Saturday, July 27, 2024
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माटी के लाल आजमगढियों की तलाश में -कामरेड जय बहादुर सिंह

कामरेड

माटी के लाल आजमगढियों की तलाश में..

कामरेड जय बहादुर सिंह :- जिसने जमीदार पिता की जमीदारी मजदूरों में बांट दिया और क्रांतिकारियों के धन के लिए ‘पिपरीडीह ट्रेन डकैती’ भी किया..

० लगभग 10 बरस तक कठोर कारावास की सजा काटी इस आजादी के दीवाने ने
० घोषी से आजीवन सांसद रहे जय बहादुर ने पूर्वांचल को वामपंथी बना दिया.

@ अरविंद सिंह #जयबहादुर

“एक दिन अचानक से ज़मीदार पिता नरसिंह नारायण सिंह के पास उनका सबसे छोटा पुत्र आया और बोला- पिताजी! आप की खाता-बही कहाँ है.? जब पिता ने उसे लाकर अपने नौजवान बेटे के हाथों में दिया तो उन्हें लगा- बेटा बड़ा हो गया है और लगता है उसे अपनी जिम्मेदारी का एहसास भी हो गया, इसलिए अब वह बाप के काम में हाथ बटाएगा. लेकिन बहुत जल्द इस जमीदार पिता को निराशा हुई- क्यों कि उसका बेटा उसके हाथों से खाता-बही को लेकर उसके आंखों के सामने ही आग के हवाले कर दिया. और इसी के साथ इस ज़मीदार का उसके रियाया से हिसाब-किताब भी इसी खाता बही के साथ जलकर खाक हो गया. यही नहीं नौजवान बेटे ने उन सभी भूमिहीन मजदूरों को बुलाया, जिनकी जिंदगी के पन्ने ज़मीदार साहब के इस बही में दशकों से कैद या गुलाम थे और बोला- ‘अब आप को कोई माल गुजारी नहीं देनी होगी और नहीं कोई मांगने भी जाएगा, बल्कि जिन खेतों को आप जोते-बोते चले आएं हैं. उन्हें वैसे ही जोते-बोते रहेंगे- क्योंकि ये खेत और खलिहान अब आप के हुए, इसका मालिकाना हक भी अब आप को मिलता है..! ”
ये कहानी और उसका संवाद किसी फिल्म या उपन्यास का संवाद नहीं है बल्कि एक हकीकत है और इसकी जीवंत दास्ताँ लोगों में मानस में अब तक रची बसी है..जिसे अविभाजित आजमगढ़ का सूरजपुर गांव ने अपनी आंखों से देखा है और भोगा है. अपने ज़मीदार के वारिसों में से इस नये उद्धारक को देखकर सूरजपुर के खेतिहर मजदूर और उनके पूर्वज इस नौजवान को अपना मुक्तिदाता और भगवान मानने लगे.
जी हाँ यहाँ बात हो रही है कामरेड जय बहादुर सिंह और उनकी दिलेर व बहादुर दास्तानों की. सूरजपुर गाँव में जमीदार परिवार में बरस 1909 , 20 जनवरी को मां बाप की तीसरी संतान के रूप में पैदा हुए जय बहादुर बचपन में ही कुशाग्र और मेधावी थे. बुनियादी तालीम गांव की पाठशाला से लेने के बाद उच्च शिक्षा के लिए बीएचयू की ओर रूख किया. जहाँ मदन मोहन मालवीय के साथ मिलकर छुआछूत, असमानता और गैर बराबरी के विरूद्ध संघर्ष शुरू कर दिया.
यह कोई तीस का दशक था, देश में स्वतंत्रता संग्राम की लहर चल रही थी. ब्रितानिया हुकूमत की ज्यादतियों ने भारतीयों की संयम तोड़ दिया था.
नौजवानों के आदर्श शहीदेआजम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को ब्रितानिया हुकूमत द्वारा 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गयी. इसके पूर्व 27 फरवरी 1931 को चन्द्रशेखर आजाद को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में धोखे से मौत घाट उतार दिया गया था.
इन परिस्थितियों से उपजी अन्तर्वेदना ने युवक जय बहादुर को अंदर तक हिला दिया और राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर बनारस से तब के उत्तर भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े केन्द्र रहे इलाहाबाद की रूख कर दिया. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला लेने के बाद क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न हो गयें और ब्रिटिश साम्राज्य के पांव हिन्दुस्तान से उखाड़ फेंकने की शपथ लिए. यही वह दौर था जब 1936 में इस क्रांतिकारी नौजवान ने अपने खून से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करके विधिवत क्रांतिकारी संगठन की सदस्यता ली. इसी दौरान उनकी मुलाकात कामरेड झारखण्डे राय से हुई जो उस समय ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ के बड़े नेता थे और उनके पडोसी गांव अमिला के रहने वाले थे.
क्रांतिकारी संगठन चलाने और उसकी गतिविधियों को फैलाने के लिए धन की भी आवश्यकता पड़ती थी. क्रांतिकारियों ने धन एकत्रित करने के लिए सरकारी खजाने को लूटने की भी योजनाओं को अंजाम देते थे. लखनऊ का काकोरी कांड इसी तरह की एक घटना थी.
