ताज
आहिस्ता बोलो ! आहिस्ता ! भारत की दो विभूतिया सोयी हुई है | उनको सोये आज तीन सदिया हो गयी है | तीन सदियों से लगातार सुगन्धित द्रव्यों का धुँआ उठता और उस सफेद चदोवो से टकरा – टकरा कर लौटा रहा है , उन उछ्वासो के साथ जो वहा के हवा के साथ घुले – मिले है जिन्हें किसी ने कभी न देखा , ” न तब न अब |
आहिस्ता बोलो !
आहिस्ता बोलो ! वरना तुम्हारी ही आवाज तुम्हे काटने लगेगी जैसे वह आज सदियों से जोर से बोलने वालो को काटती रही है | दो विभूतिया यहाँ सोयी है , दोनों पत्थर से दबी हुई , दोनों जिनकी शान के सामने खुदा की शान पानी भर्ती थी | दो दिल अश्वेत पत्थरों के नीचे दबे पड़े है | एक में शेर को दहला देने की ताब थी दुसरे में कोयल के कुक सुन गुलाब की पंखुडियो — सी काँप जाने की नजाकत | धीरे बोलो !
धीरे — धीरे दस्तक दो | इस शांतिमय वातावरण को क्षुब्ध न करो | शांति , श्मशान की शान्ति है यह , समाधियो की जिनमे विभूतिया सोयी है | यह ताज है , ताजमहल , ताज का हृदय , अन्तस्तला मुमताज महल की कब्र है यह , आर्जुमन्द बानू बेगम की |
उस कमनीय रमणीयता की जिसके अन्दर — बाहर को ईरान के अभिजात्य कुल के सर्वस्य ने सिरजा और निखारा था , बिगड़े अमीरजादा ग्यास के अरमानो ने , बने एतामादुद्लौला की वजीरी दौलत ने आसफ के लाड ने |
अल्हड मुमताज की मजार है यह जिसकी हल्की नजरो ने संगदिल खुर्रम के अन्तर में दरार दाल दी थी | संगदिल खुर्रम जिसके आगमन से क्या देशी क्या फिरंगी सभी दरबारियों में एक सर्द लहर दौड़ जाती थी | उसी मुमताज ने उस कठोर सैनिक के हृदय में आंधी उठा दी थी जो माँ बाप तक को कैद में दाल देने से न चुका था , जिसकी तलवार की चमक ने फरगना से दक्कन तक चकाचौध पैदा कर दी थी |
इस समाधि गृह में इसकी रहस्यमय चुप्पी में एक पुकार है , एक मिली — जुली चीत्कार | इसकी से — से में एक बोझिल आवाज उठती है जो इन मजारो में सोने वाले शहंशाह और आर्जुमन्द बानू की नही , उन भूतो की है जो अपनी मौत से नही मरे , जो कयामत के रोज भी न उठेगे , जो गुम्बद से गिर कर दरगोर हो गये थे , नव में दब गये थे , जिनकी चीख इमारत की ईट – ईट से निकल रही है |
फिर भी समाधि गृह में शान्ति है | शान्ति , कि मधुर कोमल आवाज गूंज सके | मधुर कोमल आवाज ही वहा प्रतिध्वनित होती है , हो सकती है , अशिष्ट , वल्गर नही | हल्का कोमल स्वर धीरे धीरे उठाकर पसर चलता है निरंतर पसरता जाता है उसकी प्रतिध्वनी कोने — कोने से उठकर वितान तक पहुचती है , फिर जैसे उतर आती है , फिर चद्ती है फिर उतरती है , पसर — पसर | फिर — फिर | यह गूंज अविराम जारी रहती है सोयी विभूतियों को अपने साए में करती , उनकी सुप्त चेतना को जगाती |
समाधियो का यह गर्भगृह मध्यवर्ती कमरे के ठीक नीचे है उसके चारो और आठ कमरे है कुरान का पाठ करने वाले मुल्लो के लिए , कोमल स्वर में भारतीय और ईरानी राग ध्वनित करने वाले गायकों के लिए
और यह मध्यवर्ती कमरा — यह प्रशांत विश्रामगृह शब्द नही जो इसके सयत सौन्दर्य का ब्यान कर सके मान भाषा में शक्ति नही जो दूर के अधखुले वातायनो से आते दबे आलोक की कोमल छाया में बिखरती छवि का वर्णन कर सके | कब्रों के चतुर्दिक दौड़ती संगमरमर की जाली स्वय कला का आश्चर्य है | साम्रज्य के अनन्त साधनों के वावजूद यह जाली दस साल में कट कर तैयार हुई थी | दस साल , देहलवी सल्तनत के दस जिसके साए में पूरब — पश्चिम समुंदर टकराते थे , काबुल और दौलताबाद की दौलत बरसती थी | दस्तकारो की उस चुनी दुनिया के कुशल कलावन्तो ने कला के उस चमत्कार को प्रस्तुत किया था , दस साल में |
