Friday, February 7, 2025
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बनारसी संस्कृति, बनारसी मस्ती और वहाँ के गुरूओं के रंग

बनारसी अडी— बनारस की संस्कृति जितनी पुरानी है उतनी ही यहाँ की कलाबाजिया भी अजब से गजब लोगो का है यह शहर मैं यह दावे से कह सकता हूँ पुरे विश्व में ऐसा मद – मस्त शहर कोई नही |

कलाकार गुरु

गुरुओं का दुसरा वर्ग है जिन्हें कलाकार कहा जाता है | वे अपने चेलो को
हुनर सिखाते है | इन्हें गुरु ( गुरु नही ) या उस्ताद कहा जाता है | ये
गुरु अपने चेलो को चित्रकला सिखाये या चौर्यक्ला दस्तकारी सिखाये या
हाथ की सफाई | सभी ‘ कला ‘ की श्रेणी में आ जाते है | चूँकि ऐसे गुरु में
सभी वर्ग के लोग उस्ताद या गुरु बन जाते है , इसलिए इन्हें राष्ट्रीय गुरु
कहा जाता है |
तीसरे किस्म के गुरु जरा रजिस्टर्ड किस्म के होते है , जिनका आम पेशा है
— कान में मन्त्र फूंककर चेला — चेलियो की फ़ौज तैयार करना |ये गुरु
पूर्णिमा के दिन पाद — पूजा करवाकर सालभर का राशन एकत्रित करते है | कभी सत्संग के नाम पर तो कभी वर्षा — वास के नाम पर चेला — चेलियो के यहा अड्डा जमाकर उन्हें कृतार्थ करते है | इनमे कुछ गुरु ऐसे भी है जो धर्मशाला, पाठशाला और औषधालय के निर्माण के नाम पर टूर करते रहते है | लेकिन सच पूछिये तो बनारसी गुरु जरा अलग किस्म के होते है | वे इन सब हथकंडो से दूर रहते है | उन्हें अपना सम्मान सबसे अधिक प्रिय होता है | आज भी बनारस में ऐसे गुरुओं की संख्या कम नही है जो दुसरो के यहा भोजन नही करते है , मृतक भोज में सम्मलित नही होते और साधारण दान नही लेते |
प्राचीन काल में गुरु और सरदार दोनों ही बनारस की नाक समझे जाते थे |
आनेवाले हर बाहरी संकटों में मुकाबला करना ही इनके जीवन का मुख्य ध्येय था | नेतृत्त्व का सारा बहार गुरुओं पर था | उनके एक इशारे पर जा पर खेलकर जानेवाले अनेक सरदार होते थे | खाली समय में गुरु लोग छात्रो को पढ़ाने के बाद अखाड़ो में पट्ठो को तैयार करते थे | उन्हें युद्ध — कौशल सिखाया करते थे | लाठी , गडासा , बल्लम , तलवार , आदि अस्त्रों का चलाना तथा युद्ध में व्युहू रचना सिखाया करते थे | देश — समाज में अमन — चैन कैसे रखा जाय इसकी नीति बताया करते थे | जो गुरु जितना प्रभावशाली होता था उसके पीछे उतने ही पट्ठे ‘ सेंगरी ‘ लिए चला करते थे | इन्हें सामने से आते देख बड़े — बडो की धोती ढीली हो जाती थी | लोगो की निगाहें गुरु के कदमो को चूमा करती थी | अपनी शक्ति पर घमंडकरनेवाले बड़े – बड़े ‘ बारहा ‘ भी गुरु के आगे भीगी बिल्ली बन जाते थे |
अर्थ — लोभ के कारण उन्होंने न तो कभी अन्याय — अत्याचार को प्रोत्साहन दिया न किसी गरीब — बेकस को सताया | किसी में इतनी हिम्मत नही थी की वह घर या बाहर किसी प्रकार का अनाचार करे | गुरु के एक इशारे पर किसी के धड से सर अलग हो जाना मामूली बात थी | आज वह युग नही रहा | न्याय करने और दंड देने का अधिकार सरकार के हाथो में है | फिर भी उस परम्परा को जीवित रखने के लिए नागपंचमी के दिन अखाड़ो में दंगल और होली के दिन मिघात पर धर्म युद्ध का नाटक खेला जाता है | निर्जला एकादशी के दिन उस पार कबड्डी में कुछ लोग हाथ – पैर तोड्वा आते है |बनारस में गुरु कहलाने का एकमात्र अधिकार ब्राह्मणों को है , चाहे वह किसी,वर्ग का ब्राह्मण क्यों न हो | जिस प्रकार दफ्तरों में बड़े बाबू अपने अपने श्कारियो से इस बात की आशा करते है की उन्हें देखते ही लोग एक किनारे से ही उन्हें नमस्कार करने लगे और कुर्सी छोडकर खड़े हो जाए , ठीक उसी प्रकार बनारसी गुरु भी सभी परिचित जज्मानो से ‘ पालागी गुरु ‘ का आकाक्षी होता है | यह उनका जातीय हक है | आज भी बनारस में कई ऐसे गुरु है जिनसे गाली सुनने और तिथि तारीख जानने की गरज से कुछ लोग उन्हें नमस्कार करते है |

……..कबीर …आभार विश्वनाथ मुखर्जी चित्र – सुनील दत्ता

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