9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड को रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी, रौशन सिंह और अशफाक उल्लाह खां ने अंजाम दिया था. जिन्हें दस महीने मुकदमे के बाद फांसी की सजा हुई.
इन घटनाओं ने जय बहादुर सिंह जैसे जांबाज सिपाही को अन्दर तक हिला कर रख दिया. और एक दिन काकोरी कांड की तर्ज पर इनके साथी झारखंडे राय, मुक्तिनाथ उपाध्याय, कृष्णदेव राय और जामिल अली के साथ मिलकर जय बहादुर सिंह ने पिपरीडीह और दुल्लहपुर रेलवे स्टेशन के बीच रेल से जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया. जो बाद में पिपरीडीह ट्रेन डकैती कांड के नाम से जाना गया. इस कांड के बाद लगभग सभी साथी गिरफ्तार हो गयें लेकिन जय बहादुर को ब्रिटिश पुलिस पकड़ नहीं पायी. बताते हैं कि गुमनामी के इन दिनों में जय बहादुर अनेक स्थानों पर शरण लिया. कुछ दिन मुम्बई ( तब बंबई) के होटल ताज में भी छिप रहें. लेकिन जब पुलिस उन्हें खोज नहीं पायी तो उनके गांव सूरजपुर जाकर उनका घर फूंक दिया.
इसी समय क्रांतिकारियों ने विन्ध्याचल क्षेत्र में जंगल के बीच से गुजरने वाली रेल के सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई. जय बहादुर बनारस से इलाहाबाद रेलगाड़ी में बैठकर आ रहे थे कि किसी मुखबिर ने पुलिस को सूचना दे दी. जिन्हें इलाहाबाद के रामबाग स्टेशन से गिरफ्तार कर गाजीपुर लाया गया. जहाँ जिला न्यायालय में मुकदमा चलाकर उन्हें 9 बरस 8 महिने को कठोर कारावास की सजा हुई. बावजूद अंग्रेजी हुकूमत को लगा कि गाजीपुर जेल में रहकर यह कोई और खतरनाक मंसूबे को अंजाम दे सकता है. इसलिए उन्हें यहाँ से स्थानांतरित करके फतेहगढ़ जेल भेज दिया. जहाँ सुप्रसिद्ध वामपंथी नेता और विचारक एसजी सरदेसाई भी बंद थे.
जेल में जय बहादुर की सरदेसाई से मुलाक़ात ने एक नई परिघटना को जन्म दिया. वे मार्क्सवादी साहित्य और उन विचारों से बेहद प्रभावित होने लगें. सरदेसाई उनके के लिए एक पूरी पाठशाला बन गयें और सजा काट कर बरस 1946 अप्रैल में जब बाहर निकले तो सीधे कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर पहुंचकर पूर्णकालिक कम्युनिस्ट बन गयें. और शोषितों, गरीबों, और बेजुबां मुफलिसों की आवाज बन कर पूर्वी उत्तर प्रदेश की जमीन को वामपंथी बनाने लगें.
मजदूरों और किसानों की आवाज बने जय बहादुर जमीदारों के आंखों में खटकने लगें जबकि स्वयं एक जमीदार परिवार से थे. आजादी के बाद जब उत्तर प्रदेश में पहली सरकार पं० गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व में बनी तो जय बहादुर के क्रांतिकारी विचार सरकार को सुहाते नहीं थे और आजादी के बाद भी भारत सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए. जेल और जय बहादुर के बीच चोली दामन का जैसे साथ बन गया था. चाहे हुकूमत ब्रिटिश की हो या भारतीय की. जनता के सवालों को लेकर सड़क गरम कर देने वाले जय बहादुर अपने समय में जननायक बन चुके थे. बरस 1958 में बलिया- आजमगढ़ स्थानीय निकाय चुनाव में एमएलसी चुने गए. और जब बरस 1962 का आम चुनाव हुआ तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट से पहली बार घोसी निर्वाचन क्षेत्र से सांसद निर्वाचित होकर भारत की सबसे बड़ी पंचायत में पहुंचे. घोसी की जनता ने उन्हें अपना महबूब लीडर बना लिया और उन्हें आजीवन सांसद चुनती रही, जब तक जीवित रहे तब तक सांसद रहे. बरस 1967
में उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाने के सवाल पर उन्होंने लखनऊ विधानसभा के सामने भूख हड़ताल कर दिया जबकि उनकी तबियत ठीक नहीं थी और चिकित्सकों ने उन्हें आंदोलन करने को मना किया था. लेकिन जन नेता जनता के सवालों को लेकर शांत कहा रहने वाला था. इस भूख हड़ताल के कारण उनकी तबियत बिगड़ती गयी और फिर अचानक ज्यादा गंभीर स्थिति में उन्हें दिल्ली ले जाया गया जहाँ इलाज से पहले यह आजादी का दीवाना अदम्य साहस के साथ भारत माता की गोद में 9 अगस्त 1967 में चिरनिद्रा में सो गया.. अलविदा कामरेड.. लाल सलाम!! लेखक- सुुुुनील कुमार दत्ता स्वतंत्र पत्रकार दस्तावेजी प्रेस छायाकार

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