Wednesday, October 9, 2024
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राधेश्याम गुप्ता -एक प्रेरणादायी व्यक्तित्व

आज हम आपको एक ऐसे व्यक्ति के बारे में बताना चाहता हूँ जिनसे मेरी मुलाकात आज से दो- तीन साल पहले ही हुई थी। पहली मुलाकात में मैं उनसे प्रभावित नहीं था लेकिन मेरे पुत्र उस समय किराये के मकान में रहते थे और 10 हजार रुपये के करीब किराया देने में ही निकल जाता था हम लोग प्रायः मकान खरीदने हेतु निकल जाया करते थे कालोनी के फ्लैट पसंद आते थे लेकिन तय नहीं हो पा रहा था फिर ये हुआ कि जमीन लेकर मकान बनवाया जाय तो कम से कम जमीन तो अपनी होगी। उसी समय राधेश्याम गुप्ता जी से मुलाकात हुई उनके बनाए 4-6 मकान देखे, लेकिन सभी जगह कुछ न कुछ कमी निकल आती थी उसी दरम्यान वो एक मकान तिवारी गंज स्थित उत्तर धौना में वह दो मकान बनवा रहे थे उसे पसंद किया गया और उन्हें टोकन मनी और फिर हर दूसरे -तीसरे दिन उनसे मुलाकात होने लगी। तब मैने पहली बार उनके परिश्रम और कार्य के प्रति लगन को देखकर और उनसे बात चीत करते रहने के बीच मैने उनका बहुआयामी व्यक्तित्व को देखा और धीरे -धीरे उनसे काफी प्रभावित रहने लगा।वो जब भी मुझे देखते तो हंसते हुए मुझे ” नमस्कार श्रीवास्तव जी” कहना नहीं भूलते उनमें जरा सा भी घमंड नजर नहीं आया। फिर हम लोग उनके बनाए मकान में “गृह प्रवेश के बाद शिफ्ट कर गये। फिर वह भी अन्य मकान घर के पास ही बनवाने लगे अक्सर मुलाकात होती काफी आत्मीयता होने के पश्चात एक दिन वह भी कुछ खाली थे मैने उन्हें कहा आइये गुप्ता जी चाय पीते हैं। वो भी आकर बैठे तो मैने उनके बारे में थोड़ी जानकारी चाही तो उन्होने बताया कि सर मेरा जन्म कुशीनगर के ग्राम -बौलिया में 1जनवरी1966 में हुआ था। मेरे पिता खदेरू गुप्ता गांव में काफी सम्मानित थे खेती-बाड़ी भी अच्छी खासी थी माता जी धर्म भीरू और घरेलू महिला थीं जिनका नाम जिलेबा देवी था। सब कुछ अच्छा चल रहा था मैं स्कूल में पढ रहा था। हम चार भाईयों और एक बहन में सबसे छोटा था। तभी मेरे पिता के चचेरे भाईयों से खेती-बाड़ी को लेकर विवाद चलने लगा और इससे दुखी पिता जी बीमार रहने लगे और अंत में 1975 में बीमारी से जुझते हुए मौक्ष को प्राप्त हुए उस समय मेरी उम्र मात्र 9 वर्ष की थी तब बड़े भाई रामवृक्ष गुप्ता ने उन्हें पाल-पोस कर बड़ा किया आर्थिक स्थिति भी डगमगाने लगी थी और कक्षा 5 तक पढाई के बाद पढाई भी छूट गई। 1981-82 में मजदूरी करने लगे। गांव में कम मजदूरी मिलने के कारण गांव छोड़कर एक पादरी के यहाँ काम करने लगे और उन्हीं की सलाह पर मजदूरी का काम छोड़ कर मिस्त्री का काम करने लगे तो थोड़ा पैसा भी ज्यादा मिलने लगा। 1981 में शादी हुई 1986 में गौना हुआ तो घर का खर्च भी बढा और दो जुड़वा बेटी सहित कुल 3 बेटियाँ होने से इनका मन कहीं नहीं जमा और अंत में ये लखन ऊ आ गए। यहाँ भी शुरू में चार साल मिस्त्री का काम किया और फिर लेबर रेट ठेकेदारी का काम शुरू कर दिया। कम पढे लिखे होने के बावजूद दिमाग से बेहद तेज थे और मेहनती तो थे ही। कुछ पैसा पास आया तो तो 1994 में एक छोटी सी जमीन खरीद कर मकान बनवा लिया और पूरे परिवार के साथ रहने लगे। बड़ी दोनों बेटियों की शादी यहीं लखन ऊ में कर दिए और एक बिटिया बी. टेक कर के एच. सी. एल में सर्विस कर रही है कनक चतुर्वेदी नामक महिला ने 1993 में इनकी लगन और मेहनतऔर मृदुभाषी तथा कुशाग्रबुद्धि से प्रभावित होकर उन्हें पैसों से मदद कर अपने दोस्तों और सहेलीयों से परिचय कराते हुए तीन- चार मकान ठेके पर बनाने को दिलवाये और उन सभी ने इनके काम से खुश होकर अन्य लोगों के काम दिलवाये। इस तरह इनका जमीन खरीद कर और बनवा कर बेचने का काम भी चल निकला। ये आज भी उन सबको याद करते हैं जिन्होंने बुरे समय में इनकी मदद की थी फिर चाहे वो हैबिट पालिटेक्निक के तत्कालीन प्रिंसिपल पी. सी. बनर्जी हों या हैबिट पालिटेक्निक के लेक्चरर वी. के. अवस्थी रहे हों जिन्होंने 10-12 साल काम दिलायाऔर पी. के. दूबे इंजीनियर ने भी इनसे प्रभावित हो काफी काम दिलाया। आज पैसा आ जाने पर अब वह जमीन खरीद कर फ्लैट बनवा कर बेचने का कार्य करने लगे हैं। वह प्रतिदिन सुबह 5 बजे उठ जाते हैं और दैनिक क्रिया से निवृत्त हो 7-8 किलोमीटर पैदल चलते हैं और फिर नहा धोकर साईट पर पहुंच जाते हैं वह शाकाहारी हैं और दिखावा पसंद नहीं करते हैं अन्य प्रापर्टी डीलरों की भांति अपने साथ हथियारों से लैश लोगों को भी साथ रखकर दिखावा नहीं करते हैं। एक कक्षा 5 पास इंसान मजदूरी से मिस्त्री और फिर ठेकेदारी और अब फ्लैट बनाकर बेचने का काम, और दाम सभी कुछ उनके पास है ।कार्य की अधिकता और भागदौड़ से बचने के लिए एक कार खरीदी लेकिन ड्राइवर नहीं रखा स्वयं ही चलाते हैं। ऐसे प्रेरणादाई व्यक्ति हमारे आसपास समाज में हैं जिनके जीवन से हमें वाक ई में काफी कुछ जानने को मिलता है। सम्पादकीय -News 51in

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