मुमताज की समाधि बीच में है , ठीक बीच में और मजार का सफेद पत्थर कभी न मुरझाने वाले ईरानी फूलो का बाग़ बन गया है | शाश्वत विकसित वाटिका का यह सौन्दर्य , ईरानी बाग़ का यह सदाबहार , मुग़ल कलम का जादू ही ईजाद कर सकता था | जिस खूबी के साथ मुग़ल कलम का जादूगर अपने चित्रों का हाशिया लिखता था उसी बारीकी से संगतराश ने अपनी छेनी से यह फूलो का बाग़ उगा दिया है | और इस मजार पर कभी न मलिन न होने वाले मनोरम अक्षरों में खुदा है — ” आर्जुमन्द बानू बेगम मुमताज महल की मजार ” मृत्यु 1040 हिजरी |
बहरी मेहराबी दरवाजा जो करवा — सराय से घिरा है , नितान्त सुन्दर है , सिकन्दरा के अकबरी मकबरे के दरवाजे से भी सुन्दर | उसके बिचले मेहराब पर संगमूसा के बारीक हर्फो में खुदा है — ” पाक दिल बहिश्त के बाग़ में प्रवेश करे ” |
इस दरवाजे से ताज का सर्वांग पंख फैलाए उठता — सा दिखता है — नीचे सामने के जल में उसकी छाया झिलमिल करती है | सफेद , चांदी की परि — सी इमारत जमीन पर ऐसी हल्की — फुलकी बैठी है कि लगता है , क्षण भर में एक साथ पर मार कर उड़ जायेगी | सादगी का सौन्दर्य दुनिया ने और नही देखा | इतने कम विस्तार में इतना घना सौन्दर्य | फिर भी कही कुछ कम नही , कही कुछ ज्यादा नही ; जैसे तोल कर प्रकृति ने रख दिया है | कुछ घटाया — बढाया नही जा सकता , कुछ बदला नही जा सकता |
बागीचा भी इमारत का एक अंश था | इसके वास्तु के प्रभाव को सरो के वृक्ष निरंतर बढाये थे | सामने उपर एक चबूतरा है , नीचे दुसरा | एक के फैले मैदान में फूलो का बाग़ कधा है , दुसरे पर ताज की मीनारे है | उनके बीच ताज ऐसा लगता है जैसे चार लम्बी सहेलियों के बीच सुघड़ शाहजादी | दर्शक ठग जाता है |
दोनों और मस्जिदे खड़ी है लाल पत्थर की | खुशनुमा चित्रित ताज का सारा आकार जनाना है , उसके खम — तेवर जनाने है | बुनियाद से उंचाई तक सारा कलेवर जनाना है | जैसे वह स्वय मुमताज महल हो , ईरानी साहबजादी , कोमल , सुकुमार , अल्हड | किसी ने उसे ‘ संगमरमर की आकृति में स्वपन ‘ कहा है , किसी ने ‘ फरिश्ते का जाहिर अफसाना ‘ | कुछ भी कहा जा सकता है , और जो कुछ खा जाएगा वह सारा सही होगा | कयोकि उस कला की परिभाषा कठिन है , उसका विश्लेषण असम्भव जो ताज में मूर्तिमान हो उठा है |
ताज जो सामने है कुछ ऐसा है जो अजब है | देखने वाले की नजरे ‘ फोकस ‘ कर लेता है | देखने वाला कहता है — काश आँखों को जबान होती और जबान को आँखे ! और देखने वाला कही इतिहास का विद्यार्थी हुआ तो वह ताज की बुर्जियो के पीछे देखता है , उसकी बुनियाद के पहले | उसके निर्माण के पहले |
सामने उस इतिहास के विद्यार्थी के ताज है उसका मध्यवर्ती गुम्बज है उसकी पाशर्वव्रती मीनारे है , नाजुक बुर्जियो और उनके पीछे एक दुनिया है | दुनिया , पृष्ठभूमि के आकाश की नही , जमुना से उठते कुहासे की नही ; दुनिया दुःख — दर्द की जो अब बीत चुकी है , मर चुकी है , पर जो कभी ज़िंदा थी , जिसने इस ताज का निर्माण किया था , इसका अनुपम आकर्षण अभिसृष्ट किया था |
उन बुर्जियो के पीछे है वह दुनिया जिसकी कराह मात्र अब ताज की मध्यवर्ती समाधियो में गर्भगृह के ताबूतो के उपर उठती है और छत से टकरा — टकरा कर गूंजती है , फिर धीरे — धीरे भीतर हवा के साथ बाहर निकल जाती है बुर्जियो की ऊँचाई के उपर उठ जाती है , गुम्बज के चतुर्दिक मडरा — मडरा कर एक उफ़ करती है , उस पर छा जाती है |
पर ऐसा क्यों ? इतिहास का विद्यार्थी सोचता है , गुनता है और फिर बुर्जियो के पीछे इतिहास के विगत चित्रों को देखने लग जाता है | ताज मुहब्बत का मूर्तिमान कलेवर है , भाव बन्धन प्रेम का प्रतीक , शाहजहा और मुमताज महल के सुकुमार प्रणय का सम्मोहक स्थापत्य अवतरण | उसकी विचार धाराए उसे पीछे लौटा ले जाती है स्माधिग्रिः में जहा दो आत्माए सोयी हुई है , जिनके
मरणान्तर आवास के हित दुनिया का यह अचरज खड़ा किया गया |
शाहजहा के लिए नही , मुमताज महल के लिए , आर्जुमन्द बानू बेगम के लिए | आर्जुमन्द बानू बेगम | एत्मादुददौला की पोती आसफ खा की इकलौती बेटी , नुरजहा की भतीजी |विद्यार्थी के सामने से ताज , उसकी बुर्जिया , उसकी मस्जिदे , उसके मेहराबी दरवाजे हटते जा रहे है | उसकी आँखों के सामने एक नयी , पर जी कर मरी हुई दुनिया उठ रही है —-
