Saturday, July 27, 2024
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अतीत के झरोखों से आजमगढ भाग- 8विक्रमादित्य के पुत्र थे आजम व अजमल शाह

अतीत के झरोखो से आजमगढ़ – vol – 8

विक्रमादित्य के पुत्र थे आजम व अजमत शाह

1622 – 23 से इस काल खंड में मुग़ल शासन अवनी अदहन की तरह खुल रहा था | जहागीर के चारो बेटो 1 – खुसरो 2- परवेज 3- खुर्रम शाहजहाँ 4 शहयार में से खुर्रम शाहजहाँ का खिताब पाकर सवा शेर बन चूका था | कंदहार जाने के प्रश्न पर वह विद्रोही हो चूका था — ऐसे में छोटी देशी रियासतों को देखने की किसे फुर्सत थी | विक्रमादित्य का आदर्श भी खुर्रम था | पिता धरणीधर तो कठपुतले थे , बाबा हरिबंश सिंह पर जोर जबरदस्ती करके उन्होंने सिंहासन हथिया लिया | हाँ विक्रमादित्य परम हठी थे | ये भी घोषित राजा हरिबंश सिंह के नीचे ही रहे जैसे धरणीधर रहे किन्तु एक वर्ष बाद हठपूर्वक इन्होने राजतिलक का उत्सव करा लिया | उनका विवाह प्रियम्वदा नामक महिला से हुआ वह भी ज्योति कुँवर की तरह धर्मनिष्ट और आदर्श थी – विक्रमादित्य के उच्छश्रृखल स्वभाव के चलते उनकी अनबन बराबर बनी रहती थी | विक्रमादित्य के कान काठ और जिगर पत्थर का था वे हमेशा हिंसात्मक कारगुजारियो करते रहे इसलिए महल में वह मुँह पर पट्टी बांधकर रहती थी | नारायणदत्त ने एक प्रकार से अपना सम्बन्ध तोड़ रखा था विक्रमादित्य से | न आना न जाना और न ही किसी कार्य प्रयोजन पर शामिल होना | विक्रमादित्य को उनसे कोई खतरा नजर नही आता था | अत: वे भी नारायणदत्त से अलगाव ही निभाते रहे लेकिन रुद्रप्रताप सिंह कडकड स्वभाव के थे उनकी शादी उनवल जिला गोंडा स्टेट में हुई थी पत्नी भवानी कुँवर पवित्र धार्मिक न्यायप्रिय और उदार स्वभाव की थी | उन्हें केवल एक लड़की हुई बड़ी होने पर उसकी शादी भी उन्होंने उनवल घराने में ही की जिससे एक पुत्र सुदर्शन हुआ | नानी के स्नेह की छाँव न छोड़ने की जिद में नाती सुदर्शन ननिहाल में ही रहता था | विक्रमादित्य ने देखा की अब और सन्तान रुद्रप्रताप को नही होगी तो वे उत्तराधिकार के प्रश्न पर चिंतित हो उठे | उन्हें लगा की बछवल की जागीर को रुद्रप्रताप अपने नाती सुदर्शन को दे देंगे – तो वे परीशान हो उठे | उन्होंने कई बार कहलवाया की सुदर्शन को अपने घर भेज दिया जाए – रुद्रप्रताप उनकी मंशा समझ गये और जिद में आकर कई गाँवों को सुदर्शन के नाम कर दिया | इस कृत्य पर विक्रमादित्य का आग बबूला होना स्वाभाविक था | उन्होंने कुछ ऐसी योजना बनानी शुरू की जो नही बनानी चाहिए थे |

