Saturday, July 27, 2024
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भगत सिंह की फांसी का सच झूठ, शहीद आजम भगत सिंह को फाँसी कब और क्यों दी गई

भगत सिंह की फाँसी सच और झूठ

शहीदे आजम भगतसिंह को फाँसी कब दी गई और क्यों दी गई ?

उनकी विचारधारा क्या थी ?

ऐसी ढेर सारी बातें उन लोगों को नहीं मालूम जिन्हें यह पता है कि महात्मा गांधी चाहते तो भगतसिंह की फाँसी रुक सकती थी ၊

लेकिन उन्होंने नहीं चाहा।

यह एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल है कि किन तत्वों ने इन गलत बातों को प्रचारित और प्रसारित किया?

अंग्रेजी हुक्मरानों को भी अपने इस षड्यंत्र के सफलता की इतनी उम्मीद नहीं थी,

सत्तर सालों बाद भी उनके द्वारा रोपा गया विष वेल फल फूल रहा है।

सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी किताब “भारत का स्वाधीनता संघर्ष” में लिखा है, “महात्मा जी ने भगत सिंह को फाँसी से बचाने की पूरी कोशिश की।

अंग्रेजों को गुप्तचर एजेंसियों से पता चला कि यदि भगतसिंह को फांसी दे दी जाये तो उसके फलस्वरूप हिंसक आंदोलन उभरेगा, अहिंसक गांधी खुलकर हिंसक आंदोलन का पक्ष नहीं ले पाएंगे तो युवाओं में आक्रोश उभरेगा, वे कांग्रेस और गांधी से अलग हो जायेंगे।

इसका असर भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन को समाप्त कर देगा।

पर शुक्र है उस समय भारतीय जनता ने अंग्रेजी साम्राज्यवादी चाल को विफल कर दिया ၊

कुछ नवयुवकों ने आक्रोश में आकर काले झण्डों के साथ प्रदर्शन किया पर उसके बाद ही हिंसक आंदोलन का अंत हो गया।

यह सच है कि अपने जीवन में पहली बार किसी व्यक्ति भगतसिंह की सजा कम करने के लिए कहने वाले गांधी जी की बात यदि अंग्रेजी हुकूमत द्वारा मान ली गई होती तो इसका सबसे अधिक लाभ गांधी जी का होता, यह उनकी अहिंसा की विजय होती।”

अंग्रेजों की यह साजिश थी कि ऐसी रणनीति बनाई जाये कि अवाम को ऐसा लगे कि महात्मा की अपील पर फाँसी रुक जायेगी,

महात्मा ने स्वयं वाइसराय से मिलकर लिखित रूप में अपील की कि भगतसिंह की फाँसी रोक दी जाये।

लेकिन अचानक समय से पहले ही करांची में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन प्रारम्भ होने से पहले ही फांसी देने का एक मात्र मकसद था गांधी के प्रति नवयुवकों में विद्रोह पैदा करना।

भगतसिंह ने स्वयं फांसी के पूर्व अपने वकील से मिलने पर कहा था ‘मेरा बहुत बहुत आभार पँ नेहरू और सुभाष बोस को कहियेगा,

जिन्होंने हमारी फाँसी रुकवाने के लिए इतने प्रयत्न किये’,

इतना ही नहीं भगतसिंह के पिता सरदार किशन सिंह जी जिन्होंने 23 मार्च को अपना पुत्र खोया था 26 मार्च को कांग्रेस अधिवेशन में लोगों से अपील कर रहे थे ‘आप सबों से आप लोगों को अपने जनरल महात्माजी का और सभी कांग्रेस नेताओं का साथ जरूर देनी चाहिए।

सिर्फ तभी आप देश की आजादी प्राप्त करेंगे।’

इस पिता के उदगार के बाद पूरा पंडाल सिसकियों में डूब गया था।

पँ नेहरू, पटेल,मालवीय जी के आँखों से आंसू गिर रहे थे।

वैसे एक सवाल हम भी पूछ लेते हैं,

जब भगत सिंह को फाँसी हो रही थी तो हेडगेवार, गोलवलकर, सावरकर, मुंजे उसे रुकवाने के लिए क्या कर रहे थे?

जवाब ज़ाहिर तौर पर यही है कि कुछ नहीं।

तो उस समय शाखा खेलकर पूड़ी सब्ज़ी खाकर सो रहे संघी आज किस मुंह सर्टिफिकेट बांट रहे हैं?

  • राष्ट्रीय सत्य शोधक समाज की वाल से

वास्तव में हम अधिकतर ऐसे वाद-विवादों को जन्म देते हैं जिनकी हमें जानकारी नहीं होती। ना हमने गांधी को पढ़ा होता, न भगत सिंह को फिर भी वाद-विवाद किया करते हैं।
गांधी ने 23 मार्च, 1931 को वायसराय को एक निजी पत्र में इस प्रकार लिखा था-