आर्जुमन्द बनू बेगम | अमीरजादा बिगड़ा ग्यास बेग | उसके ईरानी प्रासाद के टूटे कगूर , उसके बागीचे की गुलाबभरी क्यारिया , उसके प्यालो के दौर , जुए की झंकार | काफिले के साथ मजबूर होकर हिन्दुस्तान में किस्मत आजमाने आगरे की और बियाबा की मुसाफिरी | और बियाबा में मेहरुन्निसा का जन्म , नूरमहल , नुरजहा का जन्म |
फिर आगरे में अकबर की फैयाजी | दरबार में पनाह | बाप – बेटे को खिलअत | हुमायु ने कभी ईरानी दरबार में पनाह ली थी | उपकृत बेटे में ईरान के भिखमंगे को भी शाह बना देने का अरमान था | दर — दर का भिखारी ग्यास जहागीर की हुकूमत में जब मेहरुन्निसा ” नूरमहल ” हो गयी
एत्मादुददौला बना वजीर आजम वह नूरमहल का पिता था और उसका पुत्र , नूरमहल का भई , आसफ मनसबदार | आर्जुमन्द बनू बेगम उसी आसफ की बेटी थी , एत्मादुददौला की पोती | विद्यार्थी इतिहास के स्वत: खुलते पन्नो पर निगाह गडा देता है —-
खुर्रम — वही शाहजहा , मुमताज महल का प्रणयी और पति | खुर्रम — जहागीर का तीसरा बेटा , दिल्ली की सल्तनत का तीसरा हकदार | खुर्रम जो शाहजहा होने के पहले भी शानो – शौकत का पर्याय था , जीकी ऊंचाई सर टामसरो को कभी गौरव और मर्यादा की ऊंचाई लगी थी ; वही खुर्रम जो अपने सख्ती , गम्भीरता , तेजी के कारन बाप के दरबार की भडैती के बीच अकेला , सर्वथा एकाकी , पर भय का स्थान जन पड़ता था , वही जो बाप के इसरार पर शराब की एकाध घुट जब — तब पी लेता पर जिससे वह उसके सामने तोबा करने से नही चुकता था |
खुर्रम — जिसकी तलवार एक बार हेरात में चमकी थी , फिर बलख में , फिर दक्कन और बंगाल में फिर बलख में |
विद्यार्थी के सामने ताज का धूमिल धुधला आकर तक नही | उसकी लेने कब की निराकार हो चुकी है | उनके स्थान पर एक श्वेत पट खड़ा है जिस पर रंग बिरंगे चित्र , वफादारी के चमकते नमूने एहसान फरामोशी के काले कारनामे , औदार्य और क्रूरता के अभिराम अंकन एक के बाद एक चले जा रहे है —
खुर्रम के अतिरिक्त पिता के तीन पुत्र थे — खुसरू , परवेज , सहरयार | खुसरू ने बाप से बगावत की , कैद कर लिया गया | खुर्रम ने उसे चुपचाप दूसरी दुनिया में भेज दिया | यह नम्बर एक था ; अभि दो और थे , एक राह का काटा दूसरा संभावित शत्रु |
कुछ ही साल बाद परवेज भी मर गया | कैसे , यह कौन जाने ? खुर्रम अब इस दुनिया में नही जो इस मौत पर प्रकाश डाले | खुर्रम ने शादी कर ली , फिर | यह दूसरी शादी थी | एतमादुददौला की पोती से , वजीर आसफ की बेटी आर्जुमन्द बानू बेगम से |
सहरयार नुरजहा का दामाद था | नुरजहा जहागीर की पत्नी थी , उसकी स्वामिनी , सल्तनत की वास्तविक जिम्मेदार और मलिका | सहरयार उसका दामाद था | खुर्रम ने सहरयार को देखा , नुरजहा को , बाप को देखा और करणीय स्थिर कर लिया | बगावत का झंडा खड़ा कर उसने बाप से लोहा लिया | फिर असफल हो दक्कन भगा , मलिक अम्बर की शरण में | पर वहा वह रुक न सका | बंगाल — बिहार की और जा पहुचा , दोनों पर उसने कब्जा कर लिया | फिर शाही फ़ौज की मार खा वह फिर भागा |
और एकाएक वह जहागीर — नुरजहा दोनों को कैद कर खुद गद्दी पर जा बैठा |
सहरयार को उसने तलवार के घाट उतार दिया | बाप अपने आप खुदा की राह लगा | अब उसने अपनी सल्तनत की माप – तौल शुरू की | तेरह साल के बाबर ने फरगना के मैदानों में किस्मत से लोहा लिया था | तेरह साल के अकबर ने पानीपत के मैदान में अपनी किस्मत आजमाई थी | दोनों के ताप और त्याग ने दिल्ली — आगरे का क्षितिज – चुम्बी साम्राज्य खड़ा किया था | जहागीर ने उसे नशे के धुएं में देखा था | पर शाहजहा ने निश्चय किया , वह उसे भोगेगा |
