अतीत के झरोखे में आजमगढ़ – vol – 5
अथ चन्द्रसेन कथा – अभिमन्यु सिंह से दौलत खा इब्राहिम तक
चन्द्रसेन सिंह के दो पुत्र थे – 1 – अभिमन्यु सिंह 2 – सागर सिंह दोनों ही बिगड़े हुए युवक थे | अभिमन्यु सिंह शरीर से सुन्दर , मजबूत दिमाग से घोर महत्वाकाक्षी थे | उनकी सोहबत भी बिगड़े हुए लोगो से थी | मांस – मछली शराब की लत जो चाहा लाठी के बल पर हासिल करने की आदत , इसलिए लोग उनको व्यंग्य में अभिमान सिंह ( घमंडी ) कहा करते थे | पता नही लोगो ने यही नाम अंग्रेजो को बता दिया अथवा लिखने में भूल से शब्दों की गलती से जिला गजेटियर में अभिमान सिंह लिखा गया | सागर सिंह बलिष्ठ तो थे पर अपेक्षाकृत सुन्दर नही थे लेकिन कुटिल चाणक्य बुद्धि वाले थे | हठधर्मी से उन्होंने गिरती उम्र के चन्द्रसेन सिंह को मुठ्ठी में कर लिया था | जब बड़े भाई अभिमन्यु सिंह के विवाह के लिए देखने वाले ”देखरूह” आये तो उन्होंने चालाकी से उन्हें शराब के नशे में लडखडाते दिखा दिया , फलत: उन्होंने शादी से इन्कार कर दिया तब सागर सिंह ने नाटकीय अंदाज में कहा कि ठाकुर के चौखट पर आया शगुन वापस नही जा सकता | दुर्भाग्य से बड़ा भाई नालायक है तो मैं शादी करूंगा परन्तु शगुन वापस नही होगा अन्यथा गौतम परिवार की इज्जत चली जायेगी | दबाव में चन्द्रसेन सिंह ने भी कह दिया , तब सागर सिंह की शादी हो गयी और अभिमन्यु सिंह बिना शादी के रह गये | इन दोनों भाइयो में यह घोर दुश्मनी का बीज था | लोक कथन है कि एक दिन अभिमन्यु सिंह ने अपने साथियों को मछली की दावत दिया | दुश्मनी में सागर सिंह ने दावत से एक दिन पहले ही जाल डालकर मछलियों को छनवा लिया दावत में विघ्न डालने के आरोप को लेकर भाइयो में तू – तू मैं – मैं फिर झगड़ा हो गया | चूँकि सागर सिंह ने योजनाबद्ध कार्य किया था इसलिए अभिमन्यु के साथी तो भाग गये पर भाड़े के लठैत ने अभिमन्यु सिंह को बुरी तरह मारकर घायल कर दिया , सहायता को कौन कहे कोई मरहम पट्टी तक को नही आया यह बात पूरे क्षेत्र में फ़ैल गयी और अभिमन्यु सिंह मुँह दिखाने लायक नही रहे | सागर सिंह पिता की भी दुर्दशा करते थे और प्रजा में भी आतंक फैला चुके थे इसलिए अभिमन्यु सिंह को मेहनगर धुवे का घुटन भरा कमरा मालूम होने लगा | एक दिन वे मेहनगर से जौनपुर भाग गये इस आशा में की सरकार से फरियाद रखेंगे |लेकिन वहाँ का शासक खुद परेशान था | भाई – भाई के झगड़े पर तो आज थाना भी हाथ नही डालता है उस युग की क्या बात | बेचारे इधर – उधर भटकते और आश्रय खोजते रहे फिर किसी सिपाही के घोड़े की रखवाली में ”खरहरादार ” हो गये | सिपाही मुसलमान था घोड़ो की सवारी में उसका बड़ा नाम था लेकिन एक दिन उसने अभिमन्यु सिंह को घोड़ा – सवारी करते देखा तो दंग रह गया | तब घुड़सवारी की प्रतियोगिता होती थी | आज की ट्रैक दौड़ प्रतियोगिता की तरह | दो स्थानों के बीच उबड़ – खाबड़ रास्तो पर घुड़सवारी करके जल्द से जल्द पहुचना होता था | अभिमन्यु ने ऐसी प्रतियोगिता जौनपुर में जीती तो सिपाही ने उन्हें आगरा जाने की सलाह दी जहाँ घुड़सवार सेना की भर्ती होने वाली थी , लेकिन उसने एक शंका बताई तुम मुसलमान होते तो जरुर चुन लिए जाते , हाँ हिन्दू होने पर अड़चन जरुर आएगी | अभिमन्यु सिंह सोच में पड़ गये मगर इस चिंता के पीछे भाई और परिवार का अत्याचार भी धधक रहा था | शादी – व्याह राजपाट की सब आशा धुल चुकी थी बिलकुल बेसहारा थे – भाई सागर सिंह से बदला लेने का भी स्वर्ण अवसर था अगर वे फ़ौज में दमदार पद पा जाए तो | प्रतिक्रिया