……..राय पिथौरा .
उससे आगे की कथा
राय पिथौरा के हाथो मिली पराजय को सुलतान एक क्षण के लिए भी न भूल पाया . वह पूरे विश्वास से सेना में नई भर्ती करने लगा . उस ने अपने राज्य के कोने — कोने से तुर्क , अफगान , मगोल तथा दुसरे लड़ाकू सैनिक इक्कठे किये , कुछ ही महीनों में उस ने 1,20 , 000 घुड़सवारो की बड़ी सेना जुटा ली | इस प्रकार पूरी तैयारी क्र के बड़े आत्मविश्वास के साथ वह 1192 ई . में हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने के लिए बढ़ा |
पृथ्वीराज को ज्यो ही मुहम्मद गोरी के इस नए अभियान का पता लगा , उसने भी सामना करने की तैयारिया शुरू कर दी . उस ने अपने सभी मित्र राजाओं और सामन्तो को सेना सहित आने का निमंत्रण भेजा , सम्राट का बहनोई अमरसिंह 30 हजार राजपूतो के साथ आया . पृथ्वीराज के प्रमुख सामंत परमार , धीर चामुंड राय आदि भी अपनी — अपनी सेनाओं के साथ आ जुटे
दिल्ली में युद्ध की तैयारिया पूरे जोर से चल रही थी वातावरण में अजीब सनसनी थी . पहले की भाँती महारानी संयोगीता ने अपने पति को वीर वेश पहनाया और सभी अस्त्र शस्त्रों से सजाया ; लेकिन उस दिन महारानी के मुखमंडल पर उत्साह के स्थान पर उदासी थी .
महारानी को उदास देख कर सम्राट ने मुस्कुरा कर पूछा , ” महारानी कुछ चिंतित दिखाई देती है ? ”
महारानी संयोगीता के होठो पर फीकी मुस्कराहट फ़ैल गयी , संभल कर बोली ” हां , महाराज , लेकिन चिन्ता का कारण म्लेच्छ का आक्रमण नही , बल्कि रात का सपना है . ”
” सपना ? कैसा सपना महारानी ? ” सम्राट ने स्नेह पूर्वक पूछा .
संयोगीता ने बताया ” महाराज गत रात मैंने बहुत भयानक सपना देखा था , रम्भा के समान एक परम सुंदरी बाला ने अचानक कही से आकर आप के हाथ पकड लिए और वह आप को अपनी ओर खीचने लगी . आपने मेरी ओर देखकर स्वंय को उससे छुडाना चाहा , मैं उसे हटाने के लिए आगे बढ़ी ही थी कि एक भयानक राक्षस ने मुझ पर हमला कर दिया , इसी घबराहट में मेरी नीद टूट गयी और फिर सारी रात सो नही पाई ”
पृथ्वीराज ने महारानी को गले से लगाया और हंस कर हर प्रकार से आश्वस्त किया . संयोगीता ने भी धैर्य धारण करके एक वीर क्षत्राणी की तरह , युद्धभूमि में जाने वाले वीर पति की आरती उतारी और प्रसन्न मन से उन्हें विदा किया , लेकिन इस बार महारानी का मन न जाने क्यों बार — बार आकुल हो उठता था | संयोगीता से विदा लेकर पृथ्वीराज अपने सामन्तो के साथ तेज गति से उत्तर की ओर बढ़ा ताकि तुर्कों को और आगे बढ़ने से रोका जा सके , उसे आशा थी कि पहले की तरह इस बार भी तुर्कों को मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा |
हां , इस बार कन्नौज के राजा जयचंद की ओर से अवश्य खटका था | पिछले युद्ध में वह तटस्थ रहा था , इस बार यह अफवाह थी कि उसकी सेनाये भी म्लेच्छो के साथ मिलकर लड़ेगी |
पृथ्वीराज ने सोचा , ” इस बार मुकाबला तगड़ा होगा , ” उसकी सेनाओं ने तरावली के मैदान में छावनी डाल दी , दूसरी ओर सुलतान मुहम्मद गोरी की सेनाओं की सेनाओं ने भी अपना मोर्चा जमा लिया , दोनों दल एक दुसरे पर सतर्क दृष्टि रखते हुए शत्रु की ताकत को भापने लगे |
मुहम्मद गोरी ने पिछली पराजय से अच्छी शिक्षा ली थी , वह यह बात अच्छी तरह जान गया था कि राजपूत सैनिको से वह आमने सामने के युद्ध
में पार नही पा सकता , इसलिए उसने कूट युद्ध और छल का आश्रय लिया , उसने