दिल्ली किले के दीवाने आम और ख़ास , जमा मस्जिद , आगरे की मोती मस्जिद — एक – एक कर खड़े हुए एक से एक आला , एक से एक कीमती जिन्हें जिन्नात ने बनाया , शाहजहा की दरियादिली के सबूत में , उसकी ख्याल बुलंदी की यादगार में | फिर तख़्त टॉस बना , ठोस सोने का जिसके पाए पन्नो के मोरो के थे , किनारे नीलम के जमीन नक्काशीदार वैदूर्य की थी | करोड़ो लगे इनमे पर इसकी शाहजहा को क्या परवाह थी , करोड़ो प्रान्तों से आते थे , अहमदनगर उसके सरहद के युद्दो में लग गये थे | बीस करोड़ | और ये करोड़ प्रान्तों से आते थे |, अहमदनगर से , गोलकुंडा से , बीजापुर से | दूर — पास के सौदागर व्यापार के जादू से सल्तनत की राजधानी में धन बरसाते थे , फिरंगी अपनी भेटो से दौलत की मीनार खड़ी करते थे , दूर पास के किसान अपने पसीने की कमाई अपनी रक्षा के बदले अपने बादशाह को देते थे |
रक्षा के बदले | निश्चय उस रक्षा के बदले जिसमे मुगलों की उत्तर दक्खिन दौड़ती फौजों के घोड़ो की खुराक भी शामिल थे , मराठो की चौथ भी जातो की लुट भी | पर इससे शाजहा को क्या करना था ? शाहजहा फैयाज था ; कहते है , दयावान भी था | तभी तो उसने भयंकर अकाल में ढेढ़ लाख रूपये प्रजा के लिए अन्न पर खर्च किये थे — उस भयंकर अकाल में ढेढ़ लाख का खर्च जिसमे सदके लाशो से पट गयी थी , बेटे ने माँ को खाया था , माँ ने बाप को |
ढेढ़ लाख , जब नुरजहा को शाहजहा पच्चीस लाख सालाना खर्च के लिए देता था , अठ्ठासी लाख वह अपने गुलामो पर खर्चता था , तेरह लाख अपनी पोशाक पर और जब केवल अपने तख़्त — ताउस बनाने वाले फ्रेंच सुनार — मिस्त्री उसिन बोडो को पन्द्रह लाख उसने इनाम में दे दिए थे |
इस शानो शौकत के बादशाह ने उस ईरानी हर को व्यहा था जिसका नाम आर्जुमन्द बानू बेगम था | व वह उसके तेरह बच्चो की माँ बनी और चौदहवे के प्रसव में उसने अपनी जान खोयी | १६३३ का साल था || शाहजहा जहा लोदी के विरुद्द अपनी सेना लिए दक्कन की चढाई पर गया हुआ था | शाहजहा कभी मुमताज को अपनी नजरो से दूर न्क्र्ता | वह भी उसके साथ द्द्क्कन गयी हुई थी | बुरहानपुर में मलिका ने शाहजहा की गोद में दम तोड़ दिया |
शाहजहा पर जैसे वज्र टूट गया | मुमताज के साथ बीस बरस के अपने वैवाहिक जेवण में उसने कभी विछोह जाना ही नही था | उसे गुमान भी न था कि उसे कभी अपनी प्रेयसी से अलग होना पड़ेगा | दिन रात के साथ ने कुछ ऐसा विश्वास दिला दिया था कि जैसे उसे कभी उसे अलग नही होना है |
पर अब उसकी आँखों के सामने आसमान घूम गया | हफ्तों उसने किसी वजीर तक को अपने पास न आने दिया | खाना पीना छुट गया , गद्दी तक छोड़ देने की ख्वाहिश उसने जाहिर की | दरबार ने दो साल मातम न्माया | नाच – रंग , गाना – बजाना , उत्सव – समारोह सब बंद हो गये | जेवर – जवाहारात , इतर इत्यादि सब कुछ विसर्जित कर दिए गये | मुमताज जीकाद के महीने में मरी थी | जीकाद का महीना सदा के लिए मातम का महीन करार दिया गया | महरूम की लाश आगरे के ताज के ब्घिचे में तब तक रखी गयी जब तक रखी गयी जब तक कि वह इमारत तैयार न हो गयी जिसके लिए शाहजहा ने अपने दिल में जगह कर ली थी |
मलका के दफनाने के लिए ऐसा मकबरा बनना था जो दुनिया में लामिसाल हो जिसे देख फरिश्ते हैरत में अ जाए | इंजीनियरों की कमी न थी | अकबर के ही जमाने से आगरे के दरबार में दूर – दूर के इंजीनियरों की भीड़ लगी रहती थी — हिन्दुस्तान , ईरान के , ईराक , आर्मीनिया के , मध्य एशिया के |
शाहजह ने ” माडल ” मांगे | दुनिया में सबसे सुन्दर बनने वाली इमारत के लासानी मकबरे के माडल आये — चीन से , मंगोलिया से , समरकंद — फरगना से , ईरान – खुरासान से , ईराक — आर्मीनिया से , काहिरा – अल्ह्म्रा से , वेनिस – वर्साई से , कुस्तुन्तुनिया — बाईजेनित्यम से |
एक से एक माडल आये , इतने कि दीवाने खास भर गया , ऐसे कि आख नही ठहरती , चुनना मुश्किल हो गया | शाहजहा खुद हैरत में था , उसके इंजिनियर दांग थे | कैसे क्या चुने ?