में उन्होंने सिपाही के सहयोग से मुस्लिम धर्म इब्राहिम नाम से परिवर्तन कर लिया पर यह बात गोपनीय रक्खी गयी | सिपाही स्वंय उन्हें लेकर आगरा गया वे भर्ती पा गये | घुड़सवारी कौशल में उनका कौशल चर्चा का विषय बन गया | वे घुड़सवार सेना के सदर मुकरर हुए जहाँगीर ने उनकी प्रशसा की – तो कुछ ईर्ष्यालु उन्हें काटने पर तूल गये | उन्होंने जहाँगीर से चुगली की कि यह आपके दादा हुमायूं के दुश्मन का पुत्र है और मूलत: हिन्दू है यह अंतत: आपके साथ घात करेगा , आपके पिता का इसका पिता दुश्मन था —
लेकिन जहाँगीर तो खुद अपने पिता के प्रति विद्रोही था उसने खुलेआम विद्रोह भी किया था | अनारकली के विषय में इतिहास चुप है किन्तु किवदन्तियो साहित्य और फिल्मो ने इसे उजागर किया है | लाहौर में अनारकली की कब्र के आधार पर | इसके आधार पर यह तय है कि अकबर ने सलीम के किशोरावस्था के प्रथम प्रेम को कुचलकर उसे दीवार में चुनवा दिया था | इस तुफैल में उसने अभिमन्यु सिंह उर्फ़ इब्राहिम को बाकायदा दौलत खा नाम देकर जौनपुर का सूबेदार बना दिया | ” सूबेदार’ प्रतिष्ठित होने के बाद अभिमन्यु सिंह एक दस्ते के साथ सागर सिंह की हत्या करने मेहनगर पहुचे | सागर तो पहले ही भाग गये थे , घर में उनके बच्चे खेल रहे थे बड़े हरिबंश थोड़े बड़े थे , जयनारायण , गोपाल छोटेदयाल सिंह बहुत छोटे थे | हरबंश ने चाचा को पहिचान लिया और दौड़कर पाँव छुआ भाइयो से उनका अभिवादन कराया और घर से भेली पानी ले आये , अभिमन्यु हतप्रभ से रह गये उन्होंने दरिद्रता से गुजरते अपने परिवार को देखा , हत्या की सुधि भूल गयी उल्टे पाँव वे जौनपुर लौट आये | जिस उद्देश्य से उन्होंने जौनपुर की सुबेदारी मांगी थी , उसकी पूर्ति तो नही हुई उल्टे उनके मुसलमान हो जाने की गर्म चर्चा ने ठाकुर बाहुल जौनपुर में घृणा के बीज बो दिए | कई बार उनके मुँह पर ही कई असरदार लोगो ने उन्हें विधर्मी कह कर अपमानित किया — बात चूँकि सत्य थी – लोगो के पास गवाह भी थे , घुड़सवारी प्रतियोगिताओं में चश्मदीद मौजूद थे , इसी लिए अभिमन्यु सिंह उर्फ़ दौलत खा इब्राहिम की सूबेदारी असर खोने लगी उन्होंने अपना स्थानान्तरण करा लिया और इलाहाबाद के सूबेदार हो गये कुचर्चाओ ने यहाँ भी उनका पीछा नही छोड़ा वहाँ भी वे उलझन में ही रहे परेशान होकर वे जहाँगीर से मिले और सब हाल तफसील से ब्यान किया तो उन्हें राजमहल में नाजिर पद पर नियुक्त कर दिया गया | वे अपनी बदकिस्मती पर बिसरते रहे – न इधर के हुए – न उधर के हुए | धोबी के कुत्ते की तरह न घर के रहे न ही घाट के |
किसी की तक़दीर भगवान कखूटे से लिख देते है तब वह किसी करवट चैन नही पाता | दौलत खान शादीशुदा नही थे और शारीरिक सौष्ठव भी था – इस कारण चचलाए उनके आगे पीछे मडराने लगी | मुग़ल रनिवासो का विचित्र वातावरण था , हुस्ने इश्क शराब शबाब का रगीन माहौल | जहाँगीरकी कुछ रखैलो ने सिफारिश की उन्हें रनिवास का नाजिर बनाने के लिए – तब जहाँगीर चौकां | उसने कुटिल राजनीति खेला | दूर हटाने की नियत से1609 ई० में उन्हें 24 परगने की जागीर , राजा की उपाधि 1 लाख 25 हजार सालान की नानकार दिया | किन्तु रनिवास से बार – बार दबाव पड़ता की उन्हें हटाया न जाए | जागीर प्रदान करने की घोषणा जहाँगीर के हाथ से निकल चुकी थी अब जहाँगीर वापस लेता तो जहाँगीर के इन्साफ पर धब्बा लगता – इसलिए उसने जागीर फिर से मुग़ल राज्य में मिलाने की मंशा से हिजड़ो को बुलाकर उन्हें नपुंसक बनवा दिया , जब न विवाह होगा न सन्तान तो फिर जागीर मुग़ल राज्य