अपनी सेना के पांच हिस्से किये , सबसे पहले दस — दस हजार के चार डिविजन
नियुक्त किये , जिसमे सभी कवच बंद धनुर्धारी योद्धा थे , वे सब मोर्चो पर
जमा दिए गये , शेष चुने हुए सवार उसने अलग सुरक्षित रख छोड़े थे , जिन्हें
एक संकेत पर ही युद्धभूमि में उतरना था |
सुलतान के बाणवर्षा करने वाले
चार डिविजनो को आदेश दिया कि वे काफ़िरो के साथ आमने सामने की लड़ाई से परहेज
करे , जहा तक हो सके सम्मुख युद्ध को टालते जाए और दौड़ — दौड़ कर उन पर
बाणों की वर्षा करते रहे , एक जगह पर टिके न रहे . जब काफिर लोग लड़ने के लिए
सामने आये तो चतुराई से इधर — उधर खिसक कर अपना बचाव करे और दुश्मन को
बाणों की मार से व्याकुल करते रहे , इस तरह लड़ते — लड़ते उन्हें खूब थका ले
और घायल कर दे |
जब दुश्मन खूब घायल हो जाए तो सभी तुर्क अचानक
युद्धभूमि से भागने लग जाए , मानो डर कर भाग रहे हो उन्हें भागते देख कर
दुश्मन अपने सुरक्षित मोर्चा को छोड़ कर आगे आयेगा , इस तरह उसे ढेड दो कोस
बढ़ने दे , फिर ठीक इसी समय मेरे सुरक्षित 70 हजार सवार उनके उपर अचानक
टूट पड़ेंगे और उन्हें चारो तरफ से घेर कर कत्लेआम शुरू कर देंगे |
सुलतान
ने अपनी यह युद्ध नीति सभी सेनापतियो को अच्छी तरह समझा दी , प्रात: होते
ही युद्ध शुरू हो गया , तुर्क तीरंदाजो के चारो डिविजनो ने अपनी विशेष
रणनीति के अनुसार हिन्दुओ पर चारो ओर से बाणों की बौछार कर दी | राजपूत आगे
बढे लेकिन तुर्क सम्मुख युद्ध से कतराते रहे वे एक जगह पर टिकते ही न थे ,
चोट करके भाग जाते , तुर्क सवार और उनके घोड़े कवचो से भली भाती सुसज्जित थे
अत: उन्हें चोट लगती भी कम थी , उनका पीछा करते — करते राजपूत परेशान हो
गये तुर्क युद्ध न करके हिन्दुओं को दौड़ा दौड़ा कर थका रहे थे और साथ ही
बाणों से घायल भी करते जा रहे थे | पर यह रणनीति दिल्ली नरेश की समझ में नही
आई , उनकी बाण वर्षा से बहुत से सैनिक मारे गये व घायल हो गये थे | इसी तरह
दोपहर बीत गयी इसी बीच पूर्व योजना के अनुसार तुर्कों ने तेजी से भागना व
पीछे हटना शुरू कर दिया , चौहान और राजपूतो ने सोचा कि ये तीरंदाज भयभीत होकर भागते जा रहे है , अत: उन्होंने उत्साह में भरकर उनका पीछा किया |
वे शत्रु की कुटचाल को न समझ सके और अपने सुरक्षित मोर्चो को छोड़ कर आगे बढ़ते चले गये , आगे बढने के जोश में उनकी सारी व्यवस्था और व्यूहरचना अपने आप छिन्न भिन्न हो गयी , ज्यो ही वे एक निश्चित स्थान पर पहुंचे , त्यों ही संकेत पाकर अचानक 70 हजार तुर्क सवारों ने उन पर धावा बोल दिया और चारो ओर से घेर कर मारकाट शुरू कर दी | इन अचानक हमले से हिन्दू सैनिक हक्के बक्के रह गये , न जाने कहा से ये तुर्क प्रेतों की तरह उन पर टूट पड़े थे | फिर भी उन्होंने साहस और धैर्य से उनका डट कर मुकाबला किया , विजयश्री धीरे — धीरे तुर्कों की ओर बढ़ने लगी कयोंकि इस नई ताजा दम सेना की मार को पहले से थकी टूटी हिन्दू सेना अधिक समय तक न झेल सकी |