योरप का सबसे चतुर कलावन्त वेनिस का गेरोनियो विश्वकर्मा को भी अचरज में दाल देने वाला अपना माडल लिए जमा था | उधर बाईजेनिय्म का तुर्क शिराज का उस्ताद ईसा अपनी उज्जवल मुकताध्वल कारीगरी लिए चुप बैठा था , उस अंधे कारीगर के पास जिसकी सलाह से वह अदभुत नमूना तैयार हुआ था | और शाहजहा की आँखे दोनों पर — वेरोनियो से ईसा पर , ईसा से वेरोनियो पर — लगातार फिर रही थी | उस्ताद ईसा का शिराजी नमूना शाहजहा को जम गया | उसकी सादगी ने उसे मोह लिया | शाहजहा ने अपने मुख्य स्थपित से कहा — दुनिया में जहा कही राज और कारीगर हो बुला लो , हर अपने फन में उस्ताद हो | फिर खजांची को बुलाकर उसने कहा — इस नायाब इमारत के लिए खजाने के किमिति से कीमती जवाहरात हाजिर करो | दुनिया में जो रतन , जो कीमती पथ्थर काम का हो , माँगा लो , कीमत की प्रवाह न करो | दौलत बेशुमार शाही खजाने में पड़ी है , कमी हो तो सल्तनत के सुबो से वसूल करो | दोनों ने सिर झुका लिए , दोनों हुकम की तामिल में लगे |
मुख्य स्थपित अपने कम में लगा | स्थपतियो की कौंसिल प्लान को समझने लगी | संसार की सुन्दरतम इमारतो की ड्राइंग उस प्लान में दाखिल हुई | हिन्दुस्तान के कलावन्त , फारस के रंगसाज , अर्ब के संगतराश , आर्मीनिया के पच्चीकार , कुस्तुन्तुनिया के गुमब्जकार , वेनिस के सुनार आगरे में आ जमे | पर शाहजहा संतुष्ट न हुआ | उसने फिर हुकम जारी किया —–
बगदाद , देहली , और मुल्तान से राज बुलाओ , एशियाई , तुर्की और समरकंद से गुमब्जकार . कन्नौज — बगदाद से पच्चीकार बुलाओ , शिराज से हरूफ नक्काश | हुकम की देर थी | आ गये बगदाद , देहली और मुल्तान से राज , एशियाई , तुर्की और समरकंद से गुमब्जकार , कन्नौज — बगदाद से पच्चीकार शिराज से हरूफ नक्काश | सल्तनत का खजांची भी हुकम की तामिल में लगा | हिन्दुस्तान और मध्य एशिया से कीमती पत्थर मगाने में उसने पानी की तरह तैमूरिया खजाने का धन भाया | जयपुर से संगमरमर आया , सिकरी से संग्सुख , पंजाब से सूर्यकांत | चीन से जमरूद और स्फटिक आये तिब्बत से नीलमणि अर्ब से मूंगा और संगमुसा | पन्ना से हीरे आये , ईरान से बिल्लौर और याकुत , शहर पूजां से गोमेद | अब जगह चाहिए थी , तातारीउसूलो के अनुकूल जगह — जहा रवा आब हो , जिन्दगी का प्रतीक फूलो का बाग़ हो मौत का प्रतीक सरो का साया हो , जमीन जिसकी लुटी – चुराई हुई न हो | जमीन अम्बर के राजा जै सिंह ने दी , शाही जमीन के बदले ; वह जमुना का रवा पानी था , फूलो का बाग़ था , सरो का साया था |
इतिहास का विद्यार्थी देख रहा है — बुर्जियो के पीछे , जमुना के किनारे उठती हुई ताज की इमारत को और सुन रहा है संगतराशो की खटखट , छेनी की चोट , और दूर – पास से आती हुई एक कराह जो संगतराशो की खटखट , छेनी की चोट पर छा जाती है , उनमे घुलमिल जाती है |
वह देख रहा है उस आलम को जो शाहजहा का स्वपन सच्चा कर रहा है , जिसमे हिन्दुस्तान के क्ल्वांत , फारस के रंगसाज , अर्ब के संगतराश , आर्मीनिया के पच्चीकार , कुस्तुन्तुनिया के गुमब्जकार , वेनिस के सुनार लगे है , फर बगदाद , देहली और मुल्तान के राज लगे है एशियाई , तुर्की और समरकंद के गुमब्जकार , कन्नौज — बगदाद के पच्चीकार लगे है , शिराज के हरूफ नक्काश और उनके इशारो पर दौड़ने वाले , मोटे काम करने वाले बीस हजार मजूर | ताज की नीव पद गयी है उसका आकार उठ चला है |
