तहरीके – जिन्होंने जंगे – आजादी – ए- हिन्द को परवान चढाया
फकीर आन्दोलन —भाग – एक
बंगाल में नबावो का दौर खत्म होते ही अंग्रेजो ने मुस्लिम अफसरों को हटाकर अंग्रेज अफसरों की बहाली कर दी | मुस्लिम जमींदारों को बेदखल करके नबाव की सेना को खत्म कर दिया गया | नवाब के जमाने से चला आ रहा देहात पुलिस मोहकमा खत्म कर दिया गया | इसके अलावा आलिमो और मदरसों को दी गयी जमीनों पर भी कब्ज़ा कर लिया गया | इन वजहों से एक तरफ जहाँ बदउनवानी पैदा हुई , वही दूसरी तरफ बड़े पैमाने पर बेरोजगारी भी बढ़ गयी | नतीजन मिडिल और लोवर तबके के मुस्लिम , जो की दस्तकार थे , और जो कपडे की बुनाई करके अपना जीवन चलाते थे , वे कपडे का कारोबार बंद हो जाने से भुखमरी का शिकार होने लगे | इसके अलावा हिन्दू – महाजनों और नील बागानों के अंग्रेज मालिको के जुल्मो से मजदुर तबका भी परेशान हो गया | ऐसे वक्त में मुस्लिम फंकीरो ने आन्दोलन शुरू कर दिया | इसके नेता मजनूशाह थे , जिनकी कयादत में सन 1776-77 में बंगाल के सुदूर इलाको और नेपाल की तराइयो के इलाको में अंग्रेजो के खिलाफ आन्दोलन शुरू हुआ | इन लोगो को जमींदारों और रैय्यातो से चंदा मिलता था , जिससे ये हथियार और गोला बारूद खरीदा करते थे | बंगाल के बाकुड़ा , मदारगंज और महास्थान ( जहाँ मजनूशाह ने अपना किला बनाया था ) मजबूती से आन्दोलन की शुरुआत की थी | इनके आन्दोलन का तरीका बड़ा अजीब था | ये लोग रात में इकठ्ठा होते और अंग्रेजो की चौकियो और ठिकानों पर हमला करके उन्हें नुक्सान पहुचातें और गाँव में छुप जाया करते थे | अंग्रेज अधिकारी इस फकीर आन्दोलन से बहुत परेशान हो गये थे | सन 1863 में फकीरों ने ढाका में अंग्रेजो की फैक्ट्री पर हमला करके कब्जा कर लिया था | सन 1868 में बिहार के सारण जिले में इन लोगो की अंग्रेजी फ़ौज से तीन बार लड़ाई हुई जिसमे दो बार अंग्रेजी फ़ौज को पीछे हटना पडा | फकीरों ने काफी दिनों तक सारण पर अपना कब्जा बनाये रखा लेकिन तीसरी बार अंग्रेजो ने पूरी तैयारी से हमला किया | अंग्रेजी फ़ौज की तैयारी का फकीरों को अंदाजा नही था और उन्हें हार का मुंह देखना पडा | इस लड़ाई में हजारो मुस्लिम फकीर शहीद हो गये | सन 1787 में जब मजनूशाह मार दिए गये , तो फकीरों ने उनके बेटे चिराग अली शाह को अपना नेता चुना | चिराग अली ने भवानी पाठक और देवी चौधरानी के साथ मिलकर अंग्रेजो के खिलाफ आन्दोलन जारी रखा | दोनों का मकसद एक ही था | दोनों मिलकर और मजबूत हो गये | फिर उन्होंने अंग्रेजो के कारखाने पर हमला कर दिया वहां से इन लोगो ने काफी रकम , हथियार और गोला बारूद इकठ्ठा कर लिया | बाद में अंग्रेजी फ़ौज से निकाले गये पठान और राजपूतो को भी अपने साथ मिला लिया | यह लोग 1793 से 1800 तक कम्पनी की सेनाओं से लड़ते रहे और सरकारी वसूली करने वाले अंग्रेज मुलाजिमो को मारकर भगा दिया इस फकीर आन्दोलन की कार्गुजारियो पर जब अंग्रेज अफसर काबू न पा सकें तो उन्होंने नेपाल के महाराजा के साथ एक समझौता करके सीमा पर उनके घुसने पर रोक लगा दिया और फिर अंग्रेजी फ़ौज ने पूरी ताकत से इस आन्दोलन को कुचल दिया | इस आन्दोलन के बारे में लार्ड मिंटो ने लिखा है कि इन फकीरों के सरदार की बहुत इज्जत थी | वे अपनी कौम के हाकिम कहे जाते थे और उनके हुकम पर फकीर कुछ भी करने की हिम्मत रखते थे | फकीर आन्दोलन से अंग्रेज सेना को काफी दिक्कतों का सामना करना पडा | इस आन्दोलन में बड़ी तादात में मुस्लिम फकीर और फ़ौज से निकाले गये दोनों कौमो के सिपाहीयो ने अपने प्राणों की आहुति दी |
प्रस्तुती — सुनील दत्ता ‘कबीर ” स्वतंत्र पत्रकार – समीक्षक
साभार ”लहू बोलता भी हैं ” लेखक सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी