लोग मान नहीं रहे हैं, लेकिन क्यों?
लॉकडाउन के दौरान प्रचार माध्यमी समाचारों सूचनाओं में तथा जिले व प्रांत के अधिकारियों के बयानों में यह बात बारंबार सुनाई पड़ रही है कि ’लोग मान नहीं रहे हैं। कोरोना से बचाव के लिए सोशल या फिजिकल 2 गज की दूरी का पालन नहीं कर रहे हैं। लॉकडाउन के दौरान उसका बारंबार उल्लंघन करने के साथ अब कंटेनमेंट जोन से भी बाहर निकल आ रहे हैं या बाहर से इस जोन के भीतर चले जा रहे हैं। लोग समझ ही नहीं रहे हैं कि वे अपने को, अपने परिवारजनों को तथा दूसरों को भी करोना संक्रमण की दिशा में ढकेल रहे हैं। परिवार-समुदाय एवं समाज को खतरे में डाल रहे हैं।’ ऐसे बयानों के साथ शासन प्रशासन एवं पुलिस के पद रुतबे और वर्दी के रोब-दाब का स्वर भी सुनाई पड़ता है कि लोग सावधान रहें, प्रशासन कोरोना की रोकथाम के लिए सख्त से सख्त कदम उठाने से नहीं हिचकेगा। अगर लोग नहीं माने तो यह सख्ती और ज्यादा कर दी जाएगी। कानून और आदेश का उल्लंघन करने वालों को तत्काल जुर्माना भरने के साथ अपने विरुद्ध दर्ज की जाने वाली एफ. आई. आर. का भी सामना करना पड़ेगा।
जाहिर सी बात है कि लोगों को यह बताया जा रहा है कि अगर वो कोरोना से नहीं डरते या नहीं डर रहे हैं, तो उन्हें शासन-प्रशासन के कानून, आदेश व पुलिसिया डंडे, जुर्माने और मुकदमे से डरना होगा।
इसके बावजूद वस्तुस्थिति यह है कि लोग जुर्माना भर रहे हैं। पुलिस के डंडे व गाली खा रहे हैं। मुख्य सड़क, चट्टी-चैराहा छोड़कर ग्रामीण सड़कों चकरोडों से निकल रहे हैं, पर निकल जरूर रहे हैं। स्वभावतः उनमें वे लोग शामिल नहीं हैं, जो घरों में सुरक्षित रहने की स्थितियों में हैं। जिन्हें तत्काल पेट भरने और जीवन की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बाहर निकलने की फिलहाल कोई आवश्यकता नहीं है और जिनके पास वेतन, आय और अन्य सुरक्षा उपायों की सुनिश्चितता भी है।
बताने की जरूरत नहीं कि शासन प्रशासन में बड़े छोटे पदों पर बैठे ऐसे लोग तमाम सावधानियों व चेतावनियों वाला बयान भी दे रहे हैं। सबक सिखाने वाली कार्यवाहियां कर रहे हैं। लेकिन इसमें दुखद बात यह है कि उन्हें दूसरों की समस्याएं व मजबूरियां दिखाई नहीं पड़ती। लोगों के लॉकडाउन से बाहर निकलने, कंटेनमेंट जोन के बाहर- भीतर आने-जाने की मजबूरियां दिखाई नहीं पड़ती। वह उन्हें सभी लोगों का मनमानापन, मनोरंजन या तफरीह नजर आता हैद्य रोजी रोजगार की भयानक होती जा रही समस्यायें , कोरोना के अलावा अन्य गंभीर रोगों तथा उनके इलाज की बढ़ती समस्याएं तथा अन्य आवश्यक उपयोग एवं उपभोग की समस्यायेँ उन्हें नजर नहीं आती।
यह स्थिति केवल शासन-प्रशासन में बैठे राजनेताओं, नौकरशाहों की ही नहीं है, बल्कि समाज के सभी धनाढ्य एवं उच्च वर्गों की, विपक्षी पार्टियों के उच्च नेतृत्व की, ज्यादातर प्रचार माध्यमी विद्वानों, संपादकों आदि की भी है। अपनी उच्चता के चलते उन्हें जनसाधारण की मजबूरियां नहीं बल्कि उसकी गलतियां ही गलतियां नजर आती हैं। उन्हें अपनी कोई गलती नजर नहीं आती।
अन्यथा यह देखना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं कि कोरोना या कोई भी संक्रामक या गैर संक्रामक रोग को रोकने का प्रमुख उत्तरदायित्व नौकरशाहों का नहीं बल्कि चिकित्सकों का है। उस रोग के फैलने, बढ़ने तथा उससे होने वाली मौतों की दर के त्वरित अध्ययन (जिसे चिकित्सा की भाषा में इपिडिमोलॉजिकल स्टडी कहा जाता है) के साथ उसकी रोकथाम एवं निदान की दिशा तय करने का काम चिकित्सकों का है। खासकर संक्रामक रोग एवं उसके रोकथाम के शिक्षित एवं अनुभवी विशेषज्ञों का है न कि प्रशासनिक नौकरशाहों का। इसके रोकथाम के लिए नौकरशाही तथा प्रशासन एवं पुलिस को तो चिकित्सकों के पीछे रखना आवश्यक था और है।
ऐसा न करने का नतीजा भी हमारे सामने है। कोरोना की रोकथाम के लिए अपनाए गए सभी कदमों की असफलता के रूप में सामने है। उदाहरणार्थ-
1- पहले और दूसरे लॉकडाउन की तमाम प्रशासनिक सख्ती के बावजूद करोना का संक्रमण लगातार बढ़ता रहा। लॉकडाउन से पहले के छिटपुट संक्रमण की जगह वह और ज्यादा व्यापक रूप में तथा और तेजी के साथ बढ़ता रहा।
2 – इसके बावजूद तीसरे लॉकडाउन से शराब की बिक्री के लिए दी गई छूट ने शासन प्रशासन द्वारा प्रस्तुत सोशल या फिजिकल डिस्टेंसिंग के नियम को उपेक्षित कर दिया। शासन प्रशासन एवं पुलिस ने उसकी अनदेखी कर दिया। जबकि जनसाधारण के कार्य स्थल एवं आवागमन को बड़े पैमाने पर रोकने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी रही। स्वाभाविक था कि इसका कोई सार्थक परिणाम नहीं आना था और न ही आया। रोग का संक्रमण और ज्यादा बढ़ा।
3 – यही स्थिति आज भी जारी है और पहले से कहीं ज्यादा तेजी के साथ जारी है। इसके बावजूद कोरोना की रोकथाम के लिए शासन प्रशासन द्वारा अपनाए गए तरीकों में कोई बदलाव नहीं किया गया। इस बात की अनदेखी लगातार की गई कि इस संक्रामक रोग की संक्रामकता के दर के अनुपात में मृत्यु दर अब भी बहुत कम है। लक्षण विहीन या लक्षण युक्त रोगियों के स्वस्थ होने की दर कहीं ज्यादा है। उसकी मृत्यु दर भी मुख्यतः 60 – 70 वर्ष या उससे ऊपर के आयु वर्ग में तथा किसी भी आयु वर्ग के ऐसे गंभीर रोगियों में ज्यादा है, जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो गई है। स्वस्थ एवं 15 से 60 की आयु वर्ग के लोगों में उसकी संक्रामक था कम होने के साथ-साथ मृत्यु दर और ज्यादा कम है।
4 -इस संक्रामक रोग की सटीक दवा तथा वैक्सीन के अभाव में सुरक्षा उपायों के साथ प्राकृतिक प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ावा देना ही इसका सर्वाधिक कारगर तरीका था और है। इसके लिए गर्भवती स्त्रियों को छोड़कर 15 वर्ष से ऊपर तथा 60 वर्ष से कम आयु वर्ग के स्वस्थ लोगों को सुरक्षा उपायों के साथ अपने कार्य स्थलों पर जाने की छूट शुरू से दी जानी चाहिए थी। ताकि उनमें उन्हें सामुदायिक रूप से सामान्य प्रतिरोधक क्षमता का विकास हो सके। इसके साथ ही कोरोना के विरुद्ध विशिष्ट प्राकृतिक प्रतिरोधक क्षमता का भी विकास हो सके।