में मिला ली जायेगी | इस तथ्य को किसी इतिहास में नही लिखा गया है , आजमगढ़ के भी किसी इतिहास में नही | हालाकि पहले इतिहास में प दयाशंकर मिश्र ने ही इसे लिखा था ऐसा वे कहते थे लेकिन उनकी पांडुलिपि जब टाइप करके छपने को दी गयी तो अनेक सुधारों में यह भी एक सुधार था | इसका खुलासा तब हुआ जब इसी पांडुलिपि के आधार पर स्व मुखराम सिंह ने ”आज ” के आजमगढ़ विशेषांक 26 अप्रैल 1958 ई में अपने मुख्य लेख आजमगढ़ का अतीत और गौतम राजवंश में स्पष्ट लिखा और उन्हें नपुंसक बना दिया इस पर कई लोग नाराज हुए राजा साहब तत्कालीन की नारजगी की बात भी आई और मुखराम सिंह कोई जबाब नही देते थे हालाकि ज्योतिस्वरूप सिंह ने कई बार पूछा | अगर वे बता देते की सूचना स्व परमेश्वरी लाल गुप्त के पास से मिली थी तो उसे प्रस्तुत करने की बात तत्कालीन जिलाधिकारी कृपा नारायण श्रीवास्तव करते – तब ”सुधारों का मूल रूप से पता चल जाता इसलिए वे कभी चुप्पी कभी क्रोध से टालते रहे तब ”आज’ और उसके जिला सम्वाददाता मुखराम सिंह का बड़ा मान – जान था बात ”आया राम , गया राम ” हो गयी |
अब दौलत खा को पता चला कि जहाँगीर ने उनके साथ क्या कूटनीति खेला था — साँप भी मर जाए , लाठी भी न टूटे | अन्दर – अन्दर वे जहाँगीर के विद्रोही हो गये और ऐसी चाल की योजना बनाने लगे की जहाँगीर हाथ मलता रह जाए | जहाँगीर को सागर सिंह की शत्रुता का तो पता था लेकिन उस घटना से वह वाफिक नही था , जब दौलत खान सागर सिंह की हत्या करने गये थे | दौलत खा के सामने दो रास्ते थे 1 – उनकी मृत्यु के बाद परगनों की जागीर नानकार मुग़ल सल्तनत में फिर लौट आएगी उन्हें एक कुत्ते की तरह घसीटकर दफना दिया जाएगा 2 – भतीजो को लिख दे तो जहाँगीर इन्साफ के नजरिये से कोई कार्यवाही नही करेगा | दुश्मन तो सागर सिंह थे उनकी संताने नही , कम से कम मरने पर लाश का अंतिम संस्कार तो कर देंगे | उन्होंने दूसरा विकल्प चुना और बड़े भतीजे हरिबंश सिंह के नाम जागीर लिख दिया | सालान नानकार तो बंद हो गया पर जागीर मिलते ही जनता ने हरिबंश सिंह को राजा घोषित कर दिया | जहाँगीर ने दौलत खा को आगरे से भगा दिया – वे मेहनगर चले आये , हरिबंश सिंह ने उनकी सेवा करना शुरू कर दिया | व्यंग्य और तानेजनी से उबकर अभिमन्यु सिंह ने गौतम वंश का चोला उतार फेंका और पूर्ण रूप से मुसलमान बन गये | खान – पान पहनावा रफत – ज्फ्त सब बदल गया | तत्कालीन चलन के मुताबिक़ हरिबंश सिंह ने उनके नाम पर दौलतपुर , दौलताबाद गाँव बसाया किन्तु मोमबत्ती के समान पिघलती उम्र में दौलत खा को किसी बात में रूचि नही थी – वे परम अकेले एकान्तप्रिय आत्मकेंद्रित व्यक्तित्व बनकर जीते रहे और हरिबंश के कार्य में कोई दखल नही दिया | सागर सिंह की पहले ही मृत्यु हो गयी थी | हरिबंश सिंह पक्के साँप थे जब पूरी तरह राज्य हथिया लिया तो उलट गये और दौलत खा की उपेक्षा करने लगे | दुर्व्यवहार भी करने लगे जैसा वे अपने पिता सागर सिंह के साथ भी किया करते थे | दुनिया की यही रीत है | ठीक ही कहा जाता है कि स्वर्ग – नर्क सब यही है बचपन से जवानी स्वर्ग है अधेड़पन नर्क है वृद्धवस्था और नर्क है राजा -रंक सबको एक उम्र में उपेक्षा घृणा और अलगाव का दंश झेलना पड़ता है | मृत्युलोक ! दौलत खा सब कुछ समर्पित करने के बाद भी काटो पर सोते रहे और मृत्यु को प्राप्त हुए | उनकी कब्र मेहनगर में बनी ही है |
प्रस्तुती – सुनील दत्ता – स्वतंत्र पत्रकार – दस्तावेजी प्रेस छायाकार
सन्दर्भ – आजमगढ़ का इतिहास – राम प्रकाश शुक्ल निर्मोही