नारी संवेदनाओं की नयी तेवर और उनकी आवाज
सारे शब्द
सारे रंग
मिलकर भी
प्यार की तस्वीर
नही बना पाते
हां , प्यार की तस्वीर
देखि जा सकती है
पल – पल मोहब्बत जी रही
जिन्दगी के आईने में ………………….इमरोज ने अपनी अमृता के लिए लिखा था जब मैं इसको पढता हूँ तो खुद ब खुद मेरे मानस पटल पर अमृता जी की एक ऐसी तस्वीर उभर कर सामने आती है जिसमे सारे रंग मौजूद है अगरचे कहा जाए तो वो सारे रंग मिलकर एक इन्द्रधनुष का आकार लेते हुए पूरी दुनिया के कथा साहित्य , कविता को अपने रंगों में बिखेर देते है उन सारे लोगो के लिए जो प्रेम की अपनी दुनिया में जीते है कहा साहित्य में जीते है मुझे अपनी लिखी यह पक्तिया शायद आज सार्थक लग रही है अमृता और इमरोज के लिए
प्यार एक ओर से हो ही नही सकता ,क्योंकि इसमें जो किरणे निकलती है वो दूसरी ओर के पात्र को स्वंय की ओर खिचती है |जैसे कोई भी बूंद जाया नही जाती वो उगेगी ही |कोई भी शब्द खाली नही जाता ,वैसे ही प्यार एक ओर से चलकर दूसरे के पास पहुंचता ही है |अमृता ने अपनी जिन्दगी भर प्यार को एक इबादत की तरह जीया ठीक वैसे ही इमरोज ने भी प्यार को शिद्दत के साथ जीकर एक प्रेम की इबादत को नया आयाम दिया |अमृता प्रीतम भारतीय साहित्य में एक ऐसा नाम है जिसने पंजाबी साहित्य को न केवल एक नया आधुनिक तेवर दिए बल्कि अमृता ने नारी संवेदनाओं उसकी अनुभूतियो के हर अनछुए पहलुओं को बड़े बेबाक और भाव अभिव्यक्ति द्वारा अपनी कविताओं और कहानियों के कैनवास पे उकेरा | अमृता की रचनाओं में सम्पूर्ण विश्व के लोक जीवन के साथ उन्होंने लोकगीतों में जो मिठास भरी है वह अपने में अदभुत है | 31 अगस्त 1919 को गुजरावाला में जन्मी थी अमृता , अब वह गुजरावाला विभाजन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा बन गया उस विभाजन की पीड़ा को अमृता जी ने काफी नजदीक से महसूस किया था और उस विभाजन की पीड़ा को अमृता ने कई तरह से जाहिर किया |
अमृता के लेखन में पंजाब की मिट्टी की सोधी महक की खुशबु है | उन्होंने ” हीर ” जैसे चरित्रों को खूब उभारा है | अमृता की लेखनी में जहा सहजता झलकती है वही पे अथाह प्यार का एह्साह भी दिखाई पड़ता है |अमृता एक संवेदन शील लेखिका है उनकी संवेदना उनके हर हर लफ्जो में झलकती है पर अमृता ने अपने लेखन में रोमास के अभिनव स्वरूप को अमृता ने अपने लेखन में ख़ास जगह दी है | आज यह चलन नजर नही आता है | अमृता ने अपने लेखन में औरत के जज्बात को आवाज दी | उन्होंने औरत को स्वचेतन किया उसे आत्म पहचान दी और आत्मपूर्ति की ओर अग्रसर किया आज के नारीवादियो की तरह उन्होंने यह नही कहा की मर्द की जरूरत नही है | अमृता ने बताया की जीवन में अगर प्यार नही है तो कुछ नही है | लेकिन साथ ही अमृता ने यह भी कहा की सीमाए जरूरी है | अमृता की यह कविता ”
जब मैं तेरा गीत लिखने लगी” मेरे शहर ने जब तेरे कदम छुए
सितारों की मुठियाँ भरकर
आसमान ने निछावर कर दीं
दिल के घाट पर मेला जुड़ा ,
ज्यूँ रातें रेशम की परियां
पाँत बाँध कर आई……
जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
काग़ज़ के ऊपर उभर आईं
केसर की लकीरें
सूरज ने आज मेहंदी घोली
हथेलियों पर रंग गई,
हमारी दोनों की तकदीरें अपने आप ही बहुत कुछ कह जाती है | युवा पीढ़ी के लेखको के लिए अमृता प्रेरणा की महान स्रोत है | महिला लेखन में अक्सर भावनात्मक बाते रहती है | भावनात्मक स्वरूप अमृता के लेखन में भी है लेकिन उनका एक स्पष्ट उद्देश्य भी है | देश के विभाजन पर अमृता ने भावनात्मक कविता ” अज अक्खा वारिश शाह नू ”…. कविता लिखी जो बाघा सीमा पर लगाईं गयी है | यह कविता सिर्फ कहने या पढने की बात नही है बल्कि दोनों देशो के नेताओं को , लोगो को इससे बहुत गहरी सीख मिल सकती है | उनकी यह कविता प्रासंगिक है | विभाजन कका दर्द अमृता को हर पल सालता रहा है |भारतीय ज्ञान पीठ सम्मान से सम्मानित किए जाने की खबर के बाद की एक घटना को कभी अमृता ने कुछ इस कद्र बया किया था ” अचानक एक दिन एक अजनबी मिलने आया | भारतीय ज्ञानपीठ के इस अवार्ड की खबर पाने के बाद | और उस अजनबी की आँखों में पानी था , और हाथ में थोड़ी सी मिट्टी | कहा उसने इतना ही …….” यह उस धरती की मिट्टी लाया हूँ , गुजरावाला की , जहा तुम पैदा हुई थी ….|
” मैं भरी — भरी आँखों से देखती रह गयी | मिट्टी का धर्म सचमुच कितना बड़ा होता है | कौन समझेगा की जिन मज्हबो की बुनियाद पर धरती के टुकड़े कर दिए जाते है , वे मजहब इसके सामने कितने छोटे है | 31 अगस्त 1919 को पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गुजरावाला में जन्मी अमृता ने अपनी सम्पूर्ण जिन्दगी का आखरी सफर 31 अक्तूबर 2005 में पूरी की | अमृता कल भी थी ,आज भी है, और जब तक साहित्य और कविता प्रेमी इस जहां में रहेंगे तब तक अमृता पढ़ी और याद की जायेंगी | अमरतिया के इस कविता के साथ विदा लेता हूँ आपसे ………….रात ऊँघ रही है…
किसी ने इन्सान की
छाती में सेंध लगाई है
हर चोरी से भयानक
यह सपनों की चोरी है।
चोरों के निशान —
हर देश के हर शहर की
हर सड़क पर बैठे हैं
पर कोई आँख देखती नहीं,
न चौंकती है।
सिर्फ़ एक कुत्ते की तरह
एक ज़ंजीर से बँधी
किसी वक़्त किसी की
कोई नज़्म भौंकती है
-सुनील दत्ता .स्वतंत्र पत्रकार दस्तावेजी प्रेस छायाकार