5 – एक तरफ तो हम कोरोना संक्रमण से बचने के लिए समुदाय में 2 गज या 2 मीटर की फिजिकल दूरी की बात करते हैं, दूसरी तरफ हम किसी मोहल्ले के एक घर में कोरोना पॉजिटिव मिलने पर पूरे मोहल्ले को 2-4 गज की दूरी तक नहीं बल्कि चारों तरफ से 250 मीटर की दूरी के हिसाब से कंटेनमेंट जोन में बंद कर देते हैंद्य उस घर परिवार को बाहरी संपर्क में आने से रोकने के बजाय 250 मीटर तक के लोगों का कामकाज एवं आवागमन बाधित कर देते हैं। आखिर इस कंटेनमेंट के लिए 250 मीटर का पैमाना क्यों बनाया गया? अगर इस बीमारी के हवा से फैलने का अंदेशा है, तो 250 मीटर ही क्यों? इसका क्या वैज्ञानिक आधार है? वस्तुतः कोई आधार नहीं है। इसीलिए कंटेनमेंट जोन तो एक अतार्किक एवं अवैज्ञानिक तरीका ही साबित होता रहा है। यह चिकित्सा विज्ञान का नहीं बल्कि शासन-प्रशासन का निष्प्रभावी एवं हुक्मी तरीका साबित होता रहा है। लेकिन इस तरीके से न तो करोना का संक्रमण रुक रहा है और न ही रुक सकता है।
इसी के मद्देनजर केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों से निवेदन है कि वस्तुस्थिति का पुनः मूल्यांकन करें। इस बात की विवेचना करें कि इस संक्रामक रोग के वस्तुगत स्थितियों को लोग नहीं मान रहे हैं या शासन-प्रशासन नहीं मान रहा है। इसकी पुष्टि वे अभी तक रोकथाम के उठाये कदमों के बावजूद संक्रमण के लगातार बढ़ने के तथ्यों से कर लें। निचले समाज के साथ साथ सावधानी सुरक्षा के घेरे में बैठे उच्च स्तरीय लोगों में फैलते संक्रमण से कर लें।
उपरोक्त तार्किक विवेचना एवं अध्ययन के निवेदन के साथ-साथ शासन-प्रशासन से हम यह निवेदन भी करेंगे कि इसके रोकथाम की कमान योग्य एवं अनुभवी चिकित्सकों तथा चिकित्सक समुदाय को दें। ताकि वे संक्रामक रोग के गंभीर अध्ययन एवं आपसी विचार विमर्श से इस रोग के संक्रमण दर एवं मृत्यु दर को घटाने का तथ्यपरक वैज्ञानिक एवं प्रभावी रास्ता निकाल सकें। लेकिन एक बड़ी विडंबना यह भी है कि चिकित्सक समुदाय खुद भी आगे नहीं आ रहा है। शासकीय-प्रशासकीय बयानों हिदायतों के अनुसार अपनी सुरक्षा में जुटा हुआ है। वह 2 गज की दूरी से भी ज्यादा दूरी पर बैठ अपने मरीजों को देख ले रहा है। अपना आधा नहीं पूरा मेहनताना लाभ समेत वसूल ले रहा है। इसका बड़ा कारण यह भी है कि चिकित्सक समुदाय का खासा हिस्सा भी धन, पैसे व सुविधा की ऊंचाइयों पर चढ़ता रहा है। ऐसी स्थिति में तो उसे नौकरशाही के मुताबिक ही चलना पड़ेगा। वस्तुतः सुरक्षा उपायों के साथ चिकित्सकों में कोरोना से डर का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।
चिकित्सकों को यह भी याद रखना चाहिए कि इससे कई गुना भयंकर संक्रामक रोगों में पहले के चिकित्सक आज जैसे सुरक्षा उपायों के बिना ही काम करते रहे हैं जीवन को जोखिम में डालकर काम करते रहे हैं। इसके बावजूद उनमें कोई डर है तो उन्हें बहुत ही कम सुरक्षा उपायों के साथ गंदगी में करने वाले तथा सुख सुविधा से हीन सफाईकर्मियों से प्रेरणा लेने की जरूरत है। खेतों में आकाशीय बिजली गिरने का खतरा उठाते हुए किसानों से और ऐसे ही साधारण श्रमजीवियों से प्रेरणा लेने की जरूरत है। हाँ, 65-70 या इससे ऊपर के आयु वर्ग के चिकित्सकों को तथा शुगर, दिल, फेफड़ा, गुर्दा एवं लिवर के बीमारियों से पीड़ित चिकित्सकों को अपने विवेक पर काम करने या न करने की छूट अवश्य मिलनी चाहिए।
दिनांक – 29-07-2020
डा0 बी0 एन0 गौड़
आजमगढ़ नगर
(कोरोना कन्टेनमेंट जोन)