Saturday, July 27, 2024
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अतीत के झरोखों से आजमगढ -भाग- 10-शाहगढ किला-एक अन लिखी कहानी

अतीत के झरोखो से आजमगढ़ – vol – 10
शाहगढ़ किला – एक अनलिखी कहानी

सबसे पहले शाहगढ़ क्षेत्र का चुनाव किया गया | प्रथम दृष्टया यह स्थल किले के लिए बहुत उपयुक्त दिखाई पडा | मेहनगर में किले के तीन तरफ एक चौड़ी नहर खोदी गयी थी जिसमे पानी भरा रहता था | जिससे अनचाहे लोग किले में न घुस सके | यहाँ इस रोक की प्राकृतिक साधन तमसा नदी थी जिसने शाहगढ़ क्षेत्र को तीन तरफ से घर रक्खा था | आज भी स्थिति वही है | सिधारी नये पुल से उत्तर पंच-पेड़वा , भोला घाट , कदमघाट , गौरीशंकर घाट, दलालघाट की मस्जिद , किला , अईनिया , हथिया होते हुए यह दौलतपुर होकर मुहम्मदाबाद की तरफ मुडती हुई जाती है | तीन तरफ से यदि दुश्मन आते ( पश्चिम , उत्तर पूरब ) तो उन्हें नदी पार करना होता , सेना के लिए बहुत कठिनाई होती | दक्षिण का एरिया मेहनगर नदी से पार से सीधा जुड़ता था , जो नदिया थी वे बरसाती थी इसलिए यह स्थल काफी ठीक लगा | नदी को बिना पार किये भी हरिबंशपुर कोट से शाहगढ़ का जमीनी रास्ता था ( हरिबंशपुर , नरौली टैक्सी अड्डा ,हाइडिल चौक , तिवारीपुर , बैठौली , शाहगढ़ ) सबसे महत्वपूर्ण यह थी की यह क्षेत्र अभिमन्यु सिंह के मुस्लिम नाम दौलत खा की स्मृति में बसाए गये दौलतपुर में था जो इस वंश की महत्वपूर्ण कड़ी थे | वही एक स्थल का चुनाव करके राजमहल बनाने की योजना बनी | शाहगढ़ में एक अस्थायी फाटक बनाकर किले की शुरुआत की गयी थी | नदी की सुविधा के कारण शाहगढ़ और सिधारी के बीच धोबियो की बड़ी बस्ती थी ( बरेठाधोबी ) +अवली ( श्रृखला ) = बरेठवली – बरेठौली – बैठौली) उसे क्षेत्र में मिला लिया गया | यह कार्य 1650 इ के लगभग सम्पन्न हो रहा था | भवानी कुवँर तब बीमार थी मगर जीवित थी | बहुत से इतिहासकारों ने लिखा है की भवानी कुवँर 1650 में मृत्यु को प्राप्त हो गयी थी , जब की शाहगढ़ की यह कहानी भी पंडित दयाशंकर मिश्र की ही सुनाई हुई है | उनका कहना था की भवानी कुवँर की मृत्यु 1660 में हुई और तभी शाहगढ़ किले का निर्माण रोक दिया गया | निर्माण रोकने के दो कारन थे शाहगढ़ का किला और ‘महलिया ‘ में महल बनाने का कार्य रुक गया – इसकी अलग कहने है |
किले के नक्शे के अनुसार उसका सदर दरवाजा दक्षिण मुख को था | राज घराने के सलाहकार और गुरु , अजमत के मित्र पंडित बलदेव मिश्र थे | वास्तु शास्त्र के नियमानुसार दक्षिण मुखी द्वार क्षयकारी होता है , अशुभ घटनाए घटती है |दुसरा कारण सेनापति द्द्व्य जलंधर सिंह बाजबहादुर की रणनीति पर केन्द्रित था उनका कथन था की तमसा नदी उनकी सुरक्षा तो करती थी लेकिन यदि उद्द्वेलित पश्चिम के अठैसी ठाकुरों से युद्ध करना पडा तो सेना को पार होने में यही नदी बाधक होगी | अगर पुल बनाया जाए तब भी खतरा रहेगा , उस पर पश्चिम आकर दुश्मन पहले ही कब्जा कर लेंगे | इस तर्क ने सबको परेशान कर दिया दोनों सेनापतियो के चुनाव पर ही नदी के उत्तरी मोड़ पर फल्व्रिया गाँव का चयन किया गया जहाँ मालियों और त्मोलियो की बस्ती थी | पश्चिमी तात मल्लाहो की बस्ती थी | एक वैश्य सीताराम सेठ का विशाल कृषि क्षेत्र था | काफी सोच विचार के बाद यहाँ किले के भूमि का पूजन किया गया | अभी तक शाहगढ़ किला रुका हुआ था विचार था की एक मजबूत पुल किले के सामने ही बनाकर शाग्ध को मिला लिया जाए , तभी भवानी कुवँर की हालत खराब हो गयी उन्हें हरिबंशपुर लाने की योजना बनी | आजमशाह चाहते थे की बडकी माई किले में ही रहे उनके लिए नदी पार हथिया गाँव में एक गणेश मंदिर की स्थापना की गयी पर वे राजी नही हुई | वे किसी पुन्य भूमि पर मरना चाहती थी इसलिए उन्होंने दुरबासा , दत्तात्रेय , शित्लाधाम के निकट सेठवल के पास रहने को कहा लेकिन भगवान को यह दिन नही दिखाना था | उन्होंने रानी ज्योति कुवँर की स्मृति में एक पोखरे एवं मंदिर बनवाने की इच्छा पगत की फिर दिग्व्न्त हो गयी 1660 के अंतिम दिनों में | इस घटना के बाद शाहगढ़ को किला में शामिल करने का विचार छोड़ दिया गया | किला निर्माण के साथ आजमशाह ने पोखरा तथा मंदिर बनवा कर बडकी माई की अंतिम इच्छा पूरी किया और वहां स्थित सराय का पुनर्निर्माण करके बड़ी सराय बने गयी , वही रानी की सराय है जो आजमगढ़ से ज्यादा प्राचीनता की हकदार है |

प्रस्तुती – सुनील दत्ता – स्वतंत्र पत्रकार – समीक्षक

सन्दर्भ – आजमगढ़ का इतिहास – राम प्रकाश शुक्ल ‘निर्मोही ‘

विस्मृत पन्नो पर आजमगढ़ -हरिलाल शाह

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