माँस खाने के मामले में विक्रमादित्य गिद्ध थे | उनका एक मुंहलगा कसाई था जो भाँती – भाँती के गोश्त पहुचाता था – हत्या करने में वह माहिर था | उससे मंत्रणा करके विक्रमादित्य ने चक्मुईनुद्धीन के एक कसाई को गुप्त मंत्रणा में शामिल किया जो कभी – कभी बछवल में रुद्रप्रताप को मांस दिया करता था हत्या के लिए होली के पूर्व संध्या का दिन निश्चित किया गया क्योकि इस दिन रियासत के चौतालकार होली ऊँचे स्वर में गाते थे | बाद में उन्हें शराब – माँस बाटा जाता था | इस दिन गोश्त की खपत ज्यादा होती थी | हत्यारे ने गोश्त पहुचाँया और कही छिपा रहा | जब रुद्रप्रताप अपने कक्ष में बैठकर अकेले शराब पीकर टुन्न थे तो धीरे से घुसकर उसने रुद्रप्रताप की हत्या कर दी | उनकी चीख चौताल गायकों की ऊँची आवाज ढोलक की थाप और मजीरो की झनक में खो गयी | देर रात तक गये हल्ला हुआ सारा गोश्त कुत्तो ने खाया भवानी कुवँर विधवा हो गयी | लेकिन उन्होंने किसी को दोष नही दिया | श्राद्ध कर्म के बाद वे उनवल चली गयी वहाँ कुछ समय तक रही फिर सुदर्शन को वही छोड़कर बछवल लौट आई और धैर्य धारण कर अपनी रियाया और रियासत की देखभाल करने लगी | प्रजा उनकी बहुत इज्जत करती थी | जासूसी कला में स्त्रिया सर्वाधिक कुशल होती है | किसी रहस्य को उगलवा लेना इन्ही के वश की बात होती है कुछ स्वामिभक्त अन्तरंग स्त्रियों ने इस बात पे शंका उठाई की फलाँ कसाई को किस वजह से विक्रमादित्य ने एक गाँव लिख दिया उसने राज्य के लिए क्या बलिदान दिया था ? बछवल और मेहनगर की दूरी कितनी है , इन स्त्रियों में से कुछ ने मेहनगर के स्त्री समाज में घुसकर पता लगा लिया की यह इनाम रुद्रप्रताप की हत्या के बदले दिया गया है |

भवानी कुवँर ने अपने भाई को उनवल से बुलाया और मशविरा किया फिर क्षेत्रीय काजी के पास जौनपुर जाकर फरियाद किया | यह 1627 का समय था , जहाँगीर बहुत बीमार था उसे दमा का रोग लग गया था अच्छा होने के लिए उसे कश्मीर ले गये थे लोग इसलिए शाही दरबार में फैसला सम्भव न था तब काजिये सद्र के अदालत में मामला पेश हुआ विक्रमादित्य को पकड़कर लाया गया | वे सवालों का जबाब नही दे सके | सल्तनत की खिराज भी नही दिया था | तब जुर्मो की तलाफी स्वीकृति कर लिया | उन्हें इस्लाम के आबे जमजम से गुजिशत गुनाहों को धो लेने का निर्णय दिया गया , वे फिर अपने पूर्व धर्म में लौट न जा सके इसलिए एक चन्देल राजपूत के मुस्लिम हुए घराने से फातिमा नामक लडकी से उनका निकाह कर दिया गया उसे लेकर विक्रमादित्य मेहनगर लौटे , उन्होंने इस्लाम धर्म के वावजूद अपना नाम नही बदला , विक्रमाजीत ही कहलाते रहे | इस घराने से प्रियम्बदा बहुत दुखी हुई उसने विक्रमादित्य का परित्याग करने का मन बना लिया मगर फातिमा बहुत ही अच्छे स्वभाव की लड़की थी उसने प्रियम्बदा के हाथ जोड़े | उसकी सेवा करने की कुरआन पर हाथ रखकर कसमे खायी की सबसे अधिक बदनामी तो उसी की होगी , लोग कायर कहेंगे | प्रियम्बदा रुक गयी परित्यक्ता की तरह एक तरफ | फातिमा हमेशा उसकी सेवा में रहती और छुआछूत भी निभाती | विक्रमादित्य को घर के अन्दर के मामलो की खबर लेने की फुर्सत कहाँ थी | दिल्ली सल्तनत परीशान थी , शाहजहाँ तख्त हथियाने के करीब था इसलिए विक्रमादित्य ने बछवल की रियासत का बहुत सा हिस्सा हड़प लिया भवानी कुवँर इस पर कुछ न बोली | हथियाए गये इन गाँवों का खिराज करीब दस साल से बाकी था , जब सल्तनत के अधिकारी खिराज वसूलने गये तो भवानी कुवँर ने जाच – पड़ताल करा दिया कि वे विक्रमादित्य के कब्जे में है और वही इसके देनदार है |

रानी भवानी कुवँर – आदर्श स्त्री का दर्पण
सुना जाता है कि किसी रात जब विक्रमादित्य कही गये हुए थे और किसी निमंत्रण में भवानी कुवँर आकर राज की सीमा पर किसी मंदिर में टिकी हुई थी तो फातिमा प्रियम्बदा के साथ उनके पास गयी और पैर पकड लिया रो रो कर माफ़ी मागने लगी की उनका कोई कसूर नही वह उन्हें देवरानी नही माता का दर्जा देती है उम्र में भवानी कुवँर बड़ी थी उन्हें मेहनगर में लोग ”बडकी अम्मा ” कहते थे भवानी कुवँर ने फातिमा के स्वभाव की बड़ाई सुन रखी थी | विक्रमादित्य को पता चला तो बहुत बिगड़े परन्तु दोनों स्त्रियों ने उन्हें ऐसा झिझोडा की वो खामोश हो गये | फातिमा से वे बहुत डरते थे कयोकि वह दिल्ली के काजी की लड़की थी शिकायत करने पर इनकी हालत खराब कर सकती थी | राजभवन में एक दूसरा ही बखेड़ा शुरू हो गया | भवानी कुवँर के सम्पर्क विक्रमादित्य कट्टर विरोधी थे लेकिन फातिमा बहुत होशियार और समझदार थी | उसने आंतरिक क्षणों में विक्रमादित्य को समझाया की दुश्मनी बढ़ने से बेवा भवानी कुवँर बाकी जागीर भी अपने नाती के नाम लिख देंगी और अगर मिला लिया जाए तो बाद उनके मरने के सारी जागीर मेहनगर को मिल जायेगी | विक्रमादित्य अजीब चक्रव्यूह में घिर गये | जब आजमशाह का जन्म हुआ तो फातिमा ने बाकायदा भवानी कुवँर के पास निमंत्रण भेजा | भवानी कुवँर नेग जोग के साथ आई और यह देखकर दाग रह गयी की बच्चे के अकिका और काजल लगाने की दोनों रस्मे पूरी की गयी | एक मुस्लिम तथा दूसरी हिन्दू पद्धति से | हिन्दू पद्दति से सारे कार्यक्रम प्रियम्बदा की गोद से हुआ पूर्ण पवित्रता था शास्त्रों के अनुसार | फिर आशीर्वाद देकर वे बछवल लौट गयी फाटक पर आसन जमाए विक्रमादित्य सब सुनते रहे उन्हें लगा की भवानी कुवँर के चेहरे पर परास्त के भाव थे | विक्रमादित्य की चौकड़ी में अपराधी मनबढ़ लोग थे वैसी ही राय देते थे | उन्होंने राय दी कि इस खामोशी का क्या फायदा ? बेवा को चुटकी बजाते खत्म किया जा सकता है | ज्यादा से ज्यादा भूमि पर कब्जा कीजिये अगर भवानी विरोध करती है तो बस काम तमाम ! औरतो के लफड़े में मत पड़िए विक्रमादित्य इस राय को मान गये और कब्जेदारी आरम्भ की भवानी कुवँर ने कही भी प्रतिरोध नही किया | खिराज की रकम बढती गयी और सारा समाचार दिल्ली पहुचता गया | 24 परगने के उस राज्य में पूरा आज़मगढ़ तथा बलिया गाजीपुर और जौनपुर के कुछ हिस्से शामिल थे और खिराज की रकम में शाहजहाँ जब गद्दी पर बैठा तब उसका मिजाज बहुत गर्म था उसने चुन चुन कर अपने वंश के शहजादों को मरवा डाला इसी गर्म मिजाजी में उसने विक्रमादित्य से बाकी खिराज वसूलने को सेना भेजा | पश्चिम से सेना के आने का मार्ग था उत्तर दक्षिण में विरोधी ठाकुर थे अत: वे पूरब गाजीपुर की तरफ भागे | सिंहपुर पहुचते पहुचते सेना ने उन्हें घेर लिया | असफल लड़ाई लड़ते हुए विक्रमादित्य मार डाले गये संयोग से यही वह क्षेत्र था जहां गंभीर सिंह और रूद्रनारायण की हत्या हुई थी | सेना के साथ जो दिल्ली सल्तनत का अधिकारी आया था उसने जागीर जब्त कर लिया | जब विक्रमादित्य के साथ जागीर भी चली गयी तब दूसरे पुत्र नरायन दत्त बहुत छोटे थे | किले की सम्भाल के लिए कोई पुरुष नही था | नारायण दत्त वहाँ रहने को राजी नही हुए उन्होंने कहला भेजा कि जब दिल्ली दरबार से जानशीनी का फैसला उनके हक़ में होगा तभी वे मेहनगर में रहेंगे नही तो नही | तब फातिमा प्रियम्बदा के अनुनय विनय पर भवानी कुवँर मेहनगर आई और अनाधिकृत रूप से सही राजकाज की व्यवस्था देखने लगी | उन्होंने प्रजा के हित के कार्य किये पोखरे खुदवाए मंदिर बनवाये | बिना किसी भेदभाव के सभी वर्गो के साथ इन्साफ किया इससे बिना राजा के भी राज्य में पूर्ण शान्ति रही | देवरानी होते हुए भी उनको बड़ी जेठानी का दर्जा दिया गया – बल्कि एक प्रकार से उन्हें राजमाता जैसा आदर था | इतिहास में भवानी कुवँर जैसा चरित्र खोजने से भी नही मिलेगा जिसने अपने पति के हत्यारे बेटो को अपनी सन्तान से अधिक प्यार किया माता समान पालन पोषण किया वह भी निस्वार्थ विक्रमादित्य के पुत्र आजमशाह के पुत्र आजमशाह- अजमत शाह भवानी कुवर के ही आस पास रहे वे अनुशासन में रखते हुए बहुत प्यार दुलार देती थी | रानी भवन में हिन्दू – मुसलमान एकता का गंगा जमुनी माहौल था उसी के अनुरूप भवानी कुवँर ने दोनों बच्चो की शिक्षा दीक्षा का भी प्रबंध किया | उन्हें हिन्दू पंडित यदि पुराण पढ़ता मौलवी कलमा और नमाज की भी शिक्षा देता | उन्होंने फातिमा की कोख का आदर करते हुए हिन्दू नामो की परम्परा को खत्म कर दिया और इनका मुस्लिम नाम ही बरकरार रखा | फातिमा – प्रियम्बदा के आग्रह पर उन्होंने नाती सुदर्शन को भी मेहनगर बुला लिया और सभी शिक्षा आजम अजमत के साथ दिलाया | ये तीनो बच्चे अपूर्व प्रतिभाशाली और बहादुर थे | अपने साथ वे राज के विभिन्न अंचलो में ले जाती थी ताकि प्रजा का दुःख – दर्द , हर्ष – विषाद वे अपनी आखों से देख सके और न्यायपूर्ण निर्णय ले सके |
सन 1630 में दिल्ली दरबार सल्तनत मुगलिया के मुनव्वर आफताब शहजादे आलम शाने शाही के बहरे बेकरा ( उमड़ता समन्दर ) शाहंशाह पुर फैज ( कृपालु ) बादशाह साहबजादा की तरफ से मेहनगर में शाही नक्कारची ने मुनादी की जागीर की जानशीनी उत्तराधिकार के हकदार अपने हक दिल्ली हुजुर में पेश करे , जो भी फैसला होगा उसके मुताबिक़ जागीर की जागीरदारी उनको अता की जायेगी | इसके लिए नारायण दत्त सिंह भवानी कुवँर फातिमा और प्रियम्बदा दिल्ली दरबार गये | पेशी और बहस हुई और जागीर नाबालिग आजमशाह – अजमतशाह को मिली और बालिग होने तक भवानी कुवँर को उनका वली मुकरर किया गया | बारह वर्षो तक भवानी कुवँर ने जिम्मेदारी से जागीर की देखभाल किया | अब आजम – अजमत सयाने हो गये थे | दिल्ली के न्यायाधीश काजी ने हक नशीनी में बड़ी मदद की थी काजिपुत्री की बहुत अच्छी छाप फातिमा ने भी छोड़ी थी अतएव सबकी राय से उनकी पुत्री जेबिन्निशा की शादी आजमशाह से कर दी गयी | 1650 ई0में उन्होंने आजमशाह को जागीर सौप दिया राजमाता बीमार भी रहने लगी थी आंतरिक सुरक्षा सुदर्शन सिंह और वही सुरक्षा के सेनापति उदयसिंह बनाये गये |

प्रस्तुती – सुनील दत्ता – स्वतंत्र पत्रकार – समीक्षक

सन्दर्भ – आजमगढ़ का इतिहास – राम प्रकाश शुक्ल ‘निर्मोही ‘

विस्मृत पन्नो पर आजमगढ़ -हरिलाल शाह

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