तुर्कों ने बड़ी निर्दयता से हिन्दुओं को काटना शुरू किया , धरती खून से रंग गयी , कोसो तक लाशें बिछ गयी चितौड़ म्रेश समरसिंह ने अपने 30 हजार राजपूत योद्धाओं के साथ युद्धभूमि में प्राण त्याग दिए , महाराज पृथ्वीराज हाथी की पीठ से इस सर्वनाश को देखते रहे उनके वीर मित्र और सामंत एक एक कर के गिरते जा रहे थे | सारी हिन्दू सेना को तुर्कों ने अपने शिकंजे में कस लिया था और उनका घेरा कसता ही जा रहा था , भारी पराजय की विपत्ति सामने दिखाई पड़ती थी | सम्राट ने सेना को सुव्यवस्थित करके शत्रु से लोहा लेने का अंतिम प्रयत्न किया हाथी को छोड़ कर वह एक घोड़े पर सवार हो गये और दौड़ — दौड़ कर सैनिको को जोश दिलाते रहे | पर अब बहुत देर हो चुकी थी , तुर्क मारकाट करते हुए पास आते जा रहे थे | एक दल ने पृथ्वीराज को भी घेर लिया , सम्राट ने खूब डट कर सामना किया लेकिन तुर्क सवारों के टिड्डी दल से वह बुरी तरह घिर गये थे उन्होंने अपने मुठ्ठी भर साथियो के साथ लड़ते लड़ते प्राण त्याग दिए | पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के साथ दिल्ली ही नही , समस्त भारत की स्वतंत्रता को ग्रहण लग गया , तुर्कों के सामने अब कोई बाधा न थी , सुदूर अजमेर तक पूरा उत्तर भारत लूटमार के लिए उनके सामने खुला पडा था | तरावली में चौहानों की पराजय के साथ ही साथ भटिंडा , समाना , हांसी , गुहराम के सूबे और दुर्ग भी तुर्कों के हाथ में आ गयी |
सुलतान ने अजमेर तक सभी राजाओ का सफाया कर दिया और रास्ते में पड़ने वाले नगर और गाँवों को लूटकर हजारो मन सोना चांदी लेकर अपनी राजधानी लौट गया लौटने से पहले उसने अपने योग्य गुलाम कुतुबुद्धीन ऐबक को हिन्दुस्तान का सूबेदार नियुक्त किया |
मध्यकालीन हिन्दू समाज में सती प्रथा बहुत प्रचलित थी , मृत पति के साथ पत्नी का जीवित जल जाना बहुत गौरव की बात समझी जाती थी | इस निंदनीय प्रथा का पालन महलो से लेकर झोपड़ियो तक होता था , न जाने इन निर्दयी रिवाज के कारण कितने भरेपूरे परिवार नष्ट हो गये | कभी — कभी तो रिश्तेदार ही मृत व्यक्ति की सम्पत्ति को हडपने के लिए उसकी पत्नी को सती होने के लिए बाध्य करते थे |
तुर्क आक्रमण कारियों की पाशविक काम लिप्सा और बलात्कार से बचने के लिए इस काल में ” जौहर ” करने की परम्परा भी चालू हुई जिसमे स्त्रिया अपने पति की पराजय के बाद सम्मान की रक्षा के लिए हजारो की संख्या में धधकती आग में कूद कर प्राण दे देती | भारत में ऐसा पहला जौहर भी दिल्ली में ही हुआ था , महाराजा पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद संयोगीता ने पांच हजार स्त्रियों के साथ जौहर किया था . इसके बाद तो जौहर की ज्वाला सारे देश में फ़ैल गयी , शायद ही कोई ऐसा दुर्ग होगा जिसमे हिन्दू ललनाओं ने जौहर न किया हो |
पृथ्वीराज की इस पराजय से दिल्ली में हाहाकार मच गया . युद्ध भूमि में अपने पति की मृत्यु का समाचार पाते ही महारानी संयोगीता ने चन्दन की चिता सजा कर अग्नि प्रवेश करके सतीव्रत पूर्ण किया |
पृथ्वीराज की बहन पृथा भी अपने पति समरसिंह की मृत्यु का हाल सुनकर सती हो गयी | इन दोनों रानियों के साथ दुसरे शुर सामन्तो की पांच हजार क्षत्राणीया भी वस्त्र , और गहने से सुसज्जित होकर सती होने के लिए आगे बढ़ी , दिल्ली के पुराने किले में सैकड़ो चिताए जल रही थी | जिनमे वे बहादुर स्त्रिया हंस – हंस कर प्रवेश करती जा रही थी | मानो अंगारे न होकर वे गुलाब के फूलो से सजी सेज हो , साड़ी दिल्ली विधवा होकर विलाप कर रही थी | दिगवंत सम्राट के मित्र कवि चंदबरबाई के पुत्र जल्हण ने ” पृथ्वीराजरासो ” में इन सतियो का बड़ा ही करुण और मर्मस्पर्शी वर्णन किया है
सहस पंच सह गवनि अवर सामंत सूर मर ,
चलिय मिलय मन संधि सकल जिन नाह साह कर .
भूषन सबन बिराजि सजी सिंगार सैल तन
मन अनंत उद्दरिय करिय हरिहरि जुदान जिय .
