Thursday, November 14, 2024
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समाज के किस पहचान को प्रमुखता दी जानी चाहिए?

समाज में किस पहचान को प्रमुखता दी जानी चाहिए ?

( विडम्बनापूर्ण स्थिति यह है कि मजदूर के रूप में , किसान के रूप में , दस्तकार , दुकानदार आदि के रूप में आम लोगो का जीवन संकटमय होता जा रहा है | लेकिन वे इन पहचानो को प्रमुखता देकर एकजुट होने के स्थान पर एक दुसरे से अलगाव व विरोध में अपने धार्मिक , साम्प्रदायिक , जातीय व इलाकाई पहचानो व गोलबंदियो के साथ खड़े होते जा रहे है | )

समाज में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक जानी मानी पहचान है | किसी का भाई – बहन, पुत्र – पुत्री , माता – पिता , रिश्तेदार , नातेदार होने के की पहचान के साथ उसकी एक सामाजिक व सामुदायिक पहचान भी जरूरी है | यह सामाजिक , सामुदायिक पहचान उसे उसके माँ – बाप से , कुल खानदान से विरासत में मिली हुई है | वह हिन्दू , मुसलमान , सिक्ख, इसाई की धार्मिक , सामुदायिक पहचान भी है तथा इस देश में उसकी विशिष्ट जातीय सामुदायिक पहचान भी है | इसके अलावा उसका विशिष्ट इलाका व भाषा आदि की सामुदायिक पहचान भी है |
भारत जैसे पिछड़े देशो में सदियों से चली आ रही इन सामाजिक , सामुदायिक पहचानो का आधार समाज के पिछड़ेपन में पिछड़े युग के कामो , पेशो में और वैसी ही मानसिकताओं , प्रवृत्तियों में मौजूद है | आज भी धार्मिक , जातीय , इलाकाई व भाषाई पहचानो के आधार पर लोगो के सम्बन्ध , शादी – व्याह के पारिवारिक संबंधो के रूप में तथा अन्य सामाजिक , सामुदायिक संबंधो लगावो के रूप में बिद्यमान है |
लेकिन आधुनिक युग में , पुराने युग से चले आ रहे सामाजिक , सामुदायिक पहचानो , संबंधो की जगह अब नये सम्बन्ध व पहचान भी बनते , बढ़ते जा रहे है | चाहे पुरानी , पहचानो को कितना भी महत्व क्यों न दिया जाए परन्तु वास्तविकता यह है की आधुनिक युग की पहचानो संबंधो के आगे युगों पुराने सामाजिक , सामुदायिक सम्बन्ध टूटते जा रहे है | लगातार कमतर महत्व के सम्बन्ध बनते जा रहे है | यह आधुनिक युग – नई शिक्षा , विज्ञान व तकनिकी का युग है | आधुनिक बाज़ार व्यवस्था का युग है | इसने लोगो को आधुनिक युग के नये – नये पेशो को अपनाने के लिए बाध्य कर दिया है | अपने गाव – गंवाई के या स्थानीय व इलाकाई संबंधो से दूर हटकर नये कामो को अपनाने नई जगहों पर जाने , बसने और नये संबंधो को बनाने के लिए बाध्य कर दिया है |नये ढंग का जीवन जीने के के लिए विवश के दिया है | ब्रिटिश शासन काल से शुरू हुयी यह प्रक्रिया निरंतर बढती जा रही है | इसके फलस्वरूप सदियों से चले आ रहे अपनों के साथ लोगो के सम्बन्ध भी कमजोर पड़ते जा रहे है | नये कामो , पेशो के परस्पर सहयोग लें – दें के साथ नये – नये ढंग के सम्बन्ध बनते – बढ़ते विकसित हो रहे है |संबंधो का यह बदलाव युग का बदलाव है | पुराने युग के साधनों के बदलाव का है | इसी ने लोगो को अपने जीवन – यापन के लिए और आगे बढने के लिए पुराने पेशो को त्यागने या उसका नये व आधुनिक रूप में बदलाव के लिए प्रेरित किया है और कर रहा है |यह बदलाव आधुनिक बाजारवादी युग में सभी के प्रति बाज़ार के अनुरूप खरीद बिक्री का , लेन- देन का नजरिया अपनाने का बदलाव है | आज का मजदूर न ही किसी जमीदार का रियाया है न ही किसी का बंधुआ मजदूर | बल्कि वह अपना श्रम बेचकर जीविकोपार्जन करने वाला एक मजदूर है |अब वह जाति विशेष का ही सदस्य नही रह गया | बल्कि उसमे सभी जातियों व धर्मो के लोग शामिल है | यह स्थिति आधुनिक युग के हर काम पेशे व उसकी पहचान के साथ खड़ी है | इन पहचानो व संबंधो ने पुराने युग के धर्म , जाती , इलाका भाषा के रूप में बने रहे सामाजिक ताना – बाना को तोड़ने का काम भी किया है | इसीलिए वर्तमान युग के आदमी की सामाजिक पहचान बहुआयामी है | वह विशिष्ठ धर्म , जाती इलाका , भाषा , समुदाय का सदस्य भी है | साथ ही वह आधुनिक युग के कामो , पेशो से जुड़े सामाजिक समुदाय का सदस्य भी है | वह मजदूर समुदाय का , किसान समुदाय का , दुकानदार समुदाय का , डाक्टर , इंजीनियर , वकील व्यापारी उद्योगपति तथा शासकीय , प्रशासकीय समुदाय का भी सदस्य है | सच्चाई यह भी है कि उसके काम , कारोबार व पेशो के आधार पर बन रहे सम्बन्ध व पहचान उसके जीवन के दूसरे संबंधो पर पारिक्वारिक या पुराने युग से चले आ रहे धार्मिक , जातीय संबंधो से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बनते जा रहे है |क्योंकि इन्ही कामो , पेशो से ही उसका जीवन अस्तित्व जुडा हुआ है | येही पेशे व पहचान उसके जीवन का प्रमुख पहचान बनते जा रहे है | बाकी पारिवारिक या सामुदायिक पहचान उसकी उपरी पहचान के रूप में ही विद्यमान है |इस बात से कोई बड़ा फर्क नही पड़ता कि उसके अपने गहरे लगाव , अपनी धार्मिक , जातीय , इलाकाई पहचानो के साथ अभी भी ज्यादा है | क्योंकि ये पहचान न केवल सदियों से चले आ रहे बल्कि देश के पिछड़े पण में उसके बने रहने के आधार आज भी विद्यमान है | शहरों के मुकाबले गावो में जातीय पहचानो का आधार किसी हद तक आज भी सदियों पुराने पुश्तैनी कामो , पेशो के रूप में मौजूद है |
पर आधुनिक युग के वर्तमान दौर में टूटते जा रहे पुराने संबंधो , पहचानो को बनाये रखने का एक दुसरा काम भी किया जा रहा है | पिछले 30 सालो से देश – दुनिया के हुक्मती हिस्सों द्वारा राष्ट्र के जनसाधारण को अपनी पुरानी पहचानो को ही महत्त्व देने , उसी आधार पर एक जुट होने के पाठ – प्रचार चलाए जा रहे है | ताकि आम जनता में उन्ही पुरानी धार्मिक , जातीय , भाषाई व इलाकाई पहचानो के साथ उनके बीच सदियों पुराने अलगाव को आधुनिक युग में भी बढाया जा सके | उन्हें एक दूसरे के विरोध में खड़ा किया जा सके और फिर उनका धन सत्ता का स्वार्थ पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया जा सके | इन्ही लक्ष्यों , उद्देश्यों के लिए जनसाधारण में धार्मिक , भाषाई , इल;आके पहचानो को बढावा देने के साथ उनसे जुड़े मुद्दों को उठाया व प्रचारित किया जाता रहा है | मन्दिर -मस्जिद आरक्षण समर्थन , आरक्षण विरोध आदि जैसे धार्मिक व जातीय मुद्दों को भी 20 – 25 से देश में चलाई जा रही धर्मवादी , सम्प्रदायवादी , जातिवादी , इलाकावादी राजनीति के जरिये बढाया जा रहा है | इन्ही मुद्दों व पहचानो पर धार्मिक जातीय व इलाकाई संगठनों को खड़ा किया व बढाया जाता रहा है | आधुनिक पेशो व पहचानो पर बनी ट्रेड यूनियनों तक के विखंडन के लिए इसे हथियार बनाया जाता रहा है | विडम्बनापूर्ण स्थिति यह है की मजदूर के रूप में , किसान के रूप में दस्तकार , दुकानदार आदि के रूप में आम लोगो का जीवन संकट ग्रस्त होता जा रहा है | लेकिन वे इन पहचानो को प्रमुखता देकर एकजुट होने के स्थान पर एक दूसरे से अलगाव व विरोध में अपने धार्मिक , साम्प्रदायिक , जातीय व इलाकाई पहचानो व गोलबंदियो के साथ खड़े होते जा रहे है | आम आदमी के लिए यह स्थिति वर्तमान दौर की उसकी अपनी बुनियादी हितो के विरोध में खड़ी होती व बढती जा रही है | इसलिए आवश्यकता है की लोग आधुनिक युग के सम्बन्धों व पहचानो को प्रमुखता दे | उसे केवल कारोबारी सम्बन्ध मानकर उपेक्षित न करे | फिर किसी भी सामाजिक समस्या पर सोचने व समाधान निकालने के लिए भी अपने अपने आधुनिक युग के सम्बन्धों – पहचानो को प्रमुखता दे |अपने धर्म , जाति व इलाकाई सम्बन्धों को अपने निजी स्तर तक अपने पारिवारिक , रिश्ते – नाते के सम्बन्धों तक तथा आधुनिक युग में धार्मिक जातीय व इलाकाई भाषाई मुद्दों पर भी अपने न्यायसंगत अधिकारों को पाने तक ही सिमित करे |यह एक सामाजिक जनतंत्र की बुनियादी माँग है |

सुनील दत्ता — स्वतंत्र पत्रकार – समीक्षक

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