” 1दरियागंज, दिल्ली
23 मार्च, 1931
प्रिय मित्र,
आपको यह पत्र लिखना आपके प्रति क्रूरता करने-जैसा लगता है; पर शांति के हित में अंतिम अपील करना आवश्यक है। यद्यपि ‍‌आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगतसिंह और अन्य दो लोगों की मौत की सज़ा में कोई रियायत किए जाने की आशा नहीं है, फिर भी आपने मेरे शनिवार के निवेदन पर विचार करने को कहा था। डा सप्रू मुझसे कल मिले और उन्होंने मुझे बताया कि आप इस मामले से चिंतित हैं और आप कोई रास्ता निकालने का विचार कर रहे हैं। यदि इसपर पुन: विचार करने की गुंजाइश हो, तो मैं आपका ध्यान निम्न बातों की ओर दिलाना चाहता हूँ।
जनमत, वह सही हो या गलत, सज़ा में रियासत चाहता है। जब कोई सिद्धांत दाँव पर न हो, तो लोकमत का मान करना हमारा कर्तव्य हो जाता है।
प्रस्तुत मामले में स्थिति ऐसी होती है। यदि सज़ा हल्की हो जाती है तो बहुत संभव है कि आंतरिक शांति की स्थापना में सहायता मिले। यदि मौत की सज़ा दी गई तो निःसंदेह शांति खतरे में पड़ जाएगी।

चूँकि आप शांति स्थापना के लिए मेरे प्रभाव को, जैसे भी वह है, उपयोगी समझते प्रतीत होते हैं। इसलिए अकारण ही मेरी स्थिति को भविष्य के लिए और ज्यादा कठिन न बनाइए। यूँ ही वह कुछ सरल नहीं है।

मौत की सज़ा पर अमल हो जाने के बाद वह कदम वापस नहीं लिया जा सकता। यदि आप सोचते हैं कि फ़ैसले में थोड़ी भी गुंजाइश है, तो मैं आपसे यह प्रार्थना करुंगा कि इस सज़ा को, जिसे फिर वापस लिया जा सकता, आगे और विचार करने के लिए स्थगित कर दें।
यदि मेरी उपस्थिति आवश्यक हो तो मैं आ सकता हूँ। यद्यपि मैं बोल नहीं सकूंगा, [महात्मा गांधी उस दिन मौन पर थे] पर मैं सुन सकता हूँ और जो-कुछ कहना चाहता हूँ, वह लिखकर बता सकूँगा।

दया कभी निष्फल नहीं जाती।

मैं हूँ,

आपका विश्वस्त मित्र
[अँग्रेज़ी (सी. डब्ल्यू 9343) की नकल]

यह पत्र ‘The Collected Works of Mahatma Gandhi’ के भाग 45 में संकलित है और इसे पृष्ठ 333-334 पर पढ़ा जा सकता है।

मैं ‘यंग इंडिया’ को एक चेतावनी दे दूं। इन चीजोंको मांगना आसान है, पाना नहीं। आप उन लोगों की रिहाई की मांग करते हैं जिन्हें हिंसाके आरोप में फांसी की सजा दी गई है। यह कोई गलत बात नहीं है। मेरा अहिंसा-धर्म चोर-डाकुओं और यहांतक कि हत्यारों को भी सजा देने के पक्षमें नहीं है। भगतसिंह जैसे बहादुर आदमी को फांसीपर लटकानेकी बात तो दूर रहीं, मेरी अन्तरात्मा तो किसीको भी फांसी के तख्ते पर लटकाने की गवाही नहीं देती है। परन्तु मैं आपको बता दूं कि आप भी जबतक समझौतेकी शर्तोंका पालन नहीं करते, उन्हें बचा नहीं सकते। यह काम आप हिंसा द्वारा नहीं कर सकते। यदि आपको हिंसापर ही विश्वास है, तो मैं आपको निश्चयपूर्वक बता सकता हूं कि आप केवल भगतसिंहको ही नहीं छुड़ा सकेंगे बल्कि आपको भगतसिंह-जैसे और हजारों लोगोंका बलिदान करना पड़ेगा।

गांधीजी
7 मार्च 1931 के दिन दिल्ली में हुई एक सार्वजनिक सभा में

मैं अपना बचाव करनेके के लिए नहीं बैठा था, इसलिए मैंने आपको विस्तार से यह नहीं बताया कि भगतसिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए मैंने क्या-क्या किया। मैं वाइसराय को जिस तरह समझा सकता था, उस तरह से मैंने समझाया। समझानेकी जितनी शक्ति मुझमें थी, सब मैंने उनपर आजमा कर देखी। भगतसिंहकी परिवारवालों के साथ निश्चित आखिरी मुलाकात के दिन, अर्थात 23 मार्च को सबेरे मैंने वाइसराय को एक खानगी खत लिखा। उसमें मैंने अपनी सारी आत्मा ऊंडेल दी थी, पर सब बेकार हुआ। आप कहेंगे मुझे एक बात और करनी चाहिए थी:- सजा को घटाने के लिए समझौतेमें एक शर्त रखनी चाहिए थी। ऐसा हो नहीं सकता था। और समझौता वापस ले लेनेकी धमकी देना तो विश्वासघात कहा जाता। कार्य-समिति इस बातमें मेरे साथ थी कि सजा घटानेकी शर्त समझौते की शर्त नहीं हो सकती। इसलिए मैं इसकी चर्चा तो सुलह की बातों से अलग ही कर सकता था। मैंने उदारता की आशा की थी। मेरी वह आशा सफल होनेवाली न थी, पर इस कारण समझौता तो कभी नहीं तोड़ा जा सकता।(उपरोक्त, पृ.371-373)

वीर भगत सिंह ने अपनी कुर्बानी इसलिये दी थी कि उनके अनुगामी उसके पथ का अनुसरण करें, परन्तु कुछ लोग केवल गाँधी को कोस कर ही अपने झूठे भगत प्रेमी होने का प्रमाण देना चाहते है ।

हिमांशु कुमार के वाल से

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