वतन हमारा रहे शादकाम और आज़ाद
हमारा क्या है अगर हम रहें, रहें न रहें !
काकोरी के शहीद अशफाकुल्लाह खां भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर क्रांतिकारी सेनानी और ‘हसरत’ उपनाम से उर्दू के अज़ीम शायर थे। उत्तर प्रदेश के कस्बे शाह्ज़हांपुर में जन्मे अशफाक ने कम उम्र में ही खुद को वतन की आज़ादी के लिए खुद को समर्पित कर दिया था। वे क्रांतिकारियों के उस जत्थे के सदस्य थे जिसमें शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त, राजेंद्र लाहिड़ी, शचीन्द्रनाथ बख्सी, ठाकुर रोशन सिंह, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल और मुकुंदी लाल शामिल थे। 8 अगस्त, 1925 को इस दस्ते ने सहारनपुर- लखनऊ पैसेंजर ट्रेन से अंग्रेजों का खजाना लूटा था। काकोरी षड्यंत्र के नाम से प्रसिद्द इस कांड में अशफ़ाकउल्लाह, बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा और बाकी लोगों को 4 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सज़ा सुनाई गई थी। अशफ़ाकउल्लाह खां को 19 दिसंबर, 1927 की सुबह फांसी दी गई। अंग्रेजों को हिला देने वाले काकोरी कांड के नायक अशफाक उल्लाह खां ने फांसी के पहले वजू के बाद कुरआन की कुछ आयतें पढ़ी, कुरआन को आंखों से लगाया और ख़ुद जाकर फांसी के मंच पर खड़े हो गए। उन्होंने वहां मौज़ूद लोगों से कहा – ‘मेरे हाथ इन्सानी खून से नहीं रंगे हैं। खुदा के यहां मेरा इन्साफ़ होगा।’ उन्होंने अपने हाथों फांसी का फंदा अपने गले में डाला और झूल गए। यौमे पैदाईश (22 अक्टूबर) पर शहीद अशफ़ाक़ को कृतज्ञ राष्ट्र की श्रद्धांजलि, उनकी लिखी आख़िरी ग़ज़ल के साथ !
बहार आई है शोरिश है जुनूने फितना सामां की
इलाही ख़ैर रखना तू मिरे जैबो गरीबां की
भला जज़्बाते उल्फ़त भी कहीं मिटने से मिटते हैं
अबस हैं धमकियां दारो रसन की और जिन्दां की
वो गुलशन जो कभी आज़ाद था गुज़रे ज़माने में
मैं हूं शाखे शिकस्ता यां उसी उजड़े गुलिस्तां की
नहीं तुमसे शिक़ायत हम सफीराने चमन मुझको
मेरी तक़दीर ही में था कफ़स और क़ैद ज़िन्दां की
ये झगड़े औ बखेड़े मेट कर आपस में मिल जाओ
अबस तफ़रीक़ है तुममें ये हिन्दू और मुसलमां की। लेख-श्री सुनील कुमार दत्ता स्वतंत्र पत्रकार एवं दस्तावेजी प्रेस छायाकार