ताज का निर्माण कुछ मजाक नही | तैमूरिया सल्तनत के सारे साधन , हिन्दुस्तान की जनता की समूची प्रतिभा , उसका कुल ‘ जीनियस ‘ उसके निर्माण में लगा | जनता ने पहले भी बहुत कुछ दिया था — सरहदी लड़ाइयो के लिए धन , तख़्त ताउस के लिए दौलत | सब कुछ दे सकती है |
पहले शाहजहानाबाद , फिर दरबारे आम और ख़ास , फिर जामा मस्जिद , फिर मोती मस्जिद और अब ताज , सारा देश एक सांस से ताज के लिए काम कर रहा था | किसान उसी के लिए खेत जोत रहा था , फसल काट रहा था , काफिर , पंडित उसी की निर्विघन समाप्ति के लिए पूजा कर रहा था , सौदागर उसी के लिए व्यापार कर रहा था | सूबेदार किसानो से जूझ रहे थे | दोनों में होड़ लगी थी , सुबेदारी पलटन की क्रूरता में और किसानो के बर्दाश्त और पसीने में |
आसाम से गिरनार तक , काबुल से गोलकुंडा तक — सारा देश ताज के ही नाम सोता , ताज के ही नाम जागता था | दौलताबाद और दक्कन , गुजरात और मालवा , बंगाल और बिहार , सिंध और पंजाब , काबुल और कश्मीर से दिल्ली आने वाली सदके निरंतर श्रृखलाबद्द खजाना लदी गाडियों से भरी रहती |
एक कतार गाडियों से दूसरी कतार मजदूरों से | रोज बीस हजार मजदूर लगते थे |
ताज के निर्माण की अवधि बीस वर्ष कुतीगयी थी | बीस वर्ष , बीस हजार मजदूर , तीस करोड़ रूपये | बीस हजार मजदूर बैस वर्ष तक — कम से कम दो पिधिया | फ़ौज का सिपाही कमजोर हो सकता था , उसके कमजोर होने से कम चल सकता था पर मजदूर कमजोर नही हो सकता था | उसे बदन की ताकत भरपूर खर्च करनी थी | पत्थर की चट्टाने उसे उठानी थी , हाँ चट्टाने और दूर तक , चट्टाने चाहे संगमरमर की ही क्यों न हो , उनकी नसे चाहे ही क्यों न हो , है तो वे चट्टाने ही ; उन्ही चट्टानों को इन मजदूरों को उठाना है |
बैस वर्ष तक बीस हजार नित्य | दो पिधिया , एक — एक पीढ़ी के दस – दस वर्ष — आयु के सुन्दरतम , शक्तिमय वर्ष , पच्चीस से पैतीस वर्ष तक की आयु — जब एक – एक पीढ़ी का एक – एक मजदूर अपने परिवार के उस काफिले को खिलाने के लिए पूरा न्पद्ता जो वावजूद उसके गिडगिडाने के भगवान छप्पर फाड़ कर दिए ही जाता था |
मजदूर — दूर काठियावाड़ के मजदूर , अहमदनगर – गोडवाना के मजदूर बंगाल – बिहार के मजदूर , गुजरात – सिंध के मजदूर काबुल — पंजाब के मजदूर गंगा — जमुना पार के मजदूर | मुफ्त — बेगार मजदूर उपर दूर तक चट्टान चढाने वाले चढाते — चढाते गिर कर मर जाने वाले मजदूर , गोर गेहुए , काले मजदूर – गरज कि सारा हिन्दुस्तान |
ताज की इमारत उठती चली आ रही थी , खुशनुमा फूलो के बाग़ में प्रशांत सरो की सेवा में , रवा दरिया के किनारे | उठती आ रही थी इमारत हाथो हाथ उठती मजदूरों पर कोड़े बरस रहे थे , राजपुरुष इधर – उधर कोड़े फटकारते घूम रहे थे और हाथोहाथ सम्मिलित शक्ति से जैसे पत्थरों की श्रृखला बंध जाती थी , नीचे से उपर तक | गोर — गेहुए – काले हाथ ! क्यों न लगे ये गोर — गेहुए – काले हाथ कही और — क्या न कर सकते थे ये हाथ एक साथ ?
