादत में लींन रहती थी , अतएव उससे सम्पर्क बनाये रखने के लिए के लिए उसने जौनपुर से दोहरीघाट तक की सडक बनवाई , बीच में पुलों को निर्मित कराया और सडक के किनारे वृक्ष लगवाया | सम्पर्क सूत्र तथा डाक व्यवस्था की दृष्टि से उसने बीच – बीच में कच्ची – पक्की सराए बनवाई | जौनपुर दोहरीघाट के बीच आजमगढ़ में उसके डाक व्यवस्था के सदर फत्तेह खा के नाम से एक सराय बनवाई गयी जहां धीरे धीरे छोटी सी बाजार भी बस गयी | नगर के मध्य बड़ादेव नगरपालिका मार्केट के पीछे स्थित सराय फत्ते खा ही इसका प्राचीनतम चिन्ह है |
जौनपुर – आजमगढ़ में पक्की सराए थे पर उसने दोहरीघाट में कोई पक्की सराय नही बनवाई इसका कारण यह था कि तब सरयू नदी की धारा मीलो दक्षिण होकर बहती थी जिसके किनारे सगोष्ठ ( गोठा ) ग्राम था जहां कृषि एवं गृहस्थी की बड़ी मंडी थी | बौद्धकाल की चर्चा में लिखा जा चुका है कि कभी यह स्थल बड़ा महत्वपूर्ण था और यहाँ विशाल संघाराम था ( आज इस स्थल पर भव्य ‘मोटल – तथागत ‘ है ) सप्ताह में दो दिन आज भी यहाँ बाजार लगती है | सोलहवी शताब्दी तक यह संघाराम नष्ट हो चूका था पर व्यापारियों को रुकने के लिए कच्चे भवनों की श्रृखला जरुर थी | कार्तिक पूर्णिमा और गंगा दशहरा पर भव्य मेला लगता था | इसलिए यहाँ यात्रियों व्यापारियों के ठहरने के लिए पर्याप्त व्यवस्था बनाई गयी थी | यहाँ सराय की आवश्यकता नही थी | आजमगढ़ के अंकुरण की कथा भी बड़ी अनोखी है | कहा जाता है कि आदमी कठपुतली है | उसकी डोर से भवितव्यता नचाती है | बाबर से पहले के आक्रमणकारियों ने यहाँ कारगुजारियो का उद्देश्य ”लूट ‘ रखा | वे आये लूटा और वापस चले गये | लेकिन बाबर ने राज्य करने के सपने से मुग़ल साम्राज्य की नीव रखी | पानीपत के युद्ध में बारूद के प्रयोग से उसने ऐसा सिक्का जमाया की लोदी वंश समाप्त होने के बाद लोगो की टक्कर लेने की हिम्मत नही रही | परन्तु उसकी मृत्यु के बाद हुमायूँ के शासनकाल में यहाँ के राजाओं – जागीरदारों में साम्राज्य को उलट देने की ललक पैदा हो गयी | हुमायूँ को टक्कर देकर धराशायी करने की शक्ति इन राजाओं ने शेरशाह सूरी में देखा और बहुतेरे उसके साथ हो गये | इनमे फतेहपुर की अर्गल जागिदारी के गौतम वंशीय ठाकुर हरबरन देव भी थे | 1537 ई0 में शेरशाह ने चुनार में युद्ध करके जो किला जीता उसमे हरबरन देव प्रमुख सहायक थे | दुर्भाग्य से शेरशाह का राजकाल कुल 5 वर्षो का रहा , वह दिल्ली का सम्राट 1540 में हुआ था और 1545 में अपने ही अस्त्र में बारूद फटने से शेरशाह बुरी तरह झुलस कर मर गया | हरबरन देव को कोई इनाम इकराम न मिल सका | हुमायूँ भी इनकी शत्रुता को भुला नही था | उसने इनका पता लगाना शुरू किया – यह खबर लगते ही जागीदार हरबरन देव की मृत्यु करीब दिखाई देने लगी | वे भागे भागे जौनपुर आये शेरशाह के पुत्र सलीमशाह की शरण में | सलीमशाह ने इनके एहसानों का ख्याल करते हुए राज के बीच खुट्वा गाँव प्रदान किया – सलीम की योजना थी कि खुट्वा में बसकर हरबरन देव पोशीदगी में किसान जमींदार बनकर वेश बदल कर रहे | गाँव वालो से भी उनकी पहचान छिपी रहे फिर हुमायूँ के सिपाही नही पहचान पायेंगे | लेकिन हर बरन देव अपनी और अर्गल राज में रह रहे अपने विपत्ति से घिरे परिवार की चिंता में घुल घुल कर मृत्यु को प्राप्त हुए | फतेहपुर से उनके बड़े पुत्र सग्राम देव और चन्द्रसेन सिंह जौनपुर आये जहाँ गोमती तट पर उनका दाह संस्कार किया | रविन्द्र सतान ने लिखा है कि आजमगढ़ नगर में एक अभिलेख संस्कृत में एक पथरिया पर पाया गया जो संवत 1609 ( सलीम शाह काल का है )