अर्थात शुर और सामंतो की पांच हजार रानिया एक साथ मिलकर चन्दन की चिताओं की ओर जा रही है . उनके वीर पतियो ने युद्ध भूमि में प्राण त्याग कर स्वर्ग प्राप्त किया है . वे अपने प्यारे प्रियतम से मिलने के लिए स्वर्ग की यात्रा करने जा रही है | उन्होंने अपने शरीर पर उत्तम वस्त्र और गहने धारण कर रखे है और अपने शरीर को सोलह श्रृंगार करके सजाया है , उनके मन में स्वर्गवासी पिर्य्तम से मिलने का उत्साह है , उनके मुख में हरि का नाम और हाथो में दान देने की वस्तुए है
चंदन मंदिर दार रचिय वर दिघ्घ लघ्घु वर ,
विवाह कुसुम वर रोही सोहि पर वसन सुरह वर ,
दिय जंबूनद दान रथ्थ, हय , गज , मुक्तामनी,
अर्थात सती होने को तैयार उन सुन्दरियों ने चन्दन की छोटी बड़ी बहुत सी चिताए बना ली है , उन्होंने विवाह के समय कुसुमी रंग के जो वस्त्र पहने थे , वे ही सुहाग के वस्त्र और भाँती – भाँती के गहने उन्होंने आज धारण कर रखे है . उनके शरीर पर ये वस्त्र बहुत शोभा दे रहे है , वे चिता पर चढ़ने से पहले रथ , हाथी घोड़े , सोने और मणियो का दान कर रही है |
इन देवियों के सती होने के साथ ही दिल्ली पर श्मशान जैसी उदासी और गहरी वेदना छा गई | तरावली के युद्ध क्षेत्र में एक लाख से भी अधिक सैनिको ने प्राण त्याग किया था | सारे उत्तर भारत में निराशा और पराजय की गहरी भावना फ़ैल गयी थी |
तुर्क चारो ओर मारकाट व लूट में व्यस्त थे , कुतुबुद्धीन ऐबक ने गुहराम के दुर्ग में टिक कर अपनी सेना को संगठित किया और हिन्दुस्तान के जीते हुए प्रदेशो में शासन प्रबंध करने की तैयारी में जुट गया , लेकिन उसके प्रयत्नों को जाटो ने मिटटी में मिला दिया | वर्षा ऋतू का लाभ उठाकर जाटो ने अपने नायक जतवान के नेतृत्व में ऐबक को चुनौती दी | जाटो को गुजरात के राजा भीमदेव का संर्थन प्राप्त था जाटो ने हांसी पर हमला कर दिया जिससे वहा के सूबेदार नुसरतद्दीन को किले से प्राण बचाकर भागना पडा |
ऐबक को जब यह खबर मिली तो वह हांसी की सहायता के लिए दौड़ा और नगर को जाटो से मुक्त कराया , यहाँ जाटो और तुर्कों में जमकर युद्ध हुआ जिसमे जतवान की मृत्यु हुई | उसके मरते ही जाटो का प्रतिरोध समाप्त हो गया , हांसी में जाटो को दबा कर ऐबक ने मेरठ पर आक्रमण किया और वहा हिन्दू किलेदारो को मार कर अपना अधिकार जमा लिया |
तरावली के युद्ध को कई महीने बीत चुके थे लेकिन अभी तक कुतुबुद्दीन ऐबक का साहस न हुआ कि वह राय पिथौरा पृथ्वीराज चौहान की राजधानी दिल्ली में प्रवेश कर सके | हांसी और मेरठ में जाटो का संहार करके उसने अंत में जनवरी 1193 ई . में दिल्ली पर आक्रमण किया , उसने शहर के चारो ओर घेरा डाल दिया , दिगवंत सम्राट की एक बहादुर रानी अच्छन कुमारी नगर की रक्षा में जुट गयी उसने मुठ्ठी भर सेना के साथ आक्रमणकारियों का मुकाबला किया लेकिन वह छोटी सी हिन्दू सेना तुर्कों के सामने टिक नही पाई | अच्छन कुमारी लड़ते — लड़ते युद्धभूमि में ही प्राण त्याग दिया |
कुतुबुद्धीन ऐबक ने दिल्ली को अपने छावनी बनाया और वही बैठ कर विजित प्रदेशो का शासन प्रबंध देखने लगा तथा जीतने से बचे हुए शेष प्रदेशो को अपने अधीन करने की योजना बनाने लगा | दिल्ली पर जनवरी
1193 ई मुसलमानों के ऐसे पैर जमे कि आगे कई शताब्दियों तक वह हिनुस्तान में मुस्लिम शासन की राजधानी बनी रही |
दिल्ली भारत साम्राज्य की कुंजी ऐबक के हाथ लग चुकी थी , दिल्ली की इस पराजय ने हिन्दुस्तान का इतिहास ही बदल दिया
|
सुनील दत्ता ……………………………… आभार स . विश्वनाथ