मजदूरों की तीन – तीन रिजर्व पार्टिया थी — बराबर नयी होने वाली दस – दस हजार की | बीस हजार से कई गुनी संख्या जयसिंह के उस आरामगाह में पड़ी रहती थके हुओ को फुर्सत देने के लिए | और जमुना पार से बेगारो की जमात . रोज आती रहती चीखते , — बिलखते मजदूरों की जमात साथ ही बीबी से बिछुड़े , माँ अकेली बेसहारे , बच्चो की उम्मीद !
इमारत का धड खड़ा हो गया | कंधे नगे खड़े है — इतिहास का विद्यार्थी देखता है — मस्तक अभि गायब है बनना है | एशियाई , तुर्की और समरकंद के गुम्ब्जकर अपनी कारगुजारी दिखा रहे है हाथ की सफाई | उन्हें हजरत अली के मजार शरीफ के मकबरे का गुम्बज सर करना है , समरकंद में गुर अमीर वाली तैमूरी कब्र का गोलाम्बर जितना है , इस्फ़हानी मस्जिदेशाही का गुम्बज झुका देना है | वे अपने कम पर लट्टू की तरह नाच रहे है | ताज उठता आ रहा है |
ताज उठता आ रहा है | पर अब इमारत का ताज बन रहा है , मकबरे का मस्तक |
और उसका बनना आसान नही | मामूली दाख की बेल के लिए खून की जरूरत होती है , दाख की बेल जो साल में बस एक बार आती है | इसे सदियों खड़े रहना है , धूप में , बरसात में , आँधी और बवंडर में | बड़े बलिदानों की इसे जरूरत होगी |
पर बलिदान के पशु तैयार है | मजदूरों की तादाद रोज बढाई जा रही है | बलिदान सदा अपनी इच्छा से नही होते | यदि अपनी इच्छा से ही सदा बलिदान होते तो मिस्र के पिरामिड कैसे बनते , दजला — फरात के जग्गुरत कैसे खड़े होते , चीन की दीवार कैसे दौड़ती , रोम का कोलोसिस्यम कैसे बनता ? सारे बलिदान बलि – पशु की इच्छा से ही नही होते | बलि — पशु की इच्छा से कौन बलिदान होते है ?
पर जो हो , बलिदान की आवश्यकता यहाँ है — इतिहास का विद्यार्थी साफ़ — साफ़ देखता है — शाहजहा — मुमताज की मुहब्बत की बेल — ताज का मकबरा — चढानी है | उसकी जड़ में जब इंसान का गरम खून रसेगा तब कही यह इमारत सदियों टिकेगी | बेजबान मजदूर अपने बादशाह की इस नन्ही मांग को नही ठुकरा सकते |
गुम्बज बनने लगा | ढोके लेकर कइयो को एक साथ चढना है , चढना होगा उस गोल कटाव के पास तक पतली सीढ़ी के सहारे | और इतिहास का विद्यार्थी देख रहा है ———– पतली सीढ़ी के सहारे | और यह हड – हड आवाज भी सुनता है | हड – हड — तड़ – तड़ | कहा गये ये मजदूर ? चट्टाने तो ये है , ढोके वहा जा गिरे है , चाहे संगमरमर के ढोके — पर मजदूर कहा है जिन्होंने इन्हें सीढ़ी की उस पतली आसमानी राह पर उठाया था ? पूछता है इतिहास का विद्यार्थी और जब वह नही कुछ देख पाता , सुनता निश्चय है एक आवाज पर अकेली आवाज नही , मिली — जुली अनेको की एक साथ — एक चीत्कार , चीख — पुकार जो गिरी चट्टानों की धमक की बार — बार उठती गूंज को दबा देती है , ताज के अधबने मस्तक पर छा जाती है !
पर चट्टानों का चढना नही रुक सकता क्योकि गुम्बज का बनना नही रुक सकता , क्योकि ताज का बनना नही रुक सकता , क्योकि शाहजहा — मुमताज की मुहब्बत का मान यह मकबरा बन कर ही रहेगा , क्योकि सारी सल्तनत के साधन , सारे देश के ”जीनियस ” इसके निर्माण में लगे है , क्योकि ये बेजबान हजारो मील दूर से जो आये है , लाये गये है , इनका क्या होगा ?
देख रहा है वह विद्यार्थी मजदूरों का बार — बार गुम्बज की ओर पतली राह से चट्टानों को लेकर चढना इनका उलट कर गायब हो जाना , फिर सुनता है चट्टानों की धमक और गूंज , फिर अनजानी भयावनी आवाज का — चीख — चीत्कार — उच्छ्वास का — उठना , चट्टानों की गूंज को दबा देना , उपर गुम्बज पर छा जाना फिर और फिर | और दूर के काठियावाड़ — मालवा में गोलकुंडा – गोडवाना में , बंगाल — बिहार में , काबुल – पंजाब में और पास के दिल्ली — आगरे के गाँवों में झोपड़ो सायबानो की देहली में खड़े माँ – बाप , बीबी बच्चे राह देख रहे है थकी उम्मीदों के सहारे लम्बे इन्तजार से लडखडाते पैर | और उन्हें पता नही उन कोड़ो का चट्टानों के उठने – गिरने का उन प्रेतों की सेना की उठती — फैलती आवाज का , जो गिरती चट्टानों की धमक की गूंज को दबा देती है , उठते गुम्बज पर छा जाती है |
और इतिहास का वह बेहया विद्यार्थी अभी सुनता ही जाता है यद्यपि कभी वह कानो पर हाथ फेरता है कभी मुँह पर कभी आँखों पर | और गुम्बज उठता ही आता है | उधर प्रधान स्थपति मशगुल है , नितांत व्यस्त | नीचे मजार की छत बन रही है पच्चीकारी में कीमती पत्थर जड़े जा रहे है , देश – विदेश के | मजार की जाली सोने की है जवाहारात जड़ी | और ये चांदी के उसके दरवाजे है जिनमे कीमती पत्थर लगे है जिन्हें फ्रेंच सुनार आसीन द बोर्दो ने तैयार किया है , बोर्दो जिसने तख़्त ताऊस बनाकर पन्द्रह लाख पाए थे |
खजांची भी अपनी खरीदारी में व्यस्त है | फारस के गलीचे वह खरीद रहा है , सोने के चिराग , कीमती शमाहजार और मजार को ढकने के लिए मोतियों की चादर लाखो फेंक रहा है वह | देश की सारी ताकत लगाये हुए है , रूपये फेंकता जा रहा है पर लाश अभी दफनाई नही जा सकती — वह चट्टानों की धमक है छेनियो की खट – खट है और उससे बढ़कर उन बुर्जियो का बनना अभी बाकी है जो गुम्बज से कही ऊँची जायेगी , जो उससे कही पतली होगी जिनकी राह कही अधिक संकरी होगी , जो शहजादी के चारो ओर लम्बी सहेलियों – सी खड़ी होगी |
फिर वही शोरेमातंम | बुर्जिया बन रही है , जाने चीख रही है | इतिहास का विद्यार्थी देख — सुन रहा है | बुर्जिया बन चली , गिरती चट्टानों से गिरती चट्टानों के उपर चढ़ चली , दबी — चीखती जानो के उपर |
अब समझ पाया वह इतिहास का विद्यार्थी ” आहिस्ता बोलो ” का राज ” धीरे दस्तक ‘ देने का मतलब | श्मशान की शान्ति में आर्जुमन्द बानू बेगम की मजार की रहस्यमय चुप्पी की पुकार अब वह सुनता और समझता है | उसकी सांय – साय में जो एक बोझिल आवाज उठती है , वह जानता है है , उन भूतो की है जो अपनी मौत से नही मरे , जो कयामत के रोज भी न उठेगे , जो गुम्बज और बुर्जियो से गिर कर बगैर दफनाये दरगोर हो गये , जिनकी चीख इमारत की ईट — ईट से निकल रही है |
वह भागता है , उस समाधि — गृह से , मजार की चुप्पी से जहा हजारो भूतो की आवाजे हवा में घुली – मिली थी , उन भूतो की जिनके मरने पर उन्हें न किसी ने तेल – इत्र लगाया , न किसी ने कफन ओढाया — जो ऊँचे आसमान से गिर कर नीव में दब गये थे |
वह फिर कर देखता है , भागता है , फिर देखता है ताज की ओर , उसकी गुम्बज और बुर्जियो की ओर – और ! सोचता है — क्यों नही ! यह निश्चय प्रतीक है इमारत ! पर शाहजहा और मुमताज की मुहब्बत की नही , बल्कि देश की एकत्र प्रतिभा की , किसानो के उस पसीने की जिनका उल्लेख्य किसी इतिहास में नही |
और वह बुर्जियो को जो देखता है तो उसे कुछ नही दिखता , न बुर्जियो , न गुम्बज , न इमारत पर उनकी जगह पर छायी — छायी वह दर्द भरी आवाज सुनता है जिससे समाधि — गृह का वातावरण क्षुब्द था , हवा बोझिल थी और जो अब उपर उठकर आसमान में छायी हुई है , जो उन भूतो की है जो सदा के लिए सो गये है , जो कभी न उठेगे , कयामत के रोज भी नही |
और दूर के काठियावाड़ — मालवा में गोलकुंडा — गोडवाना में बंगाल — बिहार में और पास के दिल्ली — आगरे के गाँवों में झोपड़ो , सायबानो की देहली में खड़े माँ — बाप , बीबी – बच्चे राह देख रहे है थकी उम्मीदों के आसरे , लम्बी इन्तजार से लडखडाते पैरो — उनके लिए जो सदा के लिए सो गये है , जो कभी न उठेगे , कयामत के रोज भी नही |
सुनील दत्ता — स्वतंत्र पत्रकार
आभार – बुर्जियो के पीछे लेखक – भगवत शरण उपाध्याय
फोटो — शाह आलम — सुनील दत्ता