जब अकबर सिंहासन पर बैठा उसने अपने बल – बुद्धि – विवेक से दृढ मुग़ल सल्तनत स्थापित किया | वह जितना समझदार था उतना ही चालाक भी था लेकिन अपनी चालाकी को उसने हमेशा जनसेवा , मेल – मिलाप समन्वय का रूप दिया | वह न कभी खुदा को भूलता था न अपने दुश्मनों को |हुमायूँ जैसे सरल हृदय वाले शासक को शेरशाह सूरी के कारण ऐसा दुर्दिन भी देखना पडा की चौसा के युद्ध में हारने के बाद जान बचाने के लिए उसे नदी में घोड़े सहित कूद जाना पडा ,ईश्वर की कृपा से एक भिश्ती ने अपनी मशक फेंककर उसकी जिन्दगी बचाई उसे ठोकर खाते हुए भागना पडा | हुमायूँ के भाइयो कामरान और हिन्दाल ने भी धोखा दिया फलत: उसे सिंध के रेगिस्तान की तरफ भागना पडा | जहाँ अमरकोट में अकबर का जन्म हुआ | अकबर ने पिता का बदला लेने के लिए गोपनीय तरीके से हुमायूँ के दुश्मनों को चिन्हित करना शुरू किया जिसमे प्रमुख नाम हर बरन देव का भी था जब तक इनसे बदला लेता उनकी मौत हो चुकी थी | सोलहवी शताब्दी के छठे दशक में सम्राट अकबर अलिकुली खा विद्रोही को दबाने की मंशा से बंगाल की तरफ चला और जौनपुर में रुककर वहाँ उसने सूफी संत निजामुद्दीन का बखान सूना जो पहुचे हुए फकीर थे और निजामाबाद में गद्दी बनाये हुए थे | उन्होंने उस समय के प्रसिद्ध हिन्दू धर्मस्थल शीतलाधाम के पास अपना डेरा जमाया और मानवतावादी दृष्टिकोण से पूरे जनमानस पर असीम श्रद्धा के साथ | उसमे जनमानस की श्रद्धा की भी थी अतेव उस निजामाबाद परिक्षेत्र में युद्ध की थकान मिटाने का निश्चय किया | चूँकि उसकी जन्मतिथि भी इसी बीच पड़ती थी इसलिए यहाँ जन्मदिन का विशाल महोत्सव मनाया गया ”आईने अकबरी” में इसका संक्षित उल्लेख्य है चन्दाभारी जो निजामाबाद के अत्यंत निकट है वहाँ पर तुलादान का जलसा मना सम्राट को मुहरो से तुला गया | बीबीपुर में रानियों का डेरा था और खुटौली में घोड़ो को बाधने के लिए विशाल घुडसाल थी | टिकापुर के लोगो ने मुगल बादशाह को विजय हालिस करने का आशीर्वाद से टिका किया |कैफ़ी का गाँव मिजवांन से मिजवा हो ग्या | बताते चले कि अकबर इस महोत्सव से बड़ा प्रसन्न था उसने जब सुबो का पुनर्निर्माण किया तो इस अंचल को सूबे इलाहाबाद में करके जौनपुर सरकार के अधीन किया और सात परगनों में बात दिया 1- चिरैयाकोट 2- सगड़ी 3- घोसी 4- कौडिया 5- गोपालपुर 6- मऊ 7-निजामाबाद | अब्दुर रहीम खानखाना के पुत्र मुनीर खा को जागीरदार बनाया और निजामुद्दीन औलिया के नाम पर निजामाबाद का नामकरण किया | इसी महोत्सव के दौरान कुछ चापलूसों ने खुट्वा गाँव के उत्तराधिकारी के बारे में भी कान भरा यह कहकर की ये लोग हुमायूँ के शत्रु हरबरन देव के पुत्र है दोनों भाई संग्राम सिंह चन्द्रसेन सिंह वहाँ से भाग गये | उनकी शनाख्त कालपी युद्ध के दौरान हुई जहां संग्राम देव पर आक्रमण हुआ वे बुरी तरह घायल हो गये और गुमनामी में मारे गये | चन्द्रसेन सिंह भूमिगत हो गये लाख खोजबीन के बाद भी उनका पता नही चला | सत्रहवी शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षो में जब सलीम ने बगावत की तो अकबर के शासन का सिक्का घिसने लगा था वह बीमार और टूटा भी था तब संग्राम के चन्द्रसेन सिंह पुन: खुट्वा आ गये और मुग़ल शासन से असंतुष्ट ठाकुरों को मिलाकर एक नामवर सरदार बन बैठे | निजामाबाद और उसके निकटवर्ती इलाको में घनी मुस्लिम बस्ती थी , आज भी है ( फूलपुर सरायमीर फरिहा मग्रवा ) इसीलिए चन्द्रसेन सिंह को बहुत विरोध भी सहना पडा | इससे पूरब मेहनगर लालगंज की और श्रीनेत कौशिक बिसेन ठाकुरों का बाहुल्य था पश्चिम में पालीवाल ठाकुरों का आधिपत्य था इसलिए चन्द्रसेन सिंह खुट्वा से हटने की सोचने लगे ! उन्होंने मेहनगर का चुनाव भी किया जो खुट्वा से तीन चार किमी दक्षिण है |
प्रस्तुती – सुनील दत्ता – स्वतंत्र पत्रकार – दस्तावेजी प्रेस छायाकार
सन्दर्भ – आजमगढ़ का इतिहास – राम प्रकाश शुक्ल निर्मोही
आजमगढ़ का इतिहास